कुमाऊँ के परगने - चौगर्खा और बारामंडल
(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार
३९. चौगर्खा
यह परगना गंगोली, काली कुमाऊँ, बारामंडल तथा कत्यूर के बीच में है। इसकी पट्टियाँ ये हैं-रीठागाड़, लखनपुर, दारुण, रंगोड़, सालम, खरही।
पहाड़- ऊँचे पहाड़ जागीश्वर, बिनसर, मोरनौला है।
नदियाँ- पूर्व तरफ़ सरयू तथा सालम में पनार है। पनार की मिट्टी धोने से भी सोना निकलता है। सुआल नदी भी इसकी सीमा को चाटती हुई बहती है।
देवता- जागीश्वर में अनेक देवता हैं। इसीलिए किस्सा है-
"देवता देखण जागेश्वर, गंगा नाणी बागेश्वर"
जागीश्वर शिव की तपस्या का स्थान है। दक्षप्रजापति के यज्ञ को विध्वंस कर सती की राख लपेटकर यहाँ पर झांकरसैम में शिव ने तपस्या की थी। यह पौराणिक कथा है। जागीश्वर में दो मंदिर हैं । एक वृद्ध जागीश्वर का मंदिर ऊपर चोटी में है। दूसरे तरुण जागीश्वर देवदारु की घनी बस्ती के भीतर है। यह विष्णु भगवान् के स्थापित किए हुए १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इस मंदिर में सोने-चाँदी का जेवर, बर्तन वगैरह बहुत थे। चंद-राजाओं के समय एक बार 9 लाख का बीजक बना था। इस मंदिर में एक पीतल की मूर्ति है, यह पौन राजा की बताई जाती है। इस राजा को बहुत पुराना राजा बताते हैं, जिसने कुमाऊँ व गढ़वाल में राज्य किया था। इसी राजा ने, कहते हैं, गढ़वाल में गोपेश्वर का मंदिर भी बनवाया था। राजा दीपचंद की मूर्ति भी यहाँ बताई जाती है । पौन राजा कत्यूरी राजाओं में थे? यहाँ पर मृत्युञ्जय महादेव के मंदिर का कहते हैं कि स्वामी शंकराचार्य ने ढक दिया था। पुष्टिदेवी के मंदिर में भी लाखों का ज़ेवर था । राजाओं ने इसे खर्च किया बदले में गाँव दिये गये।
दंडीश्वर शिव का मंदिर बहुत पुराना है। अब टूटी हालत में है। मंदिर के ऊपर देवदारु-बनी में झांकरसैम हैं। यहीं शिवजी ने तपस्या की थी। यहाँ भी मेला होता है। अन्य मंदिरों का वर्णन अन्यत्र भी आवेगा।
अक्सर चंद-राजा मरने पर इसी तीर्थ में जलाये जाते थे, और उनके साथ उनकी रानियाँ भी १-२ नहीं, कभी-कभी ८-१० तक सती होती थीं। यहाँ दो बार चतुर्दशी को मेला भी होता है। यहाँ जो शिव का मंदिर है, वह कहते हैं कि कत्यूरी राजा शालिवाहनदेव का बनवाया हुआ है।
खाने-लोहे की खाने बहुत हैं। सालम में मौजा कुरी पाली में, रंगोड़ में मौजे माडम, चाहला, पोखरी, निरतोली, बना और सेला इजर में। लखनपुर में मौजे भरे, साली, चामी, मड्या, तोली और लोबगड़ में। दारुणपट्टी भीतर मौज़ा चलथी, खैरागाड़, माडम, घुरकुंडा, गोरड़ा, काफली, मगरों और पोखरी में। खरही में मौजे लोब तथा मिरौली व पालड़ी में। कहीं-कहीं चुम्बक पत्थर भी निकलता है। खरही में दो जगह ताँबे व शीशे की भी खानें हैं, पर सब वीरान पड़ी हैं।
इस परगने में घेघे (गना) की बीमारी बहुत होती है।
यहाँ पर एक किला पड्यारकोट के नाम से ऊँचे पहाड़ पर था। उसमें पड्यार कौम का राजा रहता था। वह इस परगने का मालिक था। पड्यार के हाथ से चंद-राजाओं ने चौगर्खा छीन लिया!
इस परगने में भी कहीं-कहीं राजी लोग रहते थे । वे अब रौत कहलाते हैं। यहाँ की भंग व चरस मशहूर है। 'भांगा' भी होता है। घी भी होता है। सालम की बासमती प्रसिद्ध है।
पालीटय्याँ, धौलछीना, बाड़ेछीना, पनुवाँनौला, जागीश्वर व नैनी यहां के मुख्य पड़ाव है। जहाँ छोटी-छोटी बस्तियाँ, दूकानें व डाकबंगले हैं। पनुवाँनौला में माई चक्रवर्ती तथा साधु कृष्णप्रेम वैरागी (M. Nixon) ने उत्तरी वृदावन २-३ वर्ष पूर्व बसाया है।
४०. बारामंडल
यह परगना कत्यूर, पाली, फल्दकोट, कुटौली तथा महरूड़ी के बीच है।
इसके पुराने १२ मंडल इस प्रकार थे-(१) स्यूनरा (२) महरूडी (३) तिखौन (४) कालीगाड़ (५) बौरारौ (६) कैडारौ (७) अठागुली (८) रिऊणी (६) द्वारसौं (१०) खासपरजा (११) उच्यूर (१२ ) बिसौत। इसी से यह परगना बारह मंडल कहलाया। बारह मांडलीक राजा इन मंडलों में राज्य करते थे।
खासपरजा की उत्पत्ति इस प्रकार की जाती है। यहाँ पर कहते हैं कि चंद-राजाओं के खास याने निजी कारदार या कर्मचारी रहते थे, इससे यह परगना खासपरजा कहा br/> बड़े पहाड़- बिनसर, गणनाथ, पीनाथ, भटकोट, स्याई, बानणी, ऐड्यो, कलमटिया आदि।
देवता- पिंगनाथ, गणनाथ, सोमेश्वर, शुकेश्वर महादेव हैं। बड़ादित्य नामक कटारमल में सूर्य मंदिर है। श्यामा उर्फ स्याही, वृन्दा याने बानणी देवी हैं। बदरीनाथ बयाला तथा बदरीनाथ कुंवाली विष्णु-मंदिर हैं और भी कई देवताओं के मंदिर हैं। बड़ादित्य के सूर्य मंदिर को सूर्यवंशी कत्यूरी राजा कटारमल्ल देव ने बनवाया था।
इस मंदिर के बर्तनों को साफ करने के लिये भिलमोड़ा नामक खट्टा घास (अल्मोड़ा, चल्मोड़ा, भिलमोड़ा, किलमोड़ा प्रभृति अम्ल पास-पत्तियाँ) खसियाखोला के पुराने बाशिन्दे जिनको अल्मोडिया कहते थे, रोज-रोज़ कटारमल पहुँचाते थे। खस-जाति का गाँव उस जगह पर था, जहाँ पर अब अल्मोड़ा शहर है। जो पहले खसियाखोला कहलाता था। वह अब उप्रेती खोला कहलाता है। अल्मोड़ा घास ले जाने से व अल्मोड़िये कहलाये और उनके नाम से इस शहर का नाम अल्मोड़ा प्रसिद्ध हुआ।
अल्मोड़ा-
अल्मोड़ा नगर बसने के पूर्व यहाँ पर कत्यूरी राजा बैचलदेव का अधिकार था। उन्होंने बहुत सी ज़मीन संकल्प करके गुजराती ब्राह्मण श्रीचंद तेवाड़ी को दे दी। पश्चात् बारामंडल में चंद-राज्य स्थापित होने पर नाप द्वारा श्रीचंद की ज़मीन अलग कर चंद-राजाओं ने और जगह में अपने महल बनवाए और शहरवालों के मकान बनवाये, जिसका वर्णन ऐतिहासिक खंड में भी आवेगा। अल्मोड़ा शहर वास्तव में चंद-राज्य के मध्य में होने के कारण बसाया गया। पर एक लोकोक्ति यह भी है कि जब राजा कल्याणचंद सन् १५६० में अल्मोड़ा के पर्वत में शिकार खेलने को आये, तो वहाँ पर एक खरगोश दिखाई दिया, जो अल्मोड़ा के भीतर की भूमि में बाघ में बदल गया। इस पर ज्योतिषियों ने कहा कि यह भूमि सिंह के समान है। यह शक्तिशाली होगी। यहाँ नगर बसने से शत्र ऐसे ही भयभीत होंगे, जैसे लोग बाघ से भयभीत रहते हैं। अतः यहाँ पर नगर की नींव डाली गई। लोहे की शलाका शेषनाग के सिर तक पहुँच गई। विज्ञ लोगों ने कहा कि राज्य स्थायी होगा, पर राजा को भ्रम हुआ। मना करने पर भी लोहे की कील उखाड़ी गई। उसमें लोहू लगा था। इस पर ज्योतिषियों ने कहा, चूँ कि कील उखाड़ी गई है, इसलिये अब यह राज्य स्थिर न रहेगा! मानसखंड में अल्मोड़ा नगरी जिस पर्वत पर बसी है, उसका वर्णन इस प्रकार है:-
कौशिकी शाल्मली मध्ये पुण्यः कापाय पर्वतः।
तस्य पश्चिम भागै वै क्षेत्र विष्णो प्रतिष्ठितम्॥
(मानसखंड, अध्याय २)
चंद-राजाओं के समय इसको राजापुर कहते थे। कई ताम्रपत्रों में राजापुर लिखा है। अल्मोड़ा पर्वत की पीठ पर बसा है। इसकी उँचाई ५२०० से लेकर ५५०० तक है। जेल ५४३६ फुट, गिर्जा ५४६५’ कालीमाटी ६४१४’ तथा शिमतोला की उँचाई ६०६६ फूट है। बड़ी ही चंचल जगह है। इसके दो हिस्से हैं -(१) तैलीफाट (२) सेलीफाट।
करीब सवा मील लंबी बाज़ार है, जो पत्थरों से पटी है। पहले वर्तमान छावनी की जगह लालमंडी बसी। वहाँ क़िला, राजमहल तथा तालाब, मंदिर आदि थे। किला लालमंडी के नाम से पुकारा जाता था, अब फोर्ट मौयरा कहलाता है। लॉर्ड मौयरा के समय में नगर व क़िला अँगरेज़ों के हाथ आया, इसी से नाम बदला गया। जहाँ कचहरी है, वहाँ चंद-राजाओं का मल्ला महल था, और जहाँ पर अब अस्पताल व मिशन स्कूल है, वहाँ चंदों का तल्लामहल था। बाद को तल्लामहल में हवालात भी रही। कविवर गुमानी कहते हैं-
विश्नु का देवाल उखाड़ा, ऊपर बँगला बना खरा।
महाराज का महल ढबाया, बेड़ीखाना तहाँ धग ॥
मल्ने महल उड़ाई नंदा, बंग्लों से भी तहाँ भरा।
अंग्रेजों ने अल्मोड़े का नक़शा और ही और करा॥
अल्मोड़ा के प्रधान मुहल्ले इस प्रकार हैं-
बाजार के- लाला बाजार, कारखाना बाज़ार, खजांची मुहल्ला (पहले खौकी मुहल्ला था), सुनार उर्फ जौहरी मुहल्ला, मल्ली बाज़ार, थाना बाज़ार।
सेलीफाट- जोशीखोला, शेलाखोला, ड्योढ़ीपोखर, थपलिया, खोल्टा, चंपानौला, गुरानीखोला, चौंसार, गल्ली, करड़िया खोला, कपीना, पणिउड्यार, रानीधारा, चौधरीखोला, पोखरखाली, झिजाड़, कसून।
तैलीफाट- चीनाखान, मकिड़ी, धारानौला, चाँदनी चौक (प्राचीन विष्टकुड़ा ) त्यूनरा, दन्या, बाँसभीड़ा, उप्रेतीखोला (खसियाखोला), बाड़ेखोला, डुबकिया, नयालखोला, तिरुवाखोला, दुगालखोला, टमट्यूड़ा आदि।
ये मुहल्ले प्रायः उन्हीं सम्प्रदायों के सूचक हैं, जिन्होंने उनको बसाया।
पहले कमिश्नर यहीं रहते थे। बाद को नैनीताल रहने लगे। जिला हाकिम की कचहरी के अलावा यहाँ पर चुंगी व डि० बोर्ड के दफ्तर हैं। चुंगी-बोर्ड सबसे पहले सन् १८५१ में स्थापित हुआ। पहले मेम्बर सरकार द्वारा नियुक्त होते थे। चुनाव की प्रथा सन् १८६८ में जारी हुई। पहला चुनाव १८६६ में हुआ। पहला गैरसरकारी चैयरमैन १९११ में छाँटा गया।
सन् १८६०-६१ में कुल आमदनी ७३१४) थी, आज ६००००) से ज्यादा हैअ। सन् १९१० तक सरकारी चैयरमैन होते थे, अब गैरसरकारी चैयरमैन हैं। अब ११ सदस्यों की एक कमेटी की सम्मति से चैयरमैन इसका शासन करते हैं। ज़िला-बोर्ड भी पहले सरकारी था, सन् १८२३ से गैरसरकारी चेयरमैन के हाथ सौंपा गया। इस समय २४ सदस्यों का बोर्ड है, जिनकी सम्मति से शासन चलता है। सन् १८६१-६२ में बोर्ड की ग्रामदनी 197146) थी। खर्च भी इतना ही था। अब आमदनी-खर्च ४१ लाख के लगभग है।
गोर्खा पल्टन- अल्मोडा सर करने पर पहले अंग्रेज़ी अफ़सर व फाज के सिपाही सन् १८३६ तक हवालबाग़ में रहते थे। चूँकि यह केवल ३६२० फीट ऊँचा है। इससे यहाँ की जलवायु ठीक नहीं समझी गई। बाद को यहां से उठकर अफसरान अल्मोड़ा आये। फौज लोहाघाट व पिठौरागढ़ भेजी गई। सन् १८१५ में, जो अब तीसरी गोर्खा पल्टन है, वह हल्द्वानी में खड़ी की गई। निजामत बटालियन कहलाती थी। सुब्बा जयकृष्ण उप्रेती ने उसमें बहुत से कुमावनी भर्ती किये। यह कमिश्नर कुमाऊँ की आज्ञा में रह्ती थी। पुलिस का काम भी यही करती थी। बाद को कुमाऊँ बटालियन भी कही जाने लगी। सन् १८४६ में यह लोहाघाट व पिठौरागढ़ से ७० लालमंडी (फ़ोर्ट मौयरा ) में स्थापित की गई। सन् १८५० में सिविल कार्य इससे उठा लिया गया, और कुमय्ये इससे अलग किये गये, और यह गोर्खा पल्टन कहलाई। अल्मोड़ा इसका घर बनाया गया। इसने अनेक लड़ाईयों में बहादुरी दिखाई है।
पहले यहाँ ३६० 'नौले' (चश्मे) थे, पर अब बहुत से सूख गये हैं। रानीधारा, राजनौली, रंफानौली, चंफानौला, कपीने का नौला प्रसिद्ध है। सन् १८७४ में यहाँ पानी बल्ढौटी जंगल से पक्की नालियों में श्रील श्रीबेटन साहबान लाये। ला० मोतीरामसाहजी (नैनीताल वालों) ने मोतियाधारा बनवाया। सन् १८८४ में रायबहादुर पं० बदरीदत्त जोशी सदरमीन साहब के उद्योग से नलों द्वारा नैल से पानी लाया गया। कुछ चंदा हुआ, कुछ धन सदरमीन साहब ने दिया।
१८६२ में नैल से दूसरा पानी लाया गया। यह पल्टन के काम आता है। 1904-07 के बीच तीसरा पानी लाया गया। १९२९ राय पं० धर्मानंद जोशी बहादुर चेयरमैन साहब के उद्योग से स्याहीदेवी से नलों द्वारा पानी लाया गया। तो भी गर्मी में पानी की तंगी रहती है। स्याहीदेवी का पानी २६-४-१९३२ को नगर में आया।
अल्मोड़ा-कचहरी के अतिरिक्त अन्य बड़ी पब्लिक इमारतें ये हैं- डाकघर (१९०५), सरकारी कॉलेज ( १८९१) डाकबंगला, रामजे हाउस, शिवराज संस्कृत-पाठशाला, पब्लिक लाइब्रेरी, रामजे हाईस्कूल, टाउन स्कूल, नार्मल स्कूल, मिशन कन्या-पाठशाला, राजपूत रात्रि-पाठशाला, *कुंदन स्मारक-भवन(*कुन्दन स्मारक-भवन, पं० गोविन्दबल्लभ पंतजी के उद्योग से खुला। सन् १९३४ में इसका उद्घाटन-संस्कार सर सीताराम ने किया।), लछीराम थियेटर आदि। नया अल्मोड़ा अस्पताल सन् १६०१ में बना। इसका खर्च ज़्यादातर जिला-बोर्ड देती है और थोड़ा सा चुंगी-बोर्ड भी। जनाना-अस्पताल सन् १९२७ में खुला।
शिवराज संस्कृत-पाठशाला, लाइब्रेरी तथा श्रीबद्रीश्वर दन्या के स्व० राय पं० बद्रीदत्त जोशीजी ने बनवाये।
ठाकुरद्वारा ला० कुन्दनलाल साहजी ने बनवाया। अन्य मंदिरों का ज़िक्र अन्यत्र आवेगा।
अल्मोड़ा के पास बल्ढौटी जंगल है, जो पहले सरकारी रिज़र्व जंगल था। अब इसके ६ कम्पार्टमेंट चुंगी-बोर्ड के प्रबंध में हैं। नारायण तेवाड़ी में पहले एक मंदिर-मात्र था। अब एक अच्छी बाज़ार है।
बल्ढौटी जंगल के नीचे एक खान में छत व आँगन के लिये बहुत सुन्दर पत्थर निकलते हैं। सन् १८१५ में, कहते हैं, पटाल की तह में से एक जीता मेंढक निकला था।
सिटौली में इस समय सरकारी सुरक्षित जंगल है। यहाँ पर एक गोरखा की गढ़ी भी है, जिससे वे १८१४ में अंग्रेजों के साथ लड़े थे और यहाँ पर २ अंग्रेज़ों की कब्रें भी हैं, जो गोरखा-लड़ाई में मारे गये थे। कब्र में ले० किर्क व टैपले के नाम अंकित है। श्री टैपले २६ अप्रैल, १८१५ को अल्मोड़ा में मारे गये थे और श्री किर्क १६ मई, १८१५ को घाव लगने तथा थकान से मरे।
स्यूनरा- स्यूनरा नाम की पहले एक पट्टी थी, अब दो हैं। इस पट्टी का पुराना राजा स्यूनरी जाति का था। उसका स्यूनराकोट नामक किला अभी तक एक टीले पर है। उसके भीतर से पत्थर काटकर एक सुरंग नदी तक बनी है। वहाँ से पानी ले जाने का रास्ता था। इस राजा के ऊपर कत्यूरी राजा राज्य करते थे। पश्चात् स्यूनरा भी चंद-राज्य में शामिल हो गया।
तिखौन- तिखौन का राजा तिखैनी था। उसका किला तिखौनकोट एक ऊंची चोटी पर था। पहले यह कत्यूरियों का मांडलीक राजा था। बाद को चंद-राज्य के साथ लड़ने में वह मारा गया। एक कोट में रणखिल गाँव के एक पहरी का अधिकार हो गया, उसने कुछ फ़ौज एकत्र कर अपने को तिखोन का राजा प्रसिद्ध किया। चंदों की थोड़ी सी फ़ौज तिखौनकोट में हमला करने को गई, पर लड़ाई में वापस आ गई। सेबाद पणकोट गाँव के चिल्वाल लोगों ने चंदों से आज्ञा लेकर पहरी राजा से युद्ध किया। पहरी की फ़ौज का पानी बंद कर दिया। बिना पानी के पहरी की सेना तंग हुई। अतः चिल्वालों ने पहरी को डाला, और तिखौनकोट चंद-राजाओं के अधिकार में फिर से आ गया। पानी बंद करने की कहानी इस प्रकार कही जाती है कि चिल्वालों का नेता थककर ज़मीन पर सोया, तो उसने पानी के बहने की आवाज़ सुनी। खोदा, तो पानी की नाली निकली। अतएव वह तोड़ दी गई। इस बहादुरी व खैरख्वाही के बदले तिखौनपट्टी में कमीनचारी का पद चिल्वाल जाति को मिला और अब तक कायम है।
ऐड़ी देवता- इस पट्टी में ऐड़ीयों का पर्वत बहुत ऊँचा है। इसमें ऐड़ी देवता का मंदिर है। ऐड़ी देवता का वृत्तान्त अन्यत्र आवेगा। श्यामादेवी का मंदिर भी इसी पट्टी में है।
बौरारौ व कैड़ारौ- इन पट्टियों में बौरा व कैड़ा जाति को कमीन पद देकर चंद-राजात्रों ने काली कुमाऊँ से लाकर वहाँ बसाया। इस कारण दो पट्टियों का नाम बौरा + की + रौ= बौरारौ तथा कैड़ा+की+रौ-कैड़ारौ रक्खा गया। रौ के माने तालाब के हैं। कहते हैं कि पहले इन दोना पट्टियों में वालाब थे। जब वे तालाब फूटकर बह निकले, तब यह प्रान्त आबाद हुएअ। बौरारौ का पहला नाम रौगाड़ था।
रिंऊणी, द्वारसों यह पहले कोई अलग पट्टी न थी। कहते हैं, पहले यहाँ मज़दूर लोग बसते थे। अब तो यह पट्टी सेठ-साहूकारों से भरी है। अठागुली में पुरानी खस जाति के बाशिन्दे कोई नहीं रहे, तब भंडारी, पिंडारी अन्य प्रान्तों से बुलाकर वहाँ बसाये गये।
बिसौतपट्टी में बिसौतकोट नामक किला था। बिसौती जाति का मांडलीक राजा था। अब उसकी संतान नहीं है। वहाँ भी बिलवाल व नयाल और स्थानों से बुलाकर बसाये गये हैं। ये दोनों जातियाँ सिपाही के काम में पहले से प्रसिद्ध हैं। बहादुर सिपाही गिने जाते थे। इस पट्टी के अन्त में कपिल मुनि के नाम से कपिलेश्वर मंदिर भी है।
उच्च्यूरपट्टी में उच्यौरा जाति पुरानी है। जब से चंद-राज्य का दरबार अल्मोड़ा में हुआ, तब से ये लोग सिपाहियों में भरती किये गये।
खासपरजा पट्टी चंदों की बनाई हुई है। जब चंदों की राजधानी अल्मोड़ा में आई, तो उन्होंने हर समय के निज के काम के लिये खास परजा के गाँव और पट्टियों से अलग कर दिये। यहाँ के लोग राजमहल के निजी कर्मचारी के बतौर थे।
चंदों के अल्मोड़ा आने के पूर्व अल्मोड़ा के दो तरफ़ दो राजा रहते थे-
(१) दक्षिण तरफ़ खगमराकोट नामक किला है। उसमें कत्यूरी राजाओं में से बैचलदेव उर्फ बैजल देव नाम के राजा का महल था। यह राजा बारामंडल के कुछ इलाके में राज्य करते थे। पश्चात् चंद-राजा ने इन्हें हराकर बारामंडल अपने कब्जे में किया।
(२) उत्तर-पश्चिम की ओर, पहाड़ के अंत में, रैला जाति के राजा का महल था, जिसमें कहते हैं कि बिल्हौर (१) के खंभ लगे थे। अब तक महल के खंडहर दिखाई देते हैं। इसको रैलाकोट कहते हैं। इस रैला की संतान चंदों के अल्मोड़ा आने तक विद्यमान थी। चंद-राजा ने इन्हें तंग करके बरबाद कर दिया। रैला को यह हुक्म दिया कि वह एक जोड़ी जिन्दा तीतर की रोज़ भेजे। यही राज-कर उसके वास्ते ठहराया गया। यदि तीतर की जोड़ी किसी दिन न आवे, तो शर्त यह थी कि कठिन सज़ा दी जावेगी। इसी डर से रैला के स्त्री-पुरुष व बच्चे जंगल, 'गाड़-गधेरों' व झाड़ियों में तीतर पकड़ते फिरते थे। इसी रंज व मेहनत से बेचारे बरबाद हो गये। न उनका राज्य रहा, न वंश।
अल्मोड़ा में हीराडुँगरी नाम की एक चोटी है। पुरानी कहावत है कि एक जौहरी चंद-राजा के दरबार में आया था। उसने इस पहाड़ को खोदकर हीरे निकालने की बाबत अर्जी सरकार में पेश की थी, पर नामंज़र हुई। कुछ लोग कहते हैं, यहाँ पर पहले जमाने में लोगों ने चमकती हुई मणि देखी थी। मणिवाला सर्प भी यहाँ रहता बताया जाता था। अब तो वहाँ मिशन के अच्छे भवन खड़े हैं।
अल्मोड़ा के उत्तर तरफ़ कलमटिया पर्वत में चंद-राजाओं का शस्त्रागार अर्थात् युद्ध-सामग्री का भंडार था। वहाँ पर पं० श्रीबल्लभ पांडे (उपाध्याय )जी कन्नौज से आये। उनको राजकर्मचारियों ने कहते हैं कि होम करने को मज़ाक में लकड़ी के बदले लोहे के डंडे दे दिये। उपाध्याय जी तांत्रिक विद्या में प्रवीण थे। कहते हैं, उन्होंने लोहे के डंडों का ही होम कर डाला, जिससे तमाम पर्वत ही जलकर काला हो गया। तभी से उसका नाम कलमटिया पड़ा।
यहाँ पर अब चोटी में काषायेश्वर महादेव तथा देवी के मंदिर हैं, जो स्व० चौ० चेतराम प्रधानजी के बनवाये कहे जाते हैं।
मल्ला स्यूनरा में अमखोली नामक स्थान में कत्यूरों के समय सा नगर था। ,जिसके खंडहर वहाँ हैं। अम्बिकेश्वर महादेव नौला भी उन्हीं का बनवाया है।
कलविष्ट देवता- बिनसर पर्वत की सलामी पर कलविष्ट का टूटा मन्दिर है। इसका वृत्तान्त अन्यत्र आवेगा।
बिनसर पहाड़ में बिनेश्वर महादेव का मंदिर है। इसे राजा कल्याणचंद ने बनवाया, जो गरमियों में यहाँ रहते थे। मंदिर के निकट थोड़ा सा पानी है। इसे गूल काटकर भकुंडा के भकुंडी (भकूनी?) अपने गाँव में ले जाना चाह्ते थे। रात को स्वप्न में उनसे महादेवजी ने कहा कि वहाँ का पानी थोड़ा है। उसे न ले जावें, उनको पहाड़ की सलामी में पानी दिया जावेगा। तीसरे दिन वहां स्वयं पानी पैदा हो गया। अतः इस पानी को वर का पानी अर्थात् देवता का दिया हुआ कहते हैं।
खाली में पहले सेठ जमनालाल बजाजजी ने गांधी-सेवा-संघ की ओर से 'शैलाश्रम' खोला था, अब उसे मि० पंडित ने खरीद लिया है।
गणनाथ का पर्वत भी बड़ा चंचल व रमणीक है। यहां पर विनायक-थल एक हमवार भूमि है। उसके ऊपर गणनाथ एक गुफा में विराजमान हैं। यहाँ लोहे की खाने हैं। गोरखों की पल्टन भी यहाँ रहती थी। अंग्रेज व गोरखों के बीच युद्ध यहीं हुआ। गोरखा सेनापति हस्तिदल यहीं मारा गया था। प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ पं. हर्षदेवजी भी यहीं बैकुंठवासी हए थे। पं. श्रीबल्लभ उपाध्यायजी ने यहाँ गणनाथ मठ की स्थापना की। वर्तमान समय में पं. हरिकृष्ण पांडेजी ने यहाँ पर संस्कृत-विद्यालय तथा उद्योगशाला का आयोजन किया है।
बारामंडल पट्टी के कैडारौ गाँव में पारकोट एक गाँव है। यहां के वैद्य पहले से विख्यात हैं। अब भी यहाँ के पांडे-वंश के वैद्य अनूपशहर में रहते हैं। देवता नचाने में 'पारकोट की जड़ी' का उच्चारण होता है, जिससे वहां के वैद्यों की दवाइयों से मतलब होगा।
अल्मोड़ा के पूर्व में बानणीदेवी तथा पश्चिम में श्यामादेवी (स्याहीदेवी) के "सिद्ध पर्वत व मंदिर हैं, जो अल्मोड़ा के बॉडीगार्ड (शरीर-रक्षक) की तरह हैं। अल्मोड़ा के मंदिरों का वर्णन अन्यत्र आवेगा। स्याहीदेवी के पास सीतलाखेत प्रसिद्ध स्थान है। यहाँ पर बाबा हैड़ियाखान का बनवाया सिद्धाश्रम भी है। दो-एक बगीचे हैं। सन् १९३२ से यहाँ पर बालचर-मंडल (SS. Boy Scout Association) का ग्रीष्म में विचरने का निर्मल वन कैम्प खुल गया है। स्काउट-कमिश्नर वाजपेयीजी ने इस स्थान के विषय में कहा है-"दुनिया के जितने स्थान उन्होंने देखे हैं, उन सबसे यह रमणीक है।"
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