
देवताओं के चाहने पर भी सांस्कृतिक नगरी द्वाराहाट
नहीं बन सकी द्वारिका
💄मेरी द्वाराहाट यात्रा के संस्मरण-1💄
(लेखक: डा.मोहन चन्द तिवारी)
कल सौभाग्य से मौसम साफ और अनुकूल होने के कारण मेरी चिर प्रतीक्षित द्वाराहाट की यात्रा का अचानक प्रोग्राम बन गया।अपने गांव जोयूं सुरेग्वेल से साढ़े दस बजे वाली द्वाराहाट को जाने वाली बस पकड़ी और वाया बारह खम्बा होते हुए साढ़े बारह बजे द्वाराहाट पहुंच गया। दो घन्टे के सीमित समय में ही मुझे द्वाराहाट के प्रसिद्ध मंदिरों का पुनरावलोकन करना था जो एक प्रकार से असम्भव ही था। क्योंकि जिस द्वाराहाट की बस में गया था उसी में मुझे पुनः ढाई बजे वापस जालली भी आना पूर्वनिश्चित था। वापस आने के लिए यातायात का कोई अन्य वैकल्पिक साधन न होने के कारण इन दो घन्टों के निश्चित समय में मुझे इन मंदिरों की परिक्रमा करनी थी।सबसे पहले मृत्युंजय मंदिर से यात्रा शुरू की और वनदेवी मंदिर पर इसका समापन किया। इस दौरान मृत्युंजय मंदिर समूह,रतनदेव मंदिर समूह, गूजरदेव का ध्वज मन्दिर, कचहरी देवाल मंदिर समूह और वनदेवी मंदिर इन पांच मंदिर समूहों का पुनरावलोकन सर्वेक्षण कर सका किन्तु बहुत चाहने पर भी द्वाराहाट से दूरस्थ होने के कारण अति महत्त्वपूर्ण मन्या मंदिर समूह, केदारनाथ मंदिर और बदरीनाथ मंदिर के दर्शन नहीं कर पाया।

वैसे भी मैं पांव के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण ज्यादा तेजी से चलने की स्थिति में नहीं था और मुझे ढाई बजे वाली जालली की बस अवश्यमेव पकड़नी थी,तभी मैं सूर्यास्त होने से पहले अपने गांव जोयूं पहुंच सकता था। इसलिए इन पांच मंदिरों के दर्शन से ही संतोष कर लेना पड़ा। यात्रा बहुत सुखद किन्तु बहुत थकाने वाली और श्रमसाध्य रही। लाठी का सहारा पहाड़ी ढलानों में ऊपर नीचे चढ़ने उतरने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ। कई स्थानों में बंदर हकाने के लिए भी लाठी बहुत उपयोगी सिद्ध हुई। जब दोपहर के समय मैं इन मंदिरों का निरीक्षण कर रहा था तो मैंने देखा कि इन मंदिरों के आस पास सुनसान सन्नाटा छाया हुआ था। बाजार में चहल पहल थी किन्तु रिहायसी इलाके सुनसान थे। वैसे भी पहाड़ों में दोपहर के समय लोग अपने घरों में आराम फरमाते हैं।पहले की तुलना में आवागमन के लिए रोड़ की सुविधा बेहतर थी। प्रत्येक मंदिर के आगे पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के बोर्ड लगे हुए थे जिनमें मंदिर के बारे में आवश्यक जानकारी उपलब्ध थी।

जिस भी मंदिर समूह में गया वहां बंदरों का समूह पहले से ही स्वागत के लिए सक्रिय था। कई मोटे ताजे बंदर जो अपने आप को उन मंदिरों का स्वामी या महंत समझ रहे होंगे मुझ नए आगन्तुक को अकेला देखकर अपनी घुड़कियों से डराने धमकाने का भी प्रयास कर रहे थे। आखिर मंदिरों की सुरक्षा की जिम्मेवारी उन्हीं के हाथ में जा चुकी थी। किंतु जब मैंने अपने काले बैग और लाठी को एक सुरक्षित स्थान पर रख कर हाथ हिला कर उन वानरराजों को विनम्र और आत्मीयता पूर्ण भाव से हैलो और अभिवादन किया तो वे शांतभाव से मेरी सम्पूर्ण गतिविधियों को दत्तचित्त हो कर श्रद्धा भाव से निहार भी रहे थे। वैसे में पहले कई बार इन मंदिरों का दर्शन कर चुका हूं किन्तु इस बार बंदरों की बहुत संख्या में उपस्थिति यह दर्शाता है कि ऐतिहासिक धरोहर स्वरूप इन मंदिरों की रक्षा का दायित्व अब यहां का वानर समुदाय बहुत खूबी से निभा रहा था और इन मंदिरों को इन्होंने अपना स्थायी निवास भी बना लिया था।इसी समसामयिक पृष्ठभूमि के साथ अब मैं द्वाराहाट नगरी के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पक्षों के कुछ खास तथ्यों को भी इस पोस्ट के माध्यम से मित्रों के साथ शेयर करना चाहता हूं।

पौराणिक द्वारिका नगरी द्वाराहाट उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर
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उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा जिले में समुद्र तल से 1540 मीटर की उंचाई पर स्थित द्वाराहाट नगरी द्रोणगिरि की उपत्यका में बसा एक अति प्राचीन एवं सांस्कृतिक नगर है जो काठगोदाम रेलवे स्टेशन से 128 किमी,नैनीताल से 99 किमी,अल्मोड़ा से 66 किमी,रानीखेत से 21 किमी तथा गनाई चौखुटिया से 16 किमी की दूरी पर कर्णप्रयाग-रानीखेत मोटर मार्ग पर स्थित है। भौगोलिक और भाषा संस्कृति के धरातल पर द्वाराहाट अल्मोड़ा जिले के परगना पाली पछाऊं के अंतर्गत आता है।

पश्चिमी कत्यूरों के शासनकाल में कभी राजधानी नगर रहा द्वाराहाट नगर अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, उन्नत नगर विन्यास तथा अपने सौंदर्यमयी भौगोलिक अवस्थिति के लिए भी देश-प्रदेश में प्रसिद्ध है। अल्मोड़ा-बद्रीनाथ मार्ग पर अवस्थित रहने के कारण और आदि शक्तिपीठ दुनागिरि के चरणों में बसा होने के कारण भी यह छोटा और बेहद रमणीय शहर चार धाम यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों और पर्यटक सैलानियों के लिए भी आकर्षण का स्थान रहा है। रानीखेत के बस जाने से यद्यपि इस नगर का महत्त्व कुछ कम हो गया परन्तु बदरीनाथ से लौटने वाले तीर्थयात्रियों के लिए भव्य मंदिरों के फलस्वरूप यह आज भी एक पौराणिक और धार्मिक नगरी की मान्यता को लिए हुए है।

हिमालय संस्कृति के प्रसिद्ध इतिहासकार एवं पुरातत्त्ववेत्ता राहुल सांकृत्यायन ने अपने ग्रन्थ 'कुमाऊं' में द्वाराहाट के सांस्कृतिक महत्त्व को रेखांकित करते हुए लिखा है कि जब वे द्वाराहाट की यात्रा कर रहे थे तो उन्होंने बिहार, उत्तरप्रदेश और बंगाल के ऐसे अनेक तीर्थयात्रियों को रास्ते में देखा जो बदरीनाथ से कोटद्वार या रामनगर न जाकर वाया द्वाराहाट काठ गोदाम जाते थे। प्राचीन काल से ही कैलास मानसरोवर तीर्थ और बदरीनाथ की यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों के लिए भी द्वाराहाट एक मुख्य दर्शनीय स्थल भी बना हुआ था जिसकी वजह से भी यह स्थान 'द्वार' और 'हाटक' शब्दों के द्वारा अपने इतिहास की स्वयं पुष्टि करता आया है और उत्तराखंड के राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास में अपनी खास पहचान बनाए हुए है। 'हाटक' नगर की विशेषताओं के अनुरूप यहां प्राचीन काल से ही तीर्थयात्रियों और धार्मिक पर्यटकों के लिए स्थान स्थान पर दुकानें और उनके ठहरने के लिए विश्रामालय भी बने हुए थे।

द्वाराहाट के प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात किया जाए तो महाभारत काल में जब उत्तराखंड के पर्वतीय राज्यों में 'हाटक गणराज्यों' की गणतंत्रीय शासनपद्धति चलती थी तो महाभारत के सभापर्व में अर्जुन की दिग्विजय यात्रा के दौरान 'हाटक' राज्यों का भी विशेष वर्णन आया है। कुमाऊं के इतिहासकार यमुनादत्त वैष्णव 'अशोक' ने महाभारतकालीन इन पांच पर्वतीय राज्यों की पहचान निम्नलिखित पांच हाटक नगरों के रूप में की है,जो इस प्रकार हैं-
1.विरहहाट (बैराट),
2.गंगावलीहाट (गंगोली हाट),
3.गरुड़हाट,
4.डीडीहाट तथा
5.द्वाराहाट
पुरातत्त्ववेत्ता डा. यशोधर मठपाल के अनुसार 'हाट' का अर्थ होता था राजधानी नगर। जिस प्रकार सिराकोट के मल्ल राजाओं की राजधानी को डीडीहाट और मणकोटी के राजाओं की राजधानी को गंगोलीहाट पुकारा जाता था,उसी प्रकार पश्चिमी कत्यूरों की राजधानी का लोकविश्रुत नाम 'द्वाराहाट' था।

इस प्राचीन नगरी के सांस्कृतिक इतिहास का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि स्कन्दपुराण के 'मानसखंड' में 'द्रोणागिरि' पर्वत के दो पैर माने गए हैं- 'लोध्र' और 'ब्रह्म'। 'लोध्र' आज का लोध है और 'ब्रह्म' पर्वत की पहचान इसके पश्चिम की ओर स्थित 'हाट -बमनपुरी' के रूप में प्रचलित वर्त्तमान द्वाराहाट नगरी से की जा सकती है। सन 1872 के सर्वेक्षण मानचित्रों में द्वाराहाट का नाम 'हाट-बमनपुरी' लिखा गया है। प्राचीन काल में इसे ब्रह्मपर्वत पर स्थित होने के कारण 'ब्रह्मपुर' अथवा 'ब्राह्मी तीर्थ' के रूप में भी जाना जाता था और कालांतर में 'ब्रह्मपुर' का अपभ्रंश रूप ही बमनपुरी हो गया।

पौराणिक मान्यता यह भी प्रचलित है कि भगवान श्रीकृष्ण मथुरा पर होने वाले आक्रमणों से जब तंग आ चुके थे तब उन्होंने सुदूर हिमालय की इस उपत्यका में द्वारका बसाने की योजना बनाई थी।इसलिए द्वाराहाट को उस समय की उत्तर द्वारका भी कहा जाता है।परन्तु द्वाराहाट में पानी की कमी होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका यहां न बसाकर समुद्र तट पर बसाई। 360 मंदिरों और 365 नौलों से सुसमृद्ध इस नगरी को देवताओं द्वारा उत्तर द्वारिका बनाने की मान्यता आज भी यहां के जनमानस में रची बसी हुई है।

एक दूसरी जनश्रुति के अनुसार सृष्टि के आदिकाल में यहां रामगंगा और कोसी को मिलना था,इस कार्य को सम्पादित करने के लिए गगास नदी ने रामगंगा को सन्देश देने का काम छानागांव के सेमल के वृक्ष को सौंपा। किन्तु जब रामगंगा द्वाराहाट की ओर मुड़ने के मार्ग गनाई के पास पहुंची तो उस समय रामगंगा को सन्देश देने वाला सेमल का वृक्ष सो गया। वृक्ष की जब नींद खुली तो रामगंगा तल्ले गिंवाड़ जा चुकी थी जिसकी वजह से न तो रामगंगा और कोसी का संगम हुआ और न ही ब्रह्मपुरी के नाम से प्रसिद्ध यह द्वाराहाट नगरी द्वारिका ही बन सकी।

द्वाराहाट नगरी भले ही द्वारिका न बन सकी परन्तु यहां विद्यमान 360 मंदिरों और 365 नौलों का मूर्ति शिल्पविधान और स्थापत्य कला काशी या मथुरा के सांस्कृतिक मंदिरों से कम उत्कृष्ट नहीं। इस सांस्कृतिक नगरी द्वाराहाट में 8वीं से 13वीं शदी के बीच निर्मित महामृत्युंजय, गूजरदेव, मनिया, शीतला देवी व रत्नदेव आदि अनेक प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिरों के अवशेष आज भी अपनी स्थापत्य कला के कारण शोधकर्ताओं के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं। इन मंदिरों की उत्कृष्ट वास्तु निर्मित्ति और इनके परिसर की भित्तियों में बने अलंकृत कलापूर्ण चित्र हमें खजुराहो जैसी आकर्षक मूर्तिशिल्प की याद ताजा कर देते हैं।
अगले लेख में पढ़िए द्वाराहाट के मंदिरों का सांस्कृतिक इतिहास
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