
हरेला या हर्याव
कुमाऊँ में हरियाली का लोकपर्व
हरेला उत्तराखंड का एक प्रमुख त्यौहार होने के साथ साथ यहां की संस्कृति का एक अभिन्न अंग भी है। इस त्यौहार का सम्बन्ध सामाजिक सोहार्द के साथ साथ कृषि व मौसम से भी है। हरेला, हरियाली अथवा हरकाली हरियाला का समानार्थी है तथा इस पर्व को मुख्यतः कृषि और शिव विवाह से जोड़ा जाता है। देश धनधान्य से सम्पन्न हो, कृषि की पैदावार उत्तम हो, सर्वत्र सुख शान्ति की मनोकामना के साथ यह पर्व उत्सव के रुप में मानाया जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि हरियाला शब्द कुमाऊँनी भाषा को मुँडरी भाषा की देन है।
सामान्यतया हरेला साल में तीन बार मनाया जाता है।
१. चैत्र: चैत्र मास के प्रथम दिन बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है।
२. श्रावण: आषाढ़ मास के २२वें दिन बोया जाता है और १० दिन बाद काटा जाता है।
३. आशिवन: आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है।
चैत्र व आश्विन मास में बोया जाने वाला हरेला मौसम के बदलाव के सूचक है।
चैत्र मास में बोया/काटा जाने वाला हरेला गर्मी के आने की सूचना देता है,
तो आश्विन मास की नवरात्रि में बोया जाने वाला हरेला सर्दी के आने की सूचना देता है।

लेकिन श्रावण मास में मनाये जाने वाला हरेला सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता तथा समूचे कुमाऊँ में अति महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक माना जाता है। जिस कारण इस अन्चल में यह त्यौहार अधिक धूमधाम के साथ मनाया जाता है। जैसाकि हम सभी को विदित है कि श्रावण मास भगवान भोलेशंकर का प्रिय मास है, इसलिए हरेले के इस पर्व को कही कही हर-काली के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों में कथा है कि शिव की अर्धांगिनी सती ने अपने कृपण रुप से खिन्न होकर हरे अनाज वाले पौधों को अपना रुप देकर पुनः गौरा रुप में जन्म लिया। इस कारण ही सम्भवतः शिव विवाह के इस अवसर पर अन्न के हरे पौधों से शिव पार्वती का पूजन सम्पन्न किया जाता है।
श्रावण माह के प्रथम दिन, वर्षा ॠतु के आगमन पर हरेला काटकर यह त्यौहार मनाया जाता है जिसे दस दिन पहले बोया जाता है। हरेला बोने के लिए सबसे पहले उस पात्र का निर्माण किया जाता है जिसमें हरेला बोना होता है। इसके लिये निंगल(रिन्गाल) की टोकरी, किसी लकड़ी के करीब १ वर्गफ़ुट के छोटे से बक्से में या फ़िर पांच या सात दोनों में भी हरेला बोया जा सकता है। अगर बक्से या टोकरी में हरेला बोया जाता है तो पानी डालने की सुविधा के लिये उसमे लकड़ी फ़साकर ५ या ७ अलग-अलग चैम्बर से बना दिये जाते हैं।
पात्र के निर्माण के उपरान्त भिन्न प्रकार के खाद्यानों के बीजो को बोने के लिये अलग अलग रख लिया जाता है। बोये जाने वाले बीजों में मुख्यतः अनाज तथा दालें जैसे जैसे गेहूं, धान, जौ, मक्का, गहत(घौत या कुलथ), मास(उरद), सरसों, भट्ट(काली सोयाबीन) आदि शामिल होते हैं। जिस पात्र में हरेला बोना होता है उसमें मिट्टी के एक १.५ - २ इन्च मोटी परत बना दी जाती है। फ़िर घर का प्रत्येक सदस्य एक प्रकार का बीज लेकर थोड़ा-थोड़ा बीज पात्र में बोता है, इसके बाद मिट्टी एक हल्की परत इसके उपर बना दी जाती हैं। फ़िर यही प्रक्रिया प्रत्येक किस्म के बीज के साथ अपनायी जाती है तथा बीज और मिट्टी की ५ या ७ परतें बन जाती हैं।

हरेले के पात्र को अब घर के अन्दर पूजास्थल जिसे कूमाऊं में द्यापतक थान भी कहते हैं में पवित्रता के साथ रख दिया जाता है। घर का कोई व्यक्ति स्नानकर पवित्रता के साथ नियमित या आवश्यक्तानुसार थोड़ा थोड़ा पानी पात्र में छिड़कता रहता है। करीब ३-४ दिनों के बाद बीजो में से अंकुर निकल आते हैं और ९-१० दिनों में ये बढ़्कर ६-७ इंच के छोटे छोटे पौधे का रूप धारण कर लेते हैं। इन पौधों को सूर्य की रोशनी उपलब्ध ना होने के कारण इनका रंग पीला होता है, इन पीले-हरे पौधों को ही हरयाव(हरेला) कहा जाता है।
बोने के दिन से दसवे दिन हरेला (हर्याव) काटा जाता है तथा इसे सबसे पहले देवताओं को अक्षत, रोली(पिठियां या पिठाई), चन्दन आदि के साथ विधिपूर्वक चढ़ाया जाता है। इसके बाद घर का वरिष्ठतम सदस्य या फ़िर कुलपुरोहित घर के सभी सदस्यों के हरेला लगाता है, हरेला लगाने से तात्पर्य है कि उनके सर व कान पर हरेले के तिनके रखे जाते है। हरेला लगाने वाला हरेला लगाते समय स्थानीय भाषा में शुभकामनाऎं भी देता है, जिसका मन्त्रोच्चार के समान पाठ किया जाता है। इसमें उसके दीर्घायु होने, समृद्धि एवं सुख की कामना की जाती है। छोटे बच्चो को हरेला पैर से ले जाकर सर तक लगाया जाता है तथा इसके साथ ही शुभकामना गीत "जी रये-जाग रये" गाया जाता है।
लाग् हरेला, लाग् दसैं, लाग् बगवाल।
जी रये जागी रये, धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये।
सूर्ज जस तराण हो, स्यावे जसि बुद्धि हो।
दूब जस फलिये, सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।
"हरेला, दशेरा, और बग्वाल तुझे मिले, जीते रहो, जागरूक रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान, आकाश के समान प्रशस्त (उदार) बनो, सूर्य के समान शक्तिमान (ओजमयी) बनो, सियार के समान बुद्धि हो, दूब के तृणों के समान फलीभूत हो जाओ|इतने दीर्घायु हो कि (दंतहीन) होने के कारण तुम्हें भात भी पीस कर खाना पड़े और शौच जाने के लिए भी लाठी का उपयोग करना पड़े|"
हरेला घर मे सुख, समृधि व शान्ति के लिए बोया व काटा जाता है तथा यह अच्छी कृषि का सूचक है। हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है की इस साल फसलो को नुक्सान ना हो। हरेला के साथ जुड़ी एक मान्यता यह भी है कि जिसका हरेला जितना बडा होगा उसे कृषि मे उतना ही फायदा होगा। इस प्रकार हम कह सक्ते हैं कि हरेला उत्तराखण्ड की संस्कृति के खेती से लगाव को प्रदर्शित करने वाला त्यौहार है।
1 टिप्पणियाँ
bahut badhya tareke se uttrakhand ke bistar ka warnan kiya hai me aapko dhanyabad karta houn.hardik pathak
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