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अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता (छठुँ अध्याय)

श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद, Poetic interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumaoni Language, Kumaoni Gita padyanuvad

अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता

स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद

पछिल अध्याय-०५ बै अघिल

छठुँ अध्याय - आत्म संयम योग


श्री भगवान बलाण-
बिन अवलंबन कर्म फलन का, करणी कर्मन करनै रूँ।
वी सन्यासी वी योगी छऽ, अग्नि रहित अक्रिय क्ये न्हा ।01।

जै कँ भल सयास कई जाँ, वी तू योग समझ अर्जुन।
बिना करी संकल्प त्याग सब, क्वे लै योगी है नि सकन।02।

योग में जो आरूढ़ हुणों चाँ वी को कारण कर्म बतई जाँ।
योग जब आरूढत्र हई जाँ, वी को कारण शमन बतई जाँ।03।

न त इन्द्रिन का विषयन में ही, और न कर्मन में आसक्ति।
सब संकल्पन को सन्यासी ही, योगारूढ़ कई जालो।04।

आत्मोद्धार हूँ आत्मा ही लै, आत्म नाश लै आत्मा लै।
आत्म बन्धु लै आत्मा ही छऽ आत्मा ही रिपु आत्मा को।05।

बन्धु आत्मा उनरै जनुलै आत्मा लै जिति ल्ही आत्मा।
अविजित आत्मा छऽ अनात्म रिपु बैरि बणी वी की आत्मा।06।

हूँ प्रशान्त मनआत्माजित को, परमात्मामय, सम है जाँ।
ठंड गरम में औ सुख दुख में, मान और अपमान में लै।07।

अनुभव ज्ञान ले आत्मतृप्त छऽ, जड़ में पुजी जितेन्द्रिय छऽ। 
युक्त कई जाँ वी योगी कैं, सुन माट जै हूँ एकनस्सै।08।

सुहृद, मित्र, अरि, उदासीन में, बीचा, बन्धु औ द्वेषी में।
साधुन है औ पापिन है लै, ऊ समबुद्धि विशेष भयो।09।

योगी सदा योग में जुटि जौ, कै एकान्त जगा में बैठि।
एकलै रो वश करी चित्त मन, परिग्रह और वासना त्यागि।10।

शुद्ध भूमि में अपनो आसन, स्थिरता की तैं करि थापन।
मुणि बै कुश, मृगचर्म, माथि वसन अति उच अति निच नी हुन।11।

योगासन में बैठण चैं तब शान्त चित्त अक्रिय इन्द्रिय।
तब वाँ मन एकाग्र करण चैं, अन्तःकरण करण हूँ शुद्ध।12।

सीधो करि काया, गरदन, शिर, अचल और थिर आपूँ कैं धरि।
देखौ आपणै नाका टुक में एथकै उथकै दिशा नि चै।13।

शान्त स्वरूप भय रहित बैठी, ब्रह्मचर्य व्रत धारण करि।
वश में मन हो चित्त लागी हो, मेरी ओर थिर मत्पर हो।14।

यै विधि योग में सदा लागी रौ, मन चित भलिक निरोध करौ।
परम शान्ति निर्वाण प्राप्त करि मेरी स्थिति में ऐ जालो।15।

योग यो अत्ती खै लै नी हुन, औरन पअ भुख रूणा लै।
वीक लै नै जो सिणै पड़ी रौ, या जो जागियै रौ अर्जुन।16।

हो आहार विहार सु नियमित, समुचित चेष्टा समुचित कर्म।
नियमित निद्रा नियमित जाग्रण , तबै योग दुख नाशक हूँ।17।

ऐसिकै संयत करी हुई मन, आत्मा में एकाग्र हुँ छऽ।
भोग लालसा रहित हुई तब, योग युक्त ऊ कई जाँ छऽ।18।

जस प्रधान दी तौलि भितर बै एक तार एकसार जगों।
यै उपमा योगी का मन की लागी ध्याान बै हलकन न्हा।19।

योगाचरण करदा पर जब जै, उपरत चितत निरुद्ध हुँ छऽ।
तक आत्मा ले देखी आत्मा, आत्मा में आनन्द हुँ छऽ ।20ं।

इन्द्रिय सुख है अणकस्सै वी उत्तम सुख्स कैं बुद्धि उठूँ।
जै कैं अनुभव करी तत्व बै फिरि ऊ विचलित है नि सकन।21।

परम लाभ ऊ मिलणा पर फिरि अधिक लाभ कवे लागनै न्हा।
तब फिरि कस्सै दुख पड़ी जा यागी विचलित है नि सकन।22।

दुःखन का संयोग बटी जब, हो वियोग वी यो समझ।
निश्चय वी मेंयुक्म हुणो चैं, उत्साहित ततपर चित लै।23।

उठनी जो संकल्प बै इच्छा, सब छसेड दे, क्वे शेष नि धर।
मन द्वारा इन्द्रिय समूह को, सब प्रकार लै नियमन कर।24।

माइॅ माठू उपराम विरति लै? बुद्धि धारणा ग्रहण करौ।
मन आत्मा कैं ध्यान लीन करि, तब लै कुछ चिन्तन नी करौ।25।

जस जस यो चंचल अस्थिर मन विषय भावना में विचरौ।
तस तस फिरि लौटे मन कैं, आत्मावश करि मौन धरौ।26।

सब विधि जब प्रशान्त मन हैे जाँ, उत्तम सुख योगी कैं हूँ।
रहित रजोगुण है जाँ तब ऊ पावन ब्रह्म रूप में रूँ।27।

यै विधि पाप रहित ऊ योगी, नित्य आत्मा में जुड़ि रूँ।
ब्रह्मानन्द निमग्न हुणा को, आत्यंतिक सुख अनुभव हूँ।28।

सब प्राणिन में निज अरात्मा कैं, आत्मा में सब प्राणिन कैं।
योग युक्त आत्मा देखनै रूँ, सबै ठौर समदर्शन हूँ।29।

जो मैं कन सर्वत्र देखि सकौं, मै में देखि ल्हरं सर्वात्मन।
मैं परोक्ष वीकि तैं न्हातूँ ऊ परोक्ष न मेरा हुन्।30।

सब प्राणिन में मेरा दर्शन एकीभूत भजौ मैं कन।
सब जोग सब प्रकार वर्तण पर, मैं में रूँ बिन परिवर्तन।31।

आपणी आत्मा का समान जा छऽ सर्वत्र हूँ सम दर्शनं।
सुख में हो, अथवा हो दुख में, वी उत्तम योगी अर्जुन।32।

अर्जुन बलाण
तुमलै मैंकन समदर्शन को, योग बता जो मधुसूदन!
मैं स्थिति कैं सम्भव नी देखन्यू मन की चंचल गति कारण।33।

कृष्ण महा चंचल यो मन छऽ अती बली इन्द्रिन मथणी।
यै को वश करणो मैं समझूँ। बयाल् रोकण जस दुष्कर छऽ ।34।

श्री भगवान बलाण
महाबाहु! यै में के संशय, मन दुर्निग्रह चंचल छऽ।
चिर अभ्यास औ दृढ़ विराग लै पर यो वश में करी सकीं।35।

मन संयम का बिना यागे हुण छऽ अशक्य मेरा मत में।
मन वश धरी प्रयत्नशील को, पै है सकौं उपाय करी।36।
अर्जुन बलाण
श्रद्धा हो पर यत्न भल नि हो, योग में चंचल रति मति हो।
योगसिद्धि यदि प्राप्त नि हो तऽ कृष्ण! उनरि तब क्ये गति हो?।37।

क्ये ऊँ उभय भ्रष्ट है जाला, छिनन मेश जा नष्ट होला?
महाबाहु! जो मन भटकण पर, भया योग पथ बै विचलित।38।

कृष्ण मेरा यो सब संशय छन, तुमैं इनन कैं दूर करौ।
दुसर ओर को मिलल तुमन है, भलिक जो संशय जाल हरौ।39।

श्री भगवान बलाण
वीको पार्थ! विनाश न्हांति कैं, यै लोकै या पर लोकै।
नी हुनि वीकी दुर्गति भैया! जो कल्याण करएा में हो।40।

स्वर्ग लोक कैं प्राप्त करी, वाँ वर्षअनेक निवास करी।
पुण्यवान श्री भरी गेह में, योग भ्रष्ट ऊँ छ उतरी।41।

अथवा बुद्धिमान योगिन का कुल में आई जन्म ल्हिनी।
ऐसो जन्म जगत में दुर्लभ औरन कैं ऊ कां मिलनी।42।

है जां पूव। जन्म का कारण, बुद्धि योग में मन बन्धन।
पुनः यत्न करणा पर सहजै सिद्धि हई जाँ कुरुनन्दन!43।

अपना योगाभ्यास हूँ खैंची ऊँछ् भोग बै विवश हई।
योगै जिज्ञासा हुण पर लै, शब्द ब्रह्म का पार पुजौं।44।

यत्न करण पर ही योगी का करने शुद्ध पाप मति कैं।
कई जन्म उपरांत सिद्धि हूँ, तब पै ल्हिनी परा गति कैं।45।

अधिक तपस्वी है छऽ योगी, ज्ञानी है लै ठुल योगी।
कर्मी है लै अधिक छ् योगी अर्जुन! तू लै हो योगी।46।

सब योगिन में जै योगी की अन्तर आत्मा मद्गत छऽ।
श्रद्धावान भजन कर मेरो, वी उत्तम मेरो मत छ।47।


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