देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊँ अंचल के प्रवेशद्वार हल्द्वानी से लगभग 6 किमी पूर्व में स्थित कालीचौड़ मंदिर अपने आप में एक ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल है। काठगोदाम के निकट से खेड़ा सुल्तान नगरी के इस स्थान को एक कच्चा मार्ग जाता है। लगभग 2 किलो मीटर वन मार्ग से कुख्यात सुल्ताना डाकू के क्षेत्र से होते हुए काली चौड़ मंदिर पहुँच सकते हैं। जंगलों के बीच में बडे़-बड़े वृक्षों से घिरा कालीचौड़ मन्दिर शान्ति का अहसास देता है। प्राचीन काल से ही यह स्थल ऋषि-मुनियों की अराधना और तपस्या का केन्द्र रहा है जहां प्रकृति अपने विविधरूपों में कही मोर और कही अन्य पक्षी तो कही छोटी छोटी नदियों और पहाड़ियों के बीच आध्यात्म का अहसास कराती है। नवरात्रों में मां के इस दरबार में शीश नवाने के लिए लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं, मां के इस अलौकिक दरबार में हाजिरी लगाने वाले हरेक भक्त की मन्नत पूर्ण होती है।
माना जाता है की कालीचौड़ मंदिर वही स्थान है जहाँ आदि गुरु शंकचार्य जी के कदम देवभूमि उत्तराखंड में सर्वप्रथम पड़े थे तथा उन्हें यहां आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ था। गुरू शंकराचार्य जी ने यहां पर काफी समय तक आध्यात्मिक चिंतन कियाऔर बाद में फिर वह यहां से जागेश्वर और गंगोलीहाट की तरफ गए। गुरू गोरखनाथ, महेन्द्रनाथ, सोमवारी बाबा, नान्तीन बाबा, टात्म्बरी बाबा, हैड़ाखान बाबा सहित अनेकों सन्तों ने इस स्थान पर साधना की तथा काली मां से ज्ञान की प्राप्ति हुई।
यह भी मान्यता है कि कालीचौड़ मंदिर ऋषि-मुनियों की तपस्थली रही है और सतयुग में सप्त ऋषियों ने इसी स्थान पर भगवती की आराधना कर अलौकिक सिद्धियां प्राप्त की थी। मार्कण्डेय ऋषि ने भी यहां तपस्या कर काली से वरदान प्राप्त किया। पुलस्तय ऋषि के साथ अत्रि व पुलह ऋषि ने भी इसी स्थान पर तपस्या की थी। मंदिर के एक पुजारी ललित मिश्रा जी के अनुसार पायलट बाबा ने अपनी पुस्तक ‘हिमालय कह रहा है’ में कालीचौड़ के माहात्म्य का उल्लेख किया है। पायलट बाबा के शिष्य आज भी अपनी साधना कालिचौड़ आकर ही शुरू किया करते हैं।
कई दन्तकथाओं व किवदन्तियों को समेटे यह मन्दिर लंबे समय तक गोपनीय रहा। लगभग सात दशक पूर्व कलकत्ता के भक्त को मां काली ने जब इस स्थल के बारे में स्वयं आलोकित किया तब यह दोबारा प्रकाश में आया। इस बारे में कालीचौड़ मंदिर के पुजारी पन्डित हरि दत्त शर्मा जी बताते हैं कि वर्ष 1942 से पूर्व, कलकत्ता में माता ने एक भक्त के स्वप्न में आ कर दर्शन दिये तथा इस स्थान की जानकारी दी। तब उस भक्त ने हल्द्वानी पहुंचकर अपने मित्र राजकुमार चूड़ीवाले को अपने स्वप्न के बारे में बताया। जिसके बाद दोनों भक्त कुछ और श्रद्धालुओं के जत्थे के साथ गौलापार पहुंचे और जंगल में मौजूद इस जगह को ढूँढ़ निकाला। दैवीय आदेश के अनुसार यहां पर काली मूर्ति व शिव की मूर्ति के साथ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी पायी गयीं।
खुदाई करने पर यहां देवी-देवताओं की कई मूर्तियों के साथ एक ताम्रपत्र भी मिला जिसमें मां काली के माहात्म्य का उल्लेख किया गया था। उस वक़्त खुदाई में मिली मूर्तियां आज भी यहां के पौराणिक मंदिर खण्ड में संरक्षित कर रखी गयी हैं। इनमें से ज्य्यादातर मूर्तियां आंशिक तौर पर खंडित हैं। इस प्राचीन मन्दिर में राम भक्त हनुमान, मात्र-पित्र भक्त श्रावण कुमार, भक्त प्रहलाद, उसके पिता ह्नणकक्षब, भगवान नरसिंह, भैरव व शिव की मूर्तियां भी विराजमान हैं। प्राचीन समय में काफी समय तक यह मन्दिर गोपनीय रहा। कहा जाता है कि काली मां के मन्दिर में की गयी पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती। यह भूमि प्राचीन काल से ही पूजनीय रही है।
काली चौड़ मन्दिर को गौलापार के जमींदार-मेहरा थोकदार ने बनवाया था। हल्द्वानी के एक चूड़ी कारोबारी को इस जगह से आध्यात्मिक लगाव हुआ, और उन्होंने वर्षों तक मंदिर की व्यवस्थाएं संभाली। इस मंदिर से संबंधित एक चमत्कारिक कहानी यह भी है कि लगभग 3-4 दशक पहले किच्छा के एक सिख परिवार से ताल्लकु रखने वाले (बाद में अशोक बाबा) परिवार ने अपने मृत बच्चे को यहां लाकर मां काली के दरबार में यह कहकर समर्पित कर दिया कि मां अब इस बालक का जो चाहे आप वो करें। बताया जाता है कि ऐसा करने पर वह मृत बच्चा पुनर्जीवित हो उठा और तभी से यह परिवार मंदिर में अगाध श्रद्धा रखता है और आज तक इस परिवार द्वारा नवरात्र व शिवरात्री पर भंडारे का आयोजन किया जाता है।
चारों और वन से आच्छादित यह क्षेत्र काफी ठंडक और अलग ही शीतलता प्रदान करता है। जंगली जानवरों, चिड़ियों की आवाज कभी डर तो कभी मन में कौतुहल पैदा करती है। ध्यान,योग साधना के लिए उपयुक्त इस स्थान का अपना अलग ही महत्व है। आज यहां महाकाली के साथ ही प्रहलाद, शिव, हनुमान, वेदव्यास आदि के मंदिरों का एक समूह है। दशकों पूर्व एक पेड़ के नीचे खुदाई के दौरान निकली मूर्तियों से बनाया गया यह मंदिर आज भव्य आकार ले चुका है। यहां पर लम्बी साधना करने के इच्छुक भक्तों के लिए एक धर्मशाला का भी निर्माण किया गया है। बहरहाल इस मंदिर को लेकर लोगों की आस्था देखते बनती है जिसका प्रमाण नवरात्र के मौके पर आने वाले श्रद्धालुओं की भारी संख्या से लग जाता है।
कालीचौड़ आने के लिए निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर हवाई अड्डा है जो यहाँ से लगभग ३० किमी. की दूरी पर है वहां से आप काठगोदाम तक टैक्सी अथवा कार से आसानी से आ सकते हैं। ट्रेन से आने लिए आप सीधा काठगोदाम आ सकते है जो बरेली, मुरादाबाद, लखनऊ और दिल्ली रेलमार्ग से जुड़ा है। आगे काठगोदाम से काली चौड़ की दूरी 6 किलोमीटर के आसपास है।
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