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द्वाराहाट के ऐतिहासिक मंदिर - राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर

द्वाराहाट के ऐतिहासिक मंदिर, article about historical temples of Dwarahat town in Kumaon, Dwarhat ke aitihasik marndir ke bare mein lekh, cultural & historical temples Dwarahat

🔥द्वाराहाट के ऐतिहासिक मंदिर - राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर🔥

💄मेरी द्वाराहाट यात्रा के संस्मरण-2💄
(लेखक: डा.मोहन चन्द तिवारी)

सुस्वागतम् मित्रो! 'द्वाराहाट मंदिर पर्यवेक्षण योजना' से सम्बद्ध मेरी 7 सितंबर,2018 को लिखी पिछली पोस्ट को सात सौ से भी अधिक मित्रों ने लाइक किया तथा शताधिक लोगों ने शेयर किया और इसके सम्बन्ध में प्रशंसात्मक और उत्साहवर्धक टिप्पणियां भी लिखीं।मैं इन सभी मित्रों का हार्दिक आभार प्रकट करता हूं। 

दिनांक 9 सितंबर को मैंने इस योजना के तहत दूसरे चरण में द्वाराहाट के उन मंदिरों का पुनः पर्यवेक्षण किया जो मेरे द्वारा पहली बार किए गए पर्यवेक्षण में छूट गए थे।इस यात्रा के दौरान मैंने जिन तीन खास ऐतिहासिक मंदिरों का पर्यवेक्षण किया उनके नाम हैं- केदारनाथ मंदिर, बदरीनाथ मंदिर समूह और मनिया मंदिर समूह। फेसबुक पर मेरी पिछली पोस्ट में कई मित्रों ने द्वाराहाट के इन ऐतिहासिक मंदिरों का चित्रों सहित पृथक पृथक विवेचना करने का आग्रह भी किया है ताकि इन मंदिरों में से प्रत्येक मंदिर के बारे में तथ्यात्मक जानकारी से अवगत हुआ जा सके। मैंने द्वाराहाट के मंदिर पर्यवेक्षण भ्रमणों के दौरान इस बात का ध्यान रखा है कि मौके पर जाकर इन मंदिरों के परिसर में विद्यमान समस्त ऐतिहासिक अवशेषों के ताजा चित्र ले सकूं और प्रत्येक मंदिर के सम्बंध में जो कुछ खास और नवीन जानकारी मिल सके वह उत्तराखंड क्षेत्र के सांस्कृतिक इतिहास के जिज्ञासुओं और इतिहास पुरातत्त्व में रुचि रखने वाले अन्य विद्वानों तक पहुंचा सकूं। किन्तु मेरे द्वारा प्रत्येक मंदिर से संग्रहीत सामग्री की युक्तिसंगत तथ्यात्मक विवेचना में अभी कुछ समय लग सकता है।दो दिन पहले ही मैं पहाड़ से दिल्ली वापस लौटा हूं और इन मंदिरों के विश्लेषणात्मक विवेचन में कुछ समय भी लग सकता है।
 
🔥द्वाराहाट के मंदिरों का ऐतिहासिकएवं सांस्कृतिक महत्त्व🔥
आज मैं इस पोस्ट के माध्यम से द्वाराहाट के प्राचीन मंदिरों की अति विकसित वास्तुशैली के बारे में उन खास महत्त्वपूर्ण बातों की चर्चा करना चाहता हूं,जिसके कारण ये मंदिर देश विदेश के विद्वानों द्वारा सदा गवेषणा का विषय बने रहे हैं और आज भी इन मंदिरों के अवशेष इतिहास के कई रहस्यों को समेटे हुए हैं जिनकी व्याख्या और मूल्यांकन होना अभी बाकी है। लगभग 20-25 वर्ष पूर्व मैंने द्वाराहाट के इन मंदिरों का जब पहली बार शोधपरक सर्वेक्षण किया था तबसे लेकर आज तक इन ऐतिहासिक मंदिरों के सम्बंध में बहुत कुछ लिखा भी जा चुका है। इनके रचनाकाल, वास्तुशैली आदि विषयों पर भी विद्वानों द्वारा कई लेख पुस्तकें आदि प्रकाशित हो चुकी हैं।
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सन् 2001 में उत्तरायण प्रकाशन‚ दिल्ली से प्रकाशित अपनी पुस्तक  ‘द्रोणगिरि : इतिहास और संस्कृति’ में मैंने भी एक अध्याय में द्वाराहाट के दर्शनीय स्थलों की जानकारी देते हुए यहां के मंदिरों के बारे में संक्षेप में जानकारी दी है। लेकिन उस समय भी मेरे लिए इन मंदिरों के इतिहास और उनके वर्गीकरण का औचित्य ज्यादा स्पष्ट नहीं हो सका था। कारण यह है कि इन मंदिरों से सम्बंधित अभिलेखादि साक्ष्य या तो काल कवलित हो चुके हैं अथवा यहां मंदिरों के खाली गर्भगृहों में विद्यमान बहुमूल्य प्रतिमाएं चोरी हो गई हैं, जिसकी वजह से इन मंदिरों के ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से मूल्यांकन की समस्या आती है और विद्वानों को भी इन मंदिरों के बारे में तरह तरह की अटकलें लगाने का मौका मिल जाता है। इस सम्बंध में शोधकर्त्ता राजेश कुमार जैन की द्वाराहाट के मंदिरों के बारे में यह मन्तव्य युक्तिसंगत ही है कि "आखिर टूटी-फूटी मूर्तियां भी तो कहीं होनी चाहिए। जब पिछले सौ सालों के मूर्तिचोरों और मूर्तिभक्तों पर ध्यान देंगे तो कारण मालूम होना मुश्किल नहीं होगा।मूर्तियां भूगोल के भिन्न भिन्न भागों में बिखर गई होगी। कितनी ही इंग्लैंड में, कुछ यूरोप में और कितनी ही अमेरिका पहुंच गई होंगी और कई तो रईशों के ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ा रही होंगी। धातु की मूर्तियां मूर्तिचोरों द्वारा गला दी गई होंगी और तस्करों द्वारा मुंहमांगी दामों पर बेच दी गई होंगी।" पिछले अनेक वर्षों में उत्तराखंड के प्राचीन मंदिरों से देव प्रतिमाओं की तस्करी की जो अनेक घटनाएं सामने आई हैं उस संदर्भ में श्री राजेश कुमार जैन की यह टिप्पणी बहुत सटीक प्रतीत होती है।इतने सुंदर और अभिराम ऐतिहासिक मंदिरों के गर्भगृह प्रतिमाओं के बिना यदि सूने पड़े हैं तो वह इस तथ्य का प्रमाण है कि यहां की बहुमूल्य सांस्कृतिक सम्पदा को भारी मात्रा में या तो धर्म विध्वंशकों ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया होगा अथवा मूर्ति तस्करों द्वारा इनकी चोरी हुई होगी।

वस्तुतः,द्वाराहाट के ये प्राचीन मंदिर उत्तराखंड के इतिहास और संस्कृति की ही नहीं अपितु प्राचीन भारतीय स्थापत्यकला और मंदिर वास्तुशास्त्र के भी अमूल्य धरोहर हैं। पुरातन काल में कैलास मानसरोवर की यात्रा हो या फिर बदरीनाथ, केदारनाथ के चार धामों की यात्रा द्वाराहाट के मंदिर और अवशेष भारत के इस सांस्कृतिक पर्यटन और आध्यात्मिक लोक संस्कृति के जीवंत इतिहास को उजागर करते हैं।
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द्वाराहाट का समीपवर्ती सम्पूर्ण क्षेत्र पौराणिक और धार्मिक स्थलों से गौरवान्वित है।यहां स्थित द्रोणगिरि पर्वत पुरातन काल से ही आदिशक्ति दुनागिरि नामक वैष्णवी शक्तिपीठ से शोभायमान है जहां हैमवती उमा ने आदिकाल में इंद्र आदि देवताओं को ब्रह्मज्ञान के उपदेश से कृतार्थ किया था जिसका विशद वर्णन 'केनोपनिषद्' में भी आया है। हेमवती उमा द्वारा देवताओं को 'ब्रह्मज्ञान' देने के कारण ही द्रोणगिरि पर्वत पौराणिक काल में 'ब्रह्मपर्वत' के नाम से विख्यात हुआ। कालांतर में इसी 'ब्रह्मपर्वत' की उपत्यका में स्थित होने के कारण द्वाराहाट का पौराणिक नाम ब्रह्मपुरी ~ बमनपुरी भी प्रसिद्ध हुआ। द्रोणगिरि अथवा दुनागिरि रामायण कालीन संजीवनी बूटी का भी प्रमुख स्थान रहा है। राम-रावण युद्ध में जब लक्ष्मण को शक्ति लगी थी तो हनुमान जी ने इसी द्रोणगिरि पर्वत से संजीवनी का पहाड़ उखाड़कर लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा की थी।इसी द्रोणगिरि पर्वत की परिसीमा में आने वाले धार्मिक स्थल जैसे भटकोट, पाण्डुखोली, कुकुछिना, शुकादेवी, मंगलीखान, च्युंटिया गणेश आदि स्थान भी द्वाराहाट के पार्श्ववर्ती विशेष दर्शनीय स्थल भी महाभारत कालीन इतिहास के सांस्कृतिक अवशेष माने जाते हैं।इन धार्मिक स्थलों के अलावा विभांडेश्वर, नागार्जुन, मनसादेवी,चन्द्रेश्वर, शीतला देवी, कालिका देवी के मंदिर आदि धार्मिक स्थल भी द्वाराहाट क्षेत्र की ही परिसीमा के अंतर्गत ही आते हैं।किन्तु विडम्बना यह रही है कि द्वाराहाट क्षेत्र के इन इतिहास प्रसिद्ध धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों का राष्ट्रीय धरातल पर समुचित मूल्यांकन नहीं हुआ।उत्तराखंड सरकार ने भी इस अति महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक क्षेत्र की सदैव उपेक्षा ही की है।

सामान्यतया द्वाराहाट के मंदिरों को आठ विशिष्ट वर्गों में विभाजित किया जाता है-गुर्जर देव, कचहरी देवल, मन्देव,रतन देवल, मृत्युंजय, बद्रीनाथ, केदारनाथ और हरिसिद्ध देवल। किंतु पुरातात्त्विक महत्त्व की दृष्टि से तीन विशिष्ट समूह के मंदिर ही प्रसिद्ध हैं- कचहरी देवल, मन्देव (मनिया) तथा रतन देवल।
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🎪द्वाराहाट के मंदिरों का निर्माणकाल🎪
द्वाराहाट के मंदिरों के निर्माण काल को लेकर भी विद्वानों के मध्य आज भी अनेक प्रकार के मतभेद बने हुए हैं। स्थानीय ग्रामीण समुदाय के लोगों की आम धारणा रही है कि इन मंदिरों का निर्माण पांडवों ने किया था। कुछ विद्वानों के अनुसार 10वीं से 12वीं सदी के मध्य यहां कत्यूरी राजाओं द्वारा इन मंदिरों का निर्माण हुआ था तो एक दूसरे मत के अनुसार 9वीं-10वीं सदी में इनका निर्माण हो चुका था।महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार द्वाराहाट के 30 प्राचीन मंदिरों तथा 365 कुंडों (बावड़ियों) का निर्माणकाल 10वीं से 12वीं सदी के मध्य माना गया है।उत्तराखंड के पुरातत्त्व वेत्ता डा. यशोधर मठपाल के अनुसार चन्द्रगिरि पर्वत पर विराजमान गूजर शाह द्वारा निर्मित ध्वज मंदिर समूह का रचना काल 13वीं सदी के लगभग माना गया है।किन्तु रतन देवल मंदिर समूह के मंदिरों का निर्माण कुछ बाद में हुआ था।डा.शिव प्रसाद डबराल, डा.के पी नौटियाल आदि विद्वानों का मत है कि द्वाराहाट के विभिन्न मंदिर समूहों का निर्माण कत्यूरी राजवंश के समय हुआ था।

दरअसल, द्वाराहाट का प्राचीन इतिहास ऐतिहासिक साक्ष्यों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध रहा है किंतु इन साक्ष्यों के लुप्त होने या नष्ट होने के कारण इन मंदिरों के कालनिर्धारण और इनके धार्मिक एवं सांस्कृतिक विश्लेषण में अनेक प्रकार की जटिलताएं उत्पन्न होती हैं। इन मंदिरों के बारे में जो भिन्न भिन्न मत मतांतर प्रचलित हैं उनका एक महत्त्वपूर्ण कारण ऐतिहासिक साक्ष्यों की कड़ियों को जोड़ कर देखने की इतिहासदृष्टि का अभाव भी है।
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🎪मंदिरों का वास्तुशास्त्रीय वर्गीकरण🎪
वास्तुकला की दृष्टि से द्वाराहाट के मंदिर अत्यंत समृद्ध और विकसित शैली का निदर्शन करते हैं।स्थापत्यकला की दृष्टि से इन्हें मुख्य रूप से तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में वे मंदिर आते हैं जिनमें वर्गाकार गर्भगृह के ऊपर  रेखा प्रासाद या नागरशैली के रूप में शिखर मिलता है। मृत्युंजय मंदिर समूह तथा बदरीनाथ मंदिर समूह इसी वर्ग में आते हैं। दूसरे वर्ग में 'रुचक' प्रकार के मंदिर आते हैं। इस प्रकार के मंदिरों की प्रमुख विशेषता है कि ये लघु होते हैं जिनका मंडप या अर्द्ध मंडप स्तम्भों पर आधारित होता है। डा. यशोधर मठपाल ने कचहरी देवाल के दस मंदिरों की शैली की पहचान 'रुचक' शैली के रूप में की है।तीसरे वर्ग में वे मंदिर आते हैं जिनमें क्षैतिज पट्टियों वाले आयाताकार मन्दिर का शिखर भाग क्रमशः घटते हुए क्रम से ऊपर की ओर बढ़ता है जिसे पीढ़ा प्रासाद देवल शैली के नाम से जाना जाता है।वन देवी का मंदिर इस शैली का एकमात्र उदाहरण है।स्थापत्य कला के इतिहास की दृष्टि से खजुराहो के सर्वाधिक कलात्मक मन्दिर 11वीं शताब्दी में बनाये गये थे। गुजरात, मध्य भारत राजस्थान आदि प्रदेशों में भी मंदिर वास्तु की विभिन्न शैलियों का जो उत्तरवर्ती विकास हुआ उनसे भी उत्तराखंड के प्राचीन मंदिरों की वास्तु शैली प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी, जिसकी विस्तृत चर्चा हम आगामी लेखों में करेंगे।

कैसी लगी आपको मेरी इस द्वाराहाट के मंदिरों की यात्रा से सम्बंधित यह पोस्ट? कृपया अपने विचारों से भी अवगत कराते रहें।

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