लुप्त होती कुमाऊँनी लोककला - दुर्गा थापा
जो नही होनी चाहिये.........
लेखिका: प्रेमा पांडे
कुमाऊँ में त्योहारों के समयानुसार देवी देवताओं के चित्र चित्रित किये जाते थे। जो आज भी अल्मोडा नैनीताल, बागेश्वर आदि जगह पर विशेष कर साह परिवारो में देखे जा सकते हैं। नवरात्रीयों के अवसर पर दीवार सज्जा में दुर्गा थापा किया जाता है। दुर्गा पूजा हेतु पूजा कक्ष में या जमीन पर लिखे जाने वाले आलेखनों के अतिरिक्त दीवारों पर निर्मित थापे भी पूरे किये जाते हैं। इनमें दूर्गा थापा प्रमुखता से स्थापित किया जाता है।
थापा शब्द का अर्थ है-प्रतिष्ठा। ये प्रथम कक्ष की दीवारों पर स्थापित होते थे, कालान्तर में अब इनका प्रयोग कागज पर होने लगा है। थापे विशेषकर नवरात्रियों में पूजे जाते हैं। बरबूँद की भाँति थापे रंगीन लाल, हरे, पीले रंग से निर्मित होते हैं। इनमें शक्ति के कई स्वरुपों/प्रतीकों विशेष कर देवताओं का चित्रण होता हैं।
थापे का स्वरुप दीवार के अनुसार आयताकार या फिर वर्गाकार हो सकता है। थापे के केन्द्र में आष्टभुजाधारी देवी दुर्गा को सिंह पर बैठा दर्शाया जाता है। देवी के दाहिनी ओर कोटकांगड़ा देवी, बायीं ओर अट्ठारह हाथ वाली नव दुर्गा की आकृति बनायी जाती है, जिनके आगे बायीं ओर माँ पुण्यागिरी देवि और दायीं ओर माँ दूनागिरी देवी अंकित होती है (जैसा कि चित्र में दर्शित है)।
माँ पुण्यागिरी देवी का मंदिर टनकपुर के पास तथा माँ दूनागिरी देवी का मंदिर द्वारहाट के पास द्रोणागिरी पर्वत पर स्थित हैं। दीवार में चिन्हित थापों के बीच-बीच में कलमदलों द्वारा आवृत देवी का यंत्र बनाया जाते हैं। इस यंत्र में ऊपर एवं नीचे की ओर काटते हुए अधोमुखी तथा ऊर्ध्वमुखी त्रिभुजों को अंकित किया जाता है। यह यंत्र बारहदलों के कमलदल से घिरा रहता हैं। सबसे ऊपर लक्ष्मी-विष्णु के प्रतीक सुवा सारंग, ब्रह्माण्ड, सरस्वती, सूर्य, चन्द्र तथा लोक देवताओं के रुप में भोलानाथ तथा गोलानाथ अंकित किए जाते हैं। दाहिने कोने पर नवचंडी का यंत्र तथा चामुण्डा यंत्र बनाये हैं।
इसके नीचे दिन तथा रात्रि के प्रतीक अंधियारी उजियारी देवीयाँ दर्शित की जाती हैं। स्वास्तिक, रामलक्ष्मण, बालाबर्मी, छः शीश वाली दुर्गा, लक्ष्मी तथा गणेश आदि देवि देवता चित्रित किये जाते हैं। इनमें से कुछ क्षेत्र विशेष के देवता हैं। इस तरह से देवी के कई रूपों, प्रतीकों और चिन्हों की स्थापना करके थापे को पूर्ण किया जाता है।
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