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बातें पहाड की - ब्या-बर्यात की व्यवस्था 01

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पहाड की शादी में ब्या-बर्यात की व्यवस्था-01

लेखक: विनोद पन्त 'खन्तोली'

समय परिवर्तशील है, हमारे रीति रिवाज खान पान पहनावा आदि सब पर परिवर्तन का असर देखने को मिलता है।  जरूरी नही कि हर परिवर्तन गलत हो, समय के साथ तो चलना ही पडता है।  कुछ परम्पराऐ और रीति रिवाज बहुत शानदार भी होते हैं उनका बगल जाना कभी कभी कष्टदायक भी होता है।  जिसने वो चीजें देखी हों उनको जिया हो उनके लिए बदलावों का आना कुछ समय के लिए ही सही पर असहज तो हो ही जाता है।

हमारे कुमाऊं में विवाह जिन परमम्पराओ और रीति रिवाजों के साथ किया जाता रहा है वो सब अपने आप में एक महत्व रखते थे।  समय आज की तरह तेज नही था, संचार के साधन कम थे तो शादी तय करने के लिए लोग एक दूसरे गांव भी जाते थे।   वहां जाकर पूछा जाता कि यहा कोई अच्छी लडकी है तो बताओ और कुछ बिवाह ऐसे भी हो जाया करते थे। किसी के घर पर शादी उस अकेले परिवार की न होकर गांव में सभी की होती।  मकान में रंग-चुन लगाना (पुताई) हो या चावल साफ करने, बर आचार्य के चौख बनाने हो या ब्योलि के रंगाई पिछौडा को रग्यांना या बारात वाले घर में ऐपण देने द्वार मोव लिखने, धान कूटने या जतार में गेहूं पीसने।  ये सब काम तो गांव वाले आकर कर जाते जो जिस काम में निपुण हो वो अपना समझकर काम कर जाता।  जब शादी तय होती तभी पूरे गांव को खबर हो जाती, कब का लगन निकला है ये तय होते ही सबकी जिम्मेवारियों का निर्वहन तय हो जाता।  

लोग बधाई देते तो उनसे कह दिया जाता, जदिन लाकाड फाडै होलि ऐ जाया, हां   तु पुरि पकालै हां, तु उदिन रिस्यो पकालै हां, तू अचार बडालै हां, अल्लै बटी कयी भोय हां....।  सामने वाला जवाब देता- होय होय तुम ताल पेटक पाणि नि हिलाओ, सब हैजाल।  नियत समय पर सब याद रखते और पहुंच जाते, लोग तो अपने आप काम पूछने भी जाते।  जिसको शहर की जानकारी होती उसको ले जाकर एक दिन शहर का सामान मगवा लिया जाता।  बांकी सामान गांव के आसपास के बाजारों से खरीद लेते।

ऐसे ही बरपन्द (जनेऊ) नामकरण, कथा पार्थि पुज वगैरर कार्यक्रमों में भी सभी का सहयोग रहता।  किसी भी कामकाज के लिए दूध-दही आदि गांव के लोग इकठ्ठा कर देते।  जिन दिन कामकाज हो उस दिन जिस जिस के घर में धिनाली हुई, सभी अपनी सामर्थानुसार दूध या दही लेकर पहुंच जाते।  एक गिलास, एक लोटा जितना हो उतना सही, कभी दही के लिए किसी अपने खास परिचित परिवार को कह दिया जाता कि- अरे द्वि तीन दिन क दूध जाम करिबेर दै बणै दिया।  इसके लिए अपनी ठेकी उसके यहां रखवा दी जाती और उसी में दही बन जाता।

रसोई में अचार बनाने वाले रैत बनाने वाले खुद जिम्मेवारी सभालते।  महिलाऐ बारी बारी से आकर पूडिया बेल जाती, आटा गूंथ देती, आगन में चौकी बना देती, ऐपण डाल देती, लाड-सुआल बनाना, समधी समधन (गुडिया ) बनाना।  तब शायद ये भी आटे से बनते थे और तो और घर आये मेहमान तक काम में हाथ बंटाते।   महिलाओ के जिम्मे अन्दर के काम भी रहते, किसका श्रृगार, किसका बनना संवरना, सब बेचारी काम मे लगी रहती।  किसी ने टोक दिया कि नयी धोती क्यों नही पहनी तो मजाक में कहती- दै हाय को न पछ्यांणनय हमन।  फिर धीमी आवाज में कहती- कैकें हैरौ सबुत, यदुक काम हैरौ।  उनको तो अपने घर का भी देखना हुवा, बनाव-श्रृगार में रहें तो हो गया बेचारियों का कारबार।

एक दूसरे के घर से तौली परात, कुन, धांझर, डाडू पन्यूला, रसोई के लिए तिरपाल आ जाते।  ये सामूहिक काम सिर्फ बडे ही नही वरन युवा और किशोर ऊी करते उनके जिम्मे होता।  चांदनी लगाना, पताका (झन्डी) चिपकाना, केले के पत्तों पेडों से गेट बनाना, लाल कपडे पर रुई से स्वागतम का बोर्ड बनाना, गैस(पेट्रोमैक्स ) का इन्तजाम करना,  जलाना, बारात का स्वागत करना उनका चाय पानी नाश्ता करवाना।  नाश्ते में एक बाल, एक लड्डू थोडी नमकीन और चाय होती।  बारात को ग्यस की रोशनी में सकुशल ब्योली के घर तक पहुंचाना, बारात को खिलाने में सहयोग करना, नौले धारे से कन्टर में पानी सारना, बरेतियों के खाने के लिए पत्तल लगाना, खा चुकने के बाद पत्तल हटाना, थाली के जमाने में भान कुन माजना और कन्यादान या मानुमुणि के बाद बरेतियों को चाय पिलाना।  सुबह बारात विदा होने से पहले बरेतियों को चाय पानी आलू के गुटके देना, ब्योलि को अपने गांव की सीमा तक खुद डोली में छोडना फिर वापस आकर बारात वाले घर में समाव करना, लोगों की चीजों को वापस पहुंचाना।

अगर देखा जाय तो एक बर्यात या काम काज निभाने में युवाओ और किशोरों का महत्वपूर्ण योगदान रहता था।  जब बर्तन या अन्य सामान वापस पहुंचाना होता तो ये काम भी लोडे मोडे बखूबी निभाते।  कौन सामान किसका, दरी किसकी है, ड्रम किसका है, बर्तन किसके, उनको सब रटा रहता।  सब सामान यथेचित घर में पहुच जाता. बुजुर्ग महिलाओ का काम कर्म के गीत गाना होता ब्वारियों चेलियों का काम ऐपण देना, बन्ना बन्नी के गीत गाना और ब्योलि का मेकअप करना होता था।  और हां लडकी की शादी पर मैने गांव वालों को बाट घाट् सुधारते, रास्ते के कान् काटते हुए भी देखा है।  धारणा ये रहती कि दुसर गौं बटी बर्यात उणै, मैंस कि कौल, बरेति नाम धराल, मतलब गांव की इज्जत का पूरा खयाल रहता।

ये सब काम निस्वार्थ भाव से होते, तब न टैन्ट हाउस चलन में था, न मजदूरी पर कोई काम होते..।  काम शुरु होने से पहले जब निमन्त्रण दिया जाता तो साथ में कहते- ऐ बेर निभै जाया हां।  काम होने के बाद कहा जाता- तुम सबनैलि निभै दे नतर हम कि करना और जाते समय एक अंगुली पिठ्या और गोले का टुकडा  लेकर लोग विदा लेते, ना कोई एहसान ना नाराजगी..।


विनोद पन्त' खन्तोली ' (हरिद्वार), 08-09-2021
विनोद पंत 'खन्तोली' जी के  फ़ेसबुक वॉल से साभार
फोटो सोर्स: गूगल

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