पतरौल ज्यू!"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
ह्यौंनै की कमाई छू य छानि पतरौल ज्यू!
बाखई की कानि लागी य छानि पतरौल ज्यू!
आब् सौवैलै धौ हैगे, खुसक है गीना डान्।
छिण, पखाँणों, रौलि, गध्यारा काँ पाँणि पतरौल ज्यू?
लाकाड़ सुतरा जे लै भाय्, लुट साल भरि का फुकि ग्याया,
गोठै की गऊ जात् ल् आब् के खाँणि पतरौल ज्यू?
चाड़ पोथीला, किड़ नमान जदुग ल छि त आग् मेंजी।
गठ्यै बेर बतै दियो धैं कदुग भै, हानि पतरौल ज्यू?
जिन्दगी भरि नौकरी में तुम जंगल द्यखनैं रया।
बौं काटणिया गाड़ कथाँ हराणि पतरौल ज्यू?
बाँज औंर बुराँश आब् तो जाग्-जागाँ धैं रोपि दियो।
खालि भैटकौं की बेकार गाँणि-माँणि पतरौल ज्यू!
बागा का पोथील भड़ीणांं बाव् , बुड़ लै भड़ी गेईं।
के सुणण नि रया समाचारौंकि वाणि पतरौल ज्यू?
मिं द्यखण रीं माव् जसी, त पारा का जङोव में।
आगैकि लपट, ऑंख ताँणि-ताँणि पतरौल ज्यू!
जंगले तो छन हमारा डाँन-काँनां में द्यखिणी जास्।
जातुरी के ऐ जाल् पहाड़ों क् उज्याणि पतरौल ज्यू?
बीन दाथुलाक् और कसि का काँबै ल्ह्यौं? आब् तुमैं बताओ।
भई नि भइ तौस् में खाँणिकि निखाँणि पतरौल ज्यू?
................................................................
मोहन जोशी, गरुड़, बागेश्वर। 03-05-2016
श्री मोहन चन्द्र जोशी जी की पोस्ट फेसबुक वॉल से साभार
0 टिप्पणियाँ