
-:मै-चेली और बौल बुति:-
प्रस्तुति - अरुण प्रभा पंतआग हालण घर में दुल्हौ बौया बुद्धिहीन और कम है कुणु जै तौ कर्कशा जै आम्। एक सौरज्यु लै भाय हर घड़ी चहा और खाणांक शौकीन। सब्बै करणी जिबुलि। दुल्हौ ठीक हुनौ तो क्वे बात नै सब कर ल्हिनि पर------! जिबुलि कं एक बात तो समझ ऐगे कि जे लै छु जै जांलैं सांस चलैलि यो घरै में रूण भौय। मैत, इज, बाब आपण पराय कैं बै, के आशै नि भै। चलौ योयी देय कं ठीक करनूं एकबट्यूनू पै आपण करमनैल।
आपण रूणैकि छत्रछाया तो मिलि गे पै द्वि र्वाट कसिकै खैयी ल्हूंल पर जेलै छी पैद हैयी बाद जब बै होश फाम छु, हाड़ तोड़ काम करौ काक काखिक सेवा करि, कभै दोरंतर नि दी हमेशा 'होय होय' कौ पै फिर लै काकज्यूल यो म्यार दगै धोखेबाजी कै करन्हैल? एसिकै सोचन सोचनै जिबुलि सबनकं खाण खवैबेर कढ़ै में बांट हालि साग और र्वाट खाणय तालै कि पछिल बै झपट्ट जौ मार बेर वीक दुल्हौबौया जनरुवैल (जनार्दन) जिबुलि कं अशिट दे (गिरा दिया) और रघोड़नै लिगो, जबतक जिबुलि के समझ सकनि ताकतवर जनरुवैल आपण पति धर्म बड़ बेदर्दील जिबुलि पर देखयी दे, बस यो भै जिबुलिक शैणमैसैकि रिश्तैकि पछ्याणि।
जिबुलिक हांट-भांट तोड़ दि हो, के कुणै नि आय जिबुलि कं। जब उकं भली कै होश आ तो वील आपण कं ठीक करि बेर सोचण लागि के एसै हुंछ सबनैकि ब्याक शुरुआत, सबै ऐसिकै अशिट दिनी बेदर्दील आपण दुल्हैण कं! खैर ऐसिकै दिन बितण लाग, जिबुलिल आपण सौरास, दुल्हौ दगै समझौत करि ल्हे पै। सब तिथि त्यौहार, रीति-रिवाज सबन दगै मेल-मिलाप और दुल्हौ कं नऊण धोऊण उकं भली कै खऊंण, सबै काम करनै रुनेर भै।
ऐसी करने करनै जिबुलिक ब्या क एक बर्स पुरि गोय कुंछा। एक दिन रिंगौड़ उखालाक छलाछल तालै औरै है गोय जिबुलि कं। उ सोचण लागि बेयी के ऐस खा कि इतु तबियत खराब भैन्हैल? के ढंगैल उठि पै और सबन हुं चहा बणाय, पुजै साज करि, गोठपात कर पर जंगव नि जै सकि तो आम् गर्जण भैगे- "के गोरबाछ भुक्कै रौला जनरुवै दुल्हैणी, कां मर रैछै ? अभागी"
जब जिबुलि नि उठी तो तब चांण हुं ऐं और उकं उखाव करते देखबेर चणी गे और पड़ौसैक नरबदा कं बुलै लै गे। वील चा चिता और "गुड़ मिशिर खवाऔ" कौ तो बुढ़ि आमाक मुखन रौनकी ऐगे। झट्ट एक अठन्नी नरमदा हाथन धरि आपण सिंदूकाक तावन बै मिशिर लि ऐ।
"उज्याव मुख हैगोय तो तुकं खुटाक झांझर बणूंल हां चेली"........
मौलिक
अरुण प्रभा पंत

अरुण प्रभा पंत जी द्वारा फ़ेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी शब्द सम्पदा पर पोस्ट
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