![घी-संक्रांत - कुमाऊँनी त्यौहार, olgia, olgi sangrant or ghee sangrant, kumaon ka tyauhar olgia, ghee sankranti घी-संक्रांत - कुमाऊँनी त्यौहार, olgia, olgi sangrant or ghee sangrant, kumaon ka tyauhar olgia, ghee sankranti](https://1.bp.blogspot.com/-ppSKAb-oC9Y/YRxs4WkbqZI/AAAAAAAAPP8/qmoqPwaw-04E5_u9ioaqABgHv799FKT8QCNcBGAsYHQ/s16000/CST-GyunSagyan-Lekh-Kumaon.jpg)
"घी-संक्रांत"🙏
लेखक: श्री दिनेश पाठकउत्तराखंड मुख्यतः एक कृषि प्रधान राज्य है। यहाँ की सभ्यता जल, जंगल, ज़मीन से प्राप्त संसाधनों पर आधारित रही है, जिसकी पुष्टि यहां के लोक त्यौहार करते हैं। प्रकृति और कृषि का यहां के लोक जीवन में बहुत महत्व है। जिसे यहां की सभ्यता अपने लोक त्यौहारों के माध्यम से प्रदर्शित करती है। यूँ तो प्रत्येक महीने में एक दिन संक्रांत का होता है।
उत्तराखंड में भाद्रपद संक्रान्ति को ही घी संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। अर्थात् सावन मास पूरा होने तथा भादो महीने की पहली पैट को घी संक्रांत मानते हैं। उत्तराखंड का प्रसिद्ध त्यौहार है घी_संक्रांत। जो की अति प्राचीन काल से ही बहुत उत्साह और ख़ुशी के साथ मनाया जाता है। उत्तराखंड में हिन्दू कैलेंडर के अनुसार संक्रांति को लोक-पर्व के रूप में मनाने का प्रचलन रहा है। इसलिए भाद्रपद मास की संक्रान्ति, जिस दिन सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करता है, घी संक्रांत के रूप में मनाते हैं।
यह त्यौहार भी हरेले की ही तरह ऋतु आधारित त्यौहार है। हरेला जिस तरह #बीज को बोने और वर्षा ऋतु के आने का प्रतीक है। वहीं घी-त्यार “घी-संक्रान्ति” अंकुरित हो चुकी फ़सल में बालियाँ के लग जाने पर मनाये जाने वाला त्यौहार है। इस त्यौहार में फसलों में लगी बालियों को किसान अपने घर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर या दोनो ओर गोबर से चिपकाते हैं। ऐसा करना शुभ माना जाता है। ऐसे यह त्यौहार हमें प्रकृति के और क़रीब लाता है। वैसे अगर हम देखें तो देवभूमि उत्तराखंड के प्रत्येक पर्व प्रकृति से जुड़े हुए हैं।
उत्तराखंड में घी-त्यार किसानो के लिए अत्यंत महत्व रखता है। ग्रामीण अंचलोमें कृषकवर्ग, ऋतुद्रव प्रमुख_पदार्थ (गाबा, भुट्टो, मक्खन आदि भेंट अपने भूमि_देवता (भूमिया) तथा ग्राम देवता को अर्पित करते हैं। घर के लोग इसके उपरांत ही इनका उपयोग करते हैं। आज के दिन प्रत्येक #उत्तराखंडी “घी” का खाना ज़रूर बनाते हैं। यह भी कहा जाता है कि घी खाने से शरीर की कई व्याधियाँ भी दूर होती हैं। मसलन कफ और पित्त दोष।व्यक्ति की बुद्धि तीव्र होती है। स्मरण क्षमता बढ़ती है। यह त्यौहार व्यक्ति को आलस छोड़ने को प्रेरित करता है। नवजात बच्चों के सिर और तलुवों में भी घी लगाया जाता है और उनके स्वस्थ्य रहने एवं चिरायु होने की कामना करते हैं। घी संक्रांत के दिन दूब को घी से छुआ कर माथे पर लगाते हैं।
इस त्यौहार में भोजन घी में ही बनता है। इस दिन का मुख्य भोजन “बेडू” (रोटी)(उड़द की दाल को सिल-बट्टे में पीस कर भरते हैं) है। इसे घी लगाकर खाई जाती है। पिनालु की सब्ज़ी एवं उसके पातों (पत्तों) जिन्हें हम गाबा, पत्यूड़े कहते हैं पहाड़ी तोरी के साथ खाते हैं। इस त्यौहार में घी का महत्व इसके नाम से ही पता चलता है। इसलिए अगर आस-पास कोई ऐसा व्यक्ति या परिवार जिसके पास साधन ना हों तो उसके घर “घी” भेजा जाता है, त्यौहार मनाने के लिए।
घी-संक्रांत के मौक़े पर ग्रामीण लोकगीतों से मनाते हैं यह पर्व। यही वजह है कि घी-त्यार के शुभ अवसर पर झोड़ा और चाचरी का भी गायन होता है। गाँवों में मेले लगते हैं। भेंटों का आदान-प्रदान होता है। प्राचीन समय में घी-संक्रांत पर एक परम्परा थी जिसमें दामाद और भाँजा अपने ससुर और मामा को उपहार देते थे। भाद्रपद में नव विवाहिता पुत्रियाँ भी मायके आती हैं।
यह त्यौहार राज्य की ख़ुशहाली, हरियाली का प्रतीक त्यौहार है। फ़सल अच्छी तरह से विकसित होती हैं, दूध देने वाले पशु भी स्वस्थ होते हैं। पेड़ भी फलों से लदे होते हैं। इसलिए कहा जाता है,यह त्यौहार समृद्धि के लिए आभार प्रकट करना है।
दिनेश पाठक, 17-08-2021दिनेश पाठक जी की फेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी शब्द सम्पदा पर पोस्ट से साभार
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