'

कत्यूरी शासन-काल - 04

कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल,History of Kumaun,Katyuri dynasty in kumaun,kumaon mein katyuru shasan,kumaon ka prachin itihas

कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल - 04

पं. बदरीदत्त पांडे जी के "कुमाऊँ का इतिहास" पर आधारित

वर्तमान में कुमाऊँ का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश राज से पहले कुछ वर्षों (१७९० से १८१७) तक कुमाऊँ में गोरखों का शासन रहा जिसका नेतृत्व गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने किया था और वह पश्चिम हिमाचल के कांगड़ा तक पहुँच गया था।  गोरखा राज से पहले चंद राजाओं का शासन रहा।  अब तक जो प्रमाण मिलते हैं उनके अनुसार कुमाऊं में सबसे पहले कत्यूरी शासकों का शासन माना जाता है।  पं. बदरीदत्त पांडे जी ने कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल ईसा के २५०० वर्ष पूर्व से ७०० ई. तक माना है।


६. जोशीमठ से कत्यूर आने की कहानी

पं बद्रीदत्त पांडे जी लिखते है कि अंग्रेज लेखको का अनुमान था कि कत्यूरी राजा पूर्व में जोशीमठ ( ज्योतिर्धाम ) में रहते थे और फिर उसके बाद वे वहाँ से कत्यूर में आये। जाड़ों के दिनों में उनका प्रवास ढिकुली में होता था। जहां बाद में चंद राजा भी अपने शासन काल में जाड़ों में प्रवास करते थे। कत्यूरी राजाओं ने कोटा भावर व अन्य स्थानों में अपने महल बनवाये।

ऐसा माना जाता है कि ७वीं शताब्दी तक यहाँ बुद्ध-धर्म का काफी प्रचार-प्रसार था, क्योंकि ह्युनसांग ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि "गोविषाण तथा ब्रह्मपुर (लखनपुर), दोनो में बौद्ध रहते थे और कहीं-कहीं सनातनी भी थे। इन स्थानों पर मंदिर व मठ साथ-साथ बने थे।" पर शताब्दी में श्रीशंकराचार्य के धार्मिक दिग्विजय से यहाँ बौद्ध-धर्म का धीरे धीरे ह्रास होता चला गया। नेपाल व कुमाऊँ दोनों देशों में श्रीशंकराचार्य गये और सब जगह के मन्दिरों से बुद्धमार्गी पुजारियों को निकालकर सनातनी पंडित वहाँ नियुक्त किये। बदरीनारायण, केदारनाथ व जागीश्वर के पुजारियों को भी उन्होंने ही बदला। बौद्धों के बदले दक्षिण के पंडित बुलाये गये।

पं बद्रीदत्त पांडे जी कहते हैं कि कत्यूरी राजा भी-ऐसा अनुमान है कि शंकराचार्य जी के आने के पूर्व बौद्ध थे, बाद में वे सनातनी हो गये। शंकराचार्य जी के समय वे जोशीमठ में होने बताये जाते हैं। कुमाऊँ के कत्यूर व कार्तिकेयपुर क्षेत्र में वे जोशीमठ से आये। कुमाऊँ के तमाम सूर्यवंशी ठाकुर व रजबार लोग अपने को इसी कत्यूरी खानदान का होना कहते हैं।

जोशीमठ में वासुदेव नाम का प्राचीन मंदिर है। कहा जाता है कि यह कत्युरियों के मूल-पुरुष वासुदेव का बनवाया है। इससे प्राचीन मंदिर कुमाऊँ में कोई नहीं, ऐसा कहा जाता है। कत्यूरी-सम्राट का नाम इस मंदिर में इस प्रकार खुदा है-"श्रीवासुदेव गिरिराज चक्रचूड़ामणि।" ऐसा अनुमान होता है कि यह सम्राट जोशीमठ में रहते थे। भगवान् विष्णु का एक नाम वासुदेव है। अतः अपने भगवान् से अपना नाम मिलता देख, उस मंदिर के साथ संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, प्रभृत्ति देवताओं के मंदिर भी बनवाये।

यह बात प्रायः निर्विवाद है कि कत्यूरी राजाओं का राज्य सिक्खम (सिक्किम) से काबुल तक तथा दक्षिण में बिजनौर, दिल्ली, रोहिलखंड आदि प्रान्तों में था। फिरिश्ता, कनिंघम, शेरिंग, अठकिन्सन आदि सभी इतिहास लेखकों का मत यही है।

कत्यूरी शासकों जोशीमठ से कत्यूर आने की कहानियाँ इस प्रकार हैं-
(१) राजा वासुदेव के कोई गोत्रधारी शिकार खेलने को गये थे। घर में विष्णु भगवान् नृसिंह के रूप में आये। रानी ने खुब भोजनादि से सत्कार किया। फिर वे राजा के पलंग पर लेट गये। राजा लौटकर आये और रनवास में अपने पलँग पर किसी अन्य पुरुष को पड़ा देखकर अप्रसन्न हुए। उस पर तलवार मारी, तो हाथ से दूध निकला। तब रानी से पूछा कि वे कौन हैं? रानी ने कहा कि वे कोई देवता हैं, जो बड़े परहेज़ से भोजन कर पलँग पर सो गये थे। तब राजा ने नृसिंहदेव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और अपने क़सूर के लिये दंड या शाप देने को कहा। तब उस देवता ने कहा-"मैं नृसिंह हूँ। तेरे दरबार में प्रसन्न था, तब तेरे यहाँ आया। अब तेरे अपराध का दंड तुझे इस प्रकार मिलेगा कि तू जोशीमठ से कत्यूर को चला जा और वहाँ तेरी राजधानी होगी। याद रख, यह घाव मेरी मंदिर की मूर्ति में भी दिखाई देगा। जब यह मूर्ति टूट जायगी. तब तेरा वश भी नष्ट हो जायगा।” ऐसा कहकर नृसिंह अन्तर्धान हो गये।

(२) दूसरी कहानी इस प्रकार है कि स्वामी शंकराचार्य कत्यूरी रानी के पास उस समय आये, जबकि राजा वासुदेव विष्णु प्रयाग में स्नान करने गये थे। इन कहानियों से यह साफ है कि यदि कत्यूरी राजा गढ़वाल से कुमाऊँ को आये, तो कोई धार्मिक कलह उपस्थित हुआ होगा, जिससे राजा वासुदेव व उनके कुटुम्बी जोशीमठ से कार्तिकेयपुर आने को बाध्य हुए।

७. कार्तिकेयपुर

गढ़वाल से चलकर कहते हैं कि कत्यूरी राजाओं ने गोमती नदी के किनारे बैजनाथ गाँव के पास महादेव के पुत्र स्वामी कार्तिकेय के नाम से कार्तिकेयपुर बसाया। उस जगह का नाम पहले करबीरपुर था। उसके खंडहर भी उनको मिले। उन्होंने अपने इष्टदेव स्वामी कार्तिकेय का मंदिर भी वहाँ बनवाया। वहाँ नौले (बावरियाँ), तालाब व हाट (बाज़ार) बनवाये तैलीहाट व सेलीहाट में दो बाज़ार थे। कत्यूरी प्रांत से कत्यूरी खानदान चला या कत्यूरी राजाओं ने उस घाटी का नाम कत्यूर रक्खा, इस पर मतभेद है।

अस्कोटवाले तो कहते हैं कि अयोध्या से सूर्यबंशी राजा आये और वे कत्यूर में बसे। उसके बाद वे वहाँ से सर्वत्र फैले, इसी से यह खानदान कत्यूरी कहलाया। पर अठकिन्सन साहब कहते हैं कि यह कत्यूर खानदानवाले काबुल व काश्मीर के नृपति तुरुक्ष खानदान में से थे और ये राजपूत कटूरी या कटौर कहलाते थे। काश्मीर के तीसरे तुरुक्ष खानदान के राजा का नाम भी देवपुत्र वासुदेव था। वासुदेव के पुत्र कनकदेव काबुल में अपने मंत्री कलर द्वारा मारे गये। उसी खानदान से अठकिन्सन साहब इनका मिलान करते हैं कि वे दोनों एक ही हैं, पर भारतवर्ष के लोग इन बातों पर सहसा विश्वास न करेंगे। अठकिन्सन साहब कहते हैं कि काश्मीर के कटूरी राजाओं ने ही कत्यूर घाटी का नाम अपने वंश से चलाया। अठकिन्सन साहब से यह कोई कह सकता है कि जोशीमठ में इन्होंने कत्यूर या कटौर नाम का राज्य क्यों न चलाया? कत्यूर आने में ही ऐसा क्यों किया। क्योंकि उनके लेखानुसार वे तो पहले जोशीमठ में रहते थे, बाद को कत्यूर में आये।

श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे, अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com, वेबसाइट - www.almorabookdepot.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ