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भीमताल का ऐतिहासिक हरेला मेला

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ऐतिहासिक हरेला मेला, भीमताल

हरेला कुमाऊँ का अत्यन्त प्राचीन एवं प्रसिद्व त्यौहार है यह त्यौहार सावन मास के प्रथम दिवस को सम्पूर्ण कुमाऊँ अंचल में मनाया जाता है।  हमारे पहाड़ी लोक जीवन मे इस पर्व की विशेष महत्ता है।  हरियाली ग्रीष्म ऋतु में सूखे व मुरझाये वानस्पतिक संसार के पुनर्जीवन का प्रतीक है।  जिस कारण इस पर्व पर पौधा रोपण का विशेष महत्व है। वृक्ष हमारे जीवन के साथी हैं तथा मानव विकास में वृक्षो एवं हरियाली का विशेष योगदान है।  हरियाली को बनाये रखने के लिए हम सभी को अधिक से अधिक संख्या में पौधारोपण करना चाहिए।

कुमाऊं के इसी प्रसिद्ध त्यौहार हरेला पर्व पर भीमताल में हरेला मेला (harela mela bhimtal) का आयोजन किया जाता है।  कई दशकों से आयोजित इस मेले को देखने के लिए भीमताल के आस-पास के क्षेत्रों के अतिरिक्त दूर-दूर से भी लोग आते हैं।  अपने आप में ऐतिहासिक सांस्कृतिक और लोक परंपरा की छटा बिखेरने वाला यह हरेला मेला कभी भीमताल में खेतों में धान की रोपाई के प्रारूप में होता था।   धीरे-धीरे हरेला मेला ने वृहद रूप लिया और अब यह मेला पूरे उत्तराखंड में विख्यात हो गया है।

हरेला मेले का इतिहास:-

हरेला मेला के आयोजन का इतिहास सैकड़ों वर्षों से बताया जाता है क्योंकि भीमताल का महत्त्व मैदान से पहाड़ जाने के रास्ते के पहले पड़ाव के रूप में प्राचीनकाल से रहा है।  चंदकालीन कुमाऊँ में यह छखाता परगने के शासकीय केंद्र के रूप में जाना जाता था।  जबकि कुमाऊँ के अन्य बड़े शहर जैसे हल्द्वानी, रामनगर और नैनीताल ब्रिटिशकाल में अस्तित्व में आये हैं।

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उपलब्ध लिखित प्रमाणों अनुसार भी यह मेला कम से कम 100 वर्षों से भी अधिक पुराना ब्रिटिशकालीनतो माना ही जा सकता है।  क्योंकि इसके आयोजन में अंग्रेज भी प्रतिभाग किया करते थे और उनके द्वारा इसे हरियाली नाम दिया गया।  अंग्रेज भी भीमताल को व्यापार की दृष्टि से मैदान और पहाड़ के बीच एक मुख्य पड़ाव मानते थे।  उस समय हल्द्वानी से तिब्बत को पैदल रास्ते से व्यापार किया जाता था।  अंग्रेजों ने तिब्बत को भारत और चीन के बीच एक स्वायत्त क्षेत्र के रूप में माना था।

भारत-तिब्बत व्यापार कुमाऊँ में तिब्बत की सीमा पर रहने वाली भोटिया जाति के लोगों द्वारा किया जाता था जिनका अन्य मुख्य व्यवसाय भेड़ पालन था।  यहां से खाद्य सामग्री और नमक तिब्बत को भेजा जाता था और बदले में तिब्बत से ऊन, हींग, जंबू और अन्य पहाड़ी जड़ी-बूटियां आदि वस्तुऐं लायी जाती थी।  व्यापार के रास्ते में व्यापारिक मंडी हल्द्वानी के बाद पहाड़ पर पहला पड़ाव भीमताल हुआ करता था।  इसी कारण कुछ लोगों द्वारा भीमताल में मेला आयोजित किये जाने का विचार आया।

आजादी से पहले बरेली, रामपुर, मुरादाबाद जैसे व्यापारिक स्थानों से व्यापारी अपना सामान मेले में बेचने के लिए लाया करते थे।  भीमताल के ग्रामीण क्षेत्रों तथा आस-पास के रामगढ़, मुक्तेश्वर, पदमपुरी, गुनियालेख, ओखलकांडा आदि के लोग यहां बेचे जाने वाले विभिन्न उत्पादों को खरीदने के लिए आते थे। इस प्रकार यह मेला केवल एक सांस्कृतिक आयोजन ना होकर एक व्यापार का केंद्र भी था।

पहले मेले का आयोजन स्थल तालाब के किनारे लीलावती पंत कॉलेज (डांठ) के पीछे के खेतों में होता था जिस स्थान को अभी भी हरियाली खेत के नाम से जाना जाता है।  तब इस मेले की अवधि सात दिन की होती थी। क्योंकि उस समय यह भीमताल शहर का केंद्र होता था।  बाद में सत्तर के दशक में नगर के विस्तार तथा स्थान की कमी के कारण मेला स्थल को मल्लीताल के रामलीला मैदान में स्थानांतरित कर दिया गया। 

बीच में वर्षों में इस मेले की चमक धीरे धीरे फीकी पड़ती जा रही थी और मेले की अवधि 2-3 दिनों के लिए सीमित हो गयी थी। लेकिन २०१० के बाद मेले में जनता और व्यापारियों की भागीदारी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है  और मेले की लोकप्रियता अपने पुराने स्तर को लौट आयी है।  व्यापारियों की अधिक संख्या के कारण मेले का क्षेत्र रामलीला मैदान से बढ़कर मल्लीताल की ब्लॉक रोड तक फ़ैल गया है।  वर्तमान में यह मेला फिर से 5 से 7 दिनों की अवधि के लिए आयोजित किया जाने लगा है।  मेले के आयोजन का संगठन-प्रबंधन भी बदल गया है और अब इसका आयोजन भीमताल नगर पंचायत द्वारा किया जाता है।

मेले के दौरान नियमित रूप से सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिसमें उत्तराखंड राज्य के कलाकारों द्वारा अपनी प्रस्तुतियां दी जाती हैं। यह मेला बरसात के मौसम में आयोजित होता है जिस समय कलाकारों की व्यस्तता कम रहती है और राज्य के सभी प्रमुख कलाकार अपनी प्रस्तुति देने के लिए उपलब्ध होते हैं। मेले में क्षेत्र के स्थानीय स्कूल-कॉलेज की छात्र-छात्राओं द्वारा भी सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं। बरसात के कारण कई बार कार्यक्रमों में व्यधान भी भी होता है पर इससे दर्शकों व कलाकारों का उत्साह में किसी प्रकार की कमी नहीं आती और मौसम अनुकूल होने पर कार्यक्रम पुनः शुरू हो जाते हैं। कार्यक्रमों को देखने के लिए दर्शकों की भारी भीड़ लगी रहती है और देर शाम तक लोग सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनन्द लेते हैं।

मेले के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों ले अतिरिक्त स्थानीय छात्र-छात्राओं के उत्साहवर्धन हेतु विभिन्न खेल प्रतियोगितओं जैसे कबड्डी, कराटे, बैडमिंटन और तैराकी आदि भी आयोजित की जाती हैं। जिसमें अव्वल आने वाले प्रतिभागियों को पुरस्कृत भी किया जाता है। मेले में स्टालों के माध्यम से क्षेत्र के ग्रामीण अंचलो में उत्पादित होने वाली वस्तुओं, सौन्दर्य प्रसाधनो आदि की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है।

हरेला मेले का राजनीतिक महत्व भी रहा है क्योंकि विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता अपनी पार्टियों के उद्देश्यों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मेले में सहभागिता करते रहे हैं।  आजादी से पहले यह देश के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए मेले को एक मिलन स्थल के रूप में प्रयोग किया जाता था।  आजादी के बाद भी यह स्थल राजनीतिक गतिविधियों का मंच बना रहा।  स्व. नारायण दत्त तिवारी जैसे देश के जाने माने राजनेताओं ने मेले में आयोजित राजनीतिक कार्यक्रमों में शिरकत करके अपने राजनैतिक करियर की शुरुआत की थी।  स्व. प्रताप सिंह बिष्ट (प्रताप भैय्या) और अन्य स्थानीय राजनैतिक हस्तियों ने भी मेले के आयोजन में समय समय पर अपना योगदान दिया है।

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