
अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता
स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद
पछिल अध्याय-०६ बै अघिल
सातूँ अध्याय - ज्ञान-विज्ञान योग
श्री भगवान बलाण-
मैं में कर आसक्त पार्थ ! मन योग में जुड़ मेरा आश्रय।
संशयहीन जसिक तू मैं कन, परमपूर समझलै, सुण।01।
ज्ञान और विज्ञान सहित, मैं तुकें समस्त सिखाई दीं।
जैकन जाणी जाणण तैं तब, कती और के बांकि नी रून।02।
नर हजार में बााज्जै कोई, सिद्ध हुणैं तैं यत्न करों।
यत्नवान सिद्धन में कोई, मकैं जाणि सकौं तत्व सहित।03।
पृथ्वी पाणी अग्नि वायु नभ, यों तन्मात्रा औ मन बुद्धि।
अहंकार वस यै विधि मेरी पगकृति भिन्न छ आठ प्रकार।04।
प्रकृति अशुद्धाा यो अपरा भै, दुसरि शुद्ध ऊ परा कईं।
महाबाहु! यो जीव रूप छऽ, यै कँ धारण करीं जगत्।05।
द्वीयै प्रकृति यो भूत यानि छन जीव मात्र कैं जन्म दिणी।
समझ एसिक मैं अखिल जगत को आदिरूप औ अन्त स्वरूप।06।
अहो धनंजय मेरा परतर, कत्ती कैं के छुटियै न्हा!
यो सब मैं में गछी हुई छ धाग में मणिमोत्यूँ रसन्यात।07।
जल को रस छूँ कौन्तेय! मैं, प्रभा सूय्र्र शशि की छू! मैं।
ओंकार वेदन को दू! में, नभ मैं रव पौरुष नरमैं।08।
पुण्य गंध पृथ्वी की छूँ मैं, ज्वाला तेज विभवसु की।
सब प्रणिन को जीवन छूँ मैं, तप छूँ तथा तपस्विन को।09।
जीव जगत को आदि बीज मैं जाणले पार्थ! सनातन छूँ।
बुद्धिमान की बुद्धि लै मैं छूँ, जेजस्विन को तेज लै मैं।10।
बलवानन को बल मैं ही छूँ, काम राग है रहित हई।
सम्मत धर्म अखिल प्राहिणन को, काम लै मैं ही छूँ अर्जुन।11।
और ले जो यो सात्विक राजस तामस भाव उदय हूनी।
मैं बट हई समझ, मैं में छन, किन्तु उनन में मैं न्हातूँ।12।
इनै तीन गुणमय भावन लै जगत यो सारो विमोहित छऽ।
यै वीलै ऊँ मकैं नि समझन पर छूँ निर्गुण अव्यय मैं।13।
दैवी ऐसी त्रिगुणमयी यो दुस्तर मेरी महामाया!
मैं मायापति कैं जो भजनी, वी माया कैं तरि सकनी।14।
रत कुकर्म में मूढ़ नराधम, मेरी शरण में नी ऊना।
ज्ञान हरी माया में अतरी, भाव आसुरी भरी हुई।15।
चार तरह मैं कन भजना छन, पुण्यात्मन जन हे अर्जुन!
आर्त, जिज्ञासी औ अर्थार्थी, चैथे ज्ञानी, भारत श्रेष्ठ।16।
इनन में ज्ञानी नित्ययुक्त छऽ एका भक्ति विशेष हुँ छऽ।
अतिशय प्रिय हूँ मैं ज्ञानी कैं, ज्ञानी मैं कैं अति प्रिय छ।17।
सब उदार यांे भक्त चार पै, ज्ञानी मेरो स्वरूप भयो।
मैं जो सबनै उत्तम गति छूँ ऊ मैं कन ल्ही बैठी छ।18।
बहुत जन्म का अन्त हुणा पर, ज्ञानी मैं कन जाणि सकौं।
जे छऽ यो सब वासुदेव छऽ जाणौ महात्मा दुर्लभ छ।19!
काम मोह लै ज्ञान हरी जाँ, अन्य देवता उपासना।
जस संस्कार नियम भै उनरा, तसै उनर आराधन हूँ।20।
जै जै भजनी ऊँ जसिकै, श्रद्धाा करि जे इच्छा करि।
वी वी की उसि उसि श्रद्धा कैं, अचल करूँ मैं सर्वोपरि।21।
मेरी दृढ़ करी श्रद्धा कारण आपण आपण इष्टन भजनी।
मेरा ही निर्धारित करिया, अभिलाषा फल प्राप्त हुनी।22।
अल्प बुद्धि लोगन का यों फल नाशवान छन यै वीलै।
देव उपासक देवन पुजनी मेरे भक्त मिलनी मैं में।23।
अप्रकट मैं व्यक्ति हई छूँ हीन बुद्धि ऐतुकै जाणनी नी जाणना।
पर परम भाव कैं मैं अति उत्तम अव्यय छू!।24।
मैं प्रकाश में सबन हूँ न्हातूँ ढकी योग माया लै छूँ।
मूढ़ लोग पै यो नि जाणना छ अज अव्यय मेरो स्वरूप।25।
जाणू सबन कै जो अतीत भै, वर्तमान छन जो अर्जुन!
जे भविष्य में होला प्राणी, किन्तु मकैं क्वे नि जाणना।26।
इच्छा द्वेष में उदय हुणी, द्वन्द्वन में मोहित भारत।
अहो परंतप प्राणि मात्र सब, भ्रम में पड़ी भ्रमण करनी।27।
जनरा पाप समाप्त हई छन, पुण्यवान जो सृकृती जन।
द्वन्द्व मोह बटि छुटी हुई मन, दृढ ब्रत करि भजनी मैं कन।28।
जरा मरण बै मुक्त हई तैं, मेरी शरण यत्न करनी।
अखिल ब्रह्म, अध्यात्म सबै औ सकलकर्म कैं जाणि ल्हिनी।29।
जो अधिभूत और अधि दैव कैं, फिर अधि यज्ञ मकैं जाणनी।
बुद्धियुक्त ऊ अन्त समय लै, मैं कन यथायोग्य भजनी।30।
कृमशः अघिल अध्याय-०८
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