
पहाड़ी पर न्यायकारी ’राजा’ हरुहीत
तल्ला सल्ट के गुजरुकोट के अतीत में दर्ज है हरुहीत की वीरता और मालु शौका की प्रेमकथा
वीर रस की हुंकार में प्रेमरस की फुहार से लबरेज कुमाऊं के लोक में रची-बसी एक अनूठी प्रेमकथा है राजा हरुहीत और रानी मालू शौक्याणी की। प्यार से ओतप्रोत भावनाओं के ज्वार में प्रेमिका स्वरूप पत्नी को खो देने वाला ऐसा योद्धा जिसने अपनी रानी की चिता में जिंदा जलकर खुद को अमर बना दिया। प्रेम पुजारी व कुशल योद्धा हरुहीत लोकदेवता का दर्जा पाने के बावजूद आज भी न्यायकारी राजा के रूप में गुजरुकोट के किले में दरबार लगाते हैं। तो आइए इस बार के अंक में आपको ले चलें तल्ला सल्ट की उस अभेद्य पहाड़ी की ओर जो अतीत में अजेय रही। एक अनूठी प्रेमकथा यहां के अतीत में दर्ज है।
कुमाऊँ दर्शन:
शिक्षक ने रची हरुहीत चालीसा नेवलगांव हरढा निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक बचीराम मठपाल ने हरुहीत चालीसा लिखी है। वह कहते हैं कि राजा हरुहीत आज भी उन्हें किसी न किसी रूप में दर्शन देते हैं। बचीराम ने अपनी रचना में वीर, प्रेम व श्रृंगार रस के साथ हरुहीत के रौद्र रूप और कुशल योद्धा की छवि दोहा और चौपाइयों में उभारी है।
ऐसी मिली मालू शौक्याणी:
हरुहीत अपनी भाभियों की इर्ष्या व लालच को नहीं समझ सके।हरुहीत की भाभियों ने जानबूझकर शादी के लिए भोट देश (वर्तमान तिब्बत) की राजकुमारी मालू शौक्याणी का नाम सुझाया। आज्ञाकारी हरुहीत मालू से विवाह करने की चाह में भोट पहुंच गए। वहां उन्हें कई यातनाएं सहनी पड़ी, परंतु मालू से निश्छल प्रेम करने वाले और भाभियों तथा माता के आज्ञाकारी हरुहीत इन सबसे उबरने में सफल हुए। यहां तक कि दोनों के प्रेम में बाधक मालू के पिता कालू शौक को युद्ध में मार मालू को अपने राज्य में ले आए। माता तो इस कार्य से प्रसन्न हुई। मगर भाभियां हरुहीत की इस वीरता से और कुढ़ गईं। एक दिन हरुहीत की अनुपस्थिति में भाभियों ने मिलकर मालू को रामगंगा में डुबो दिया। कहा जाता है कि हरुहीत ने तुरंत न्याय करते हुए भाभियों को जिंदा जला दिया। कष्टमयी जिंदगी से परेशान इस प्रेमी के सम्मुख मातृ प्रेम उमड़ा और माता से देहत्याग की प्रार्थना की। जिसे स्वीकार कर माता ने देह त्याग दी। मां की चिता को अग्नि प्रदान कर हरुहीत खुद रानी की चिता पर बैठ गए और अपनी देह का भी त्याग कर दिया।
गोरखाराज में सल्ट नरेश:
बात 18वीं सदी के अंतिम व 19वीं सदी के प्रारंभिक काल की है। उत्तराखंड में तब गोरखों का प्रभुत्व था । पाली पछाऊं के गुजरुकोट में समर सिंह हीत का राज्य था। उनके सात पुत्र थे। राजा समर सिंह की वीरता से प्रभावित होकर गोरखा शासकों ने संधि कर ली, मगर कड़े फैसलों से परेशान प्रजा के कुलदेवता की शरण में जाने से समर सिंह की सत्ता हिल गई। सातों पुत्र एक-एक कर परलोक सिधार गए। सदमे में राजा समर भी चल बसे। तब हरुहीत मां के गर्भ में थे।

फिर किले में हुए विराजमान:
कहा जाता है कि 80 के दशक तक हरुहीत की आत्मा विरह की आग में जलकर रामगंगा तट से कुणखेत तक भटकती रही। तब इनलो गांव के घनस्याल ब्राह्मण ने तेज प्रकाशपुंज रूपी आत्मा को अपनी तांत्रिक शक्ति से साधा। कई मंदिर बनवाए गए। तब से हरुहीत की। आत्मा शांत होकर पुन: न्यायकारी बन अपने किले में विराजमान हुई।
वचनबद्धता ने बनाया न्यायप्रिय:
हरुहीत एक सामान्य राजा होते हुए भी जनमानस में न्यायप्रिय रूप में पूजे जाते हैं। वह प्रजा के प्रति समर्पित भाव से सेवा करते थे। कहा जाता है कि प्रजा प्रसन्नता पूर्वक जीवन व्यतीत करती थी।हरुहीत अपनी वचनबद्धता के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने अपनी भाभियों को हम-धम जैसे पराक्रमी भाइयों को मारकर उनकी कैद से छुड़ाकर अपना वचन पूरा किया था। वहीं, हरुहीत ने अपनी भाभियों के वचनों के अनुसार भोट जाकर मालू को जीतकर अपनी रानी बनाया था।
ऐसे जागा हरुहीत का हठयोग:
लोककथा के अनुसार एक दिन खेल-खेल में बच्चों के बीच कहासुनी हो गई। चोरी के आरोप में पकड़े गए एक व्यक्ति को जब राजा रूपी हरुहीत के दरबार में पेश किया गया तो उन्होंने सजा सुनाई। बच्चा समझ चोर ने सजा सुनाए जाने के बाद कहा कि अगर वास्तव में हरुहीत राजा हैं तो पहले अपने पैतक खेतों का न्याय करें।आखिर हरुहीत के पिता के खेतों पर कब्जा कैसे हो गया? उनके सातों भाई कैसे स्वर्गवासी होते गए? चोर की बातें सुन हरुहीत ने अपनी मां से वास्तविकता जानी और फिर वह तलवार लेकर अपने घोड़े पर सवार हो अपने खेतों को दोबारा आबाद करने निकल पड़े। तब प्रजा ने भी उनका साथ दिया और खेतों की जुताई में हाथ बंटाकर अनाज बोया गया। सारे बंजर खेत एक बार फिर से फसल से लहलहाने लगे। तब हरुहीत को प्रजा ने राजा घोषित किया, मगर इसके बावजूद उन्होंने प्रजा का धन्यवाद अदा किया। वह प्रजा की नजर में न्यायकारी कहलाने लगे ओर लोगों ने उन्हें पूरी तरह अपना राजा मान लिया।
नदी में खुलती हैं किले की सुरंगें:
राजा हरुहीत के किले की सुरंगें रामगंगा नदी के तट पर खुलती हैं। पहली सुरंग बौरढा, दूसरी हंसियाहूंगा और आखिरी तराढ में है। आज भी ये सुरंगें यहां की पहाड़ी पर मौजूद हैं।

दैनिक जागरण, नैनीताल, 10 सितम्बर 2022 से साभार
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