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बातें पहाड़ की - धिनाली

कुमाऊँनी भाषा में धिनाली से तात्पर्य घर में दुग्ध उत्पाद की उपलब्धता, cattle and availability of milk products at home

बातें पहाड़ की - धिनाली


लेखक: विनोद पन्त 'खन्तोली'

धिनाली कुमाउनी का एक शब्द है जिसका सामान्य मतलब होता है- दूध दही घी मठ्ठा मक्खन आदि।  यानि दूध और दूध से बने पदार्थ या डेयरी उत्पाद।  पर पहाड के सन्दर्भ में यह शब्द बहुत व्यापकता लिये हुए है   डेयरी उत्पाद के अलावा इसमें किसान या गोपालक का पशुधन भी समाहित हो जाता है।  सामान्य बोलचाल में कुशलक्षेम पूछनी हो तो कहा जाता है- भलि छै कुशल? धौ-धिनालि कि छ?(कुशल से हो, धिनाली क्या है?)

आप उपरोक्त पक्तियों पर गौर करेंगे तो धिनाली की महत्ता कुमाउनी समाज में कितनी है।  सामान्य तौर पर कहा कुशल क्षेम पूछने के लिए बाल बच्चों की खबर पूछी जाती है।  पर हमारे यहां धिनाली को बाल बच्चों पर भी वरीयता मिली है।  पहाड के पत्रों में एक लाइन धिनाली का समाचार भी होती थी।  धिनाली क्या है, आजकल या कुछ लोग लिखते थे गाय ब्या गयी है या फलां महिने ब्याने वाली है।

ये प्रमुखता ऐसे ही नहीं मिली है इसके पीछे कारण रहा है पहाड की खेती।  दरअसल पहाड की खेती पूरी तरह से आर्गेनिक होती थी।  खाद सिर्फ और सिर्फ गोबर की ही प्रयोग की जाती रही है।  जितनी अधिक खेती यानि खेत होंगे उतना ज्यादा खाद की जरूरत होगी जिसकी पूर्ति पशुओ से ही होगी और यही बात पशुपालन पर भी लागू होती है।  पशुओं के लिए चारा या अनाज खेत से ही आएगा तो पहाड का सीधा सा हिसाब किताब रहा है खेती पाती और धिनाली एक दूसरे के पर्याय या पूरक रहे हैं।  एक चीज भी गडबडा गयी तो दूसरे पर सीधा फर्क पड़ेगा।

पहाड के समाज में सामूहिकता का एक उदाहरण यह भी है कि किसी परिवार के पास गाय भैंस कम रह गयी खाद कम हो रही है तो जिसके यहां गाय भैंस ज्यादा हों उसके गोठ में गोबर तैयार किया जाता है।  महिलाऐ जंगल से सुतर (ची्ड़ की सूखी पत्तियां/पीरुल या बुरास वगैरह की हरी पत्तिया काटकर उन्हें गिन्याठ से काटकर) लेकर आऐंगी और किसी परिचित के गोठ में गाय भैसों के गोठ में जानवरो के दौंण में डालकर आ जाऐंगी।

अगली सुबह या दोपहर गोबर समेत उस सुतर को निकालकर ले जाऐगी और अपने घर या खेत में गोबर का ढेर जमा करती रहेगी।  वहां नया सुतर डाल दिया जाऐगा।  गोबर के ढेर को पोर्स या मोव का खाद कहते हैं।  जिस पर गोबर और सुतर मिक्स होकर सडकर खाद बन जाता है।  ये दूसरे के गोठ में गोबर बनाने की परम्परा शायद ही पहाड के अलावा कहीं रही हो।  इससे दोनो पक्षों को फायदा है, एक को फ्री सुतर और जानवरों के गोठ की सफाई मिल गयी दूसरे को फ्री की खाद।

पहाड में जैसे कृषि कार्य महिलाऐं ही करती थी उसी तरह पशुपालन भी उन्ही के जिम्मे होता था।  तो धिनाली पर भी उन्ही का अधिकार रहा है।  किसी को दूध दही लेना हो तो पुरुष ने न मांगकर गृहणी से ही पूछा जाता था।  धिनाली की बडी इज्जत की जाती थी।  दूध दही यदि खराब हो जाय उसे फैंकने की नौबत आ जाय तो उसे ऐसे ही फैंका जाता था जैसे पूजा के अवशेष . निर्मैल  डाला जाता था - यकें यसि जाग डालि आये जां नंग्यूंण नि हो।  अर्थात जहां लांघने की जगह न हो या सिसूंण के भूडे में डाल देना हुवा।

गाय या भैस ब्याने का इन्तजार सभी को रहता था, पूछा जाता  था कि - गोरु कब ब्याणि छ?  गाय और भैंस अधिकतर पहाडी नस्ल की ही होती थी।  चारा घास पत्ती का था तो इनकी धिनाली का स्वाद भी बिलकुल अलग होता था।  घास के साथ कुछ पेड पौधे की कोमल पत्तियां भी चारे में प्रयोग होती थी।  जैसे - बांज , फयांठ , भेकुवा , खडीक , बेडू आदि।  

गाय भैसों को इसके अलावा भट्ट पीसकर और दौ बनाकर भी खिलाते थे।  दौ गाय भैसों का ऐसा पकवान है जिसे घर के बचे खाद्य पदार्थ चावल का भूसा कुछ अनाज मिलाकर पकाया जाता था।  जो कि ब्याई हुई गाय भैंस के लिए बनता था   इसके अलावा भंगीरा, और गुर्ज भी पीसकर खिलाया जाता था जो दवाई की तरह होता था।  भट्ट पिसा हुवा तो गायों के पेट की गरनी की उत्तम दवाई होती थी।  पहाड की धिनाली का एक अलग की स्वाद है।

पहाड की धिनाली का स्वादिष्ठ होने का एक कारण यहां की बनस्पतियां भी हैं।  भेकुवा एक ऐसा ही पेड है जिसकी पत्तिया खिलाने से जानवर का दही लाजवाब बनता है।  पहाड की बाल मिठाई एवं सिगौडी तभी तक बेहतरीन रही है जब तक वो पहाडी मावे यानि कुन्द की बनती थी।  शुद्ध पहाडी घी तो औषधि का काम भी करता है।  यहां तक भी पुराना घी भी काम आता है।

गाय ब्याने पर शुरुआत में पूरे गांव पडौस को बिगौत ( खीस ) खिलाते थे।  इसके लिए बाकायदा कहा जाता था कि बिगौत खै जाया हां!  घर के बिलकुल अन्दर बैठाकर बिगौत खिलाया जाता और बाहर जाते वक्त मुंह पोछकर जाना होता था।  ये इसलिए ताकि नजर न लगे।  बिगोत के बाद मठ्ठा पिलाने की परम्परा थी।  फिर जौला बनता और लोगों को जौला (मठ्ठे में चावल पकाकर) खिलाया जाता था।  जौले में नमक नही डालते थे   धनिये और मिर्च का नमक अलग से मिलता था।  जिसे मिलाकर खाते थे स्वाद की तो पूछिये मत।

फिर अपनी अपनी परम्परानुसार ग्यारहवे और बाईसवे दिन अपने कुल देवता ईष्ट देवता ग्राम देवताओ को दूध चढाया जाता था।  ग्यारहवे दिन पहाड में बौधाँण पूजा का भी रिवाज है।  गाय बांधने वाले खूंटे जिसे किल कहा जाता है पर पूजा की जाती है।  नये बछडे या बछिया का नामकरण किया जाता है।  गृहणिया खीर आदि बनाती हैं।  बौधाण एक लोकदेवता हैं जो पशुओ के रक्षक माने जाते हैं।  गाय का किल ही इनका स्थान माना जाता है वहीं पर पूजा होती है।

जब कोई अपनी गाय भैंस बेचता है तो गाय के दाम के साथ किल का दाम भी लिया जाता है।  ये एक प्रकार की भेंट होती है।  गाय बेचने पर अपनी वह रस्सी जिसे गयूं कहा जाता है वह नही दी जाती है।   खरीदने वाला अपनी रस्सी लेकर आता है।  धारणा यह है कि अपनी गाय का स्थान या खूंटी (किल) रिक्त न हो।

वैसे तो कुमाऊँ में ईष्टदेव को दूध बाईसवें दिन चढता है पर हमारे गांव में धौलीनाग देवता को ग्यारहवे तेरहवे पन्द्रहवे दिन चढा देते हैं।  फिर बाईसवें दिन लोकदेवता छुरमल को दूध चढाते हैं।  इसके लिए गृहणिंयां सुबह उठकर नहा धोकर दूध निकालती हैं।  पहले से जमाई हुई दही से मठ्ठा और मक्खन तैयार होता और चल पडते मन्दिर में भोग लगाने।  

ये जो मख्खन (नौणि) लेकर जाते उसे भगवान के मूर्ति (अधिकांश लिंग रूप में या पत्थर) में पोत दिया जाता था ये मख्खन लिंगचू कहलाता था। जिसे बाद में बच्चों के सिर पर भी मला जाता था।  धारणा थी कि इससे बच्चों बी बुद्धि बढती है।  जब तक देवताओ को दूध न चढे तब तक धिनाली प्रयोग में नही लाते थे।  बिगौत और लैण की छां या लैंण का जौला खिलाने के अलावा जिन देवताओ को दूध चढता है उसमें छुरमल, नौल्लि  वगैरह प्रमुख हैं।  ये स्थान स्थान पर अलग हो सकते हैं।

पहाडों में कुछ लोकदेवता तो पशुधन यानि धिनाली से ही जुडे हैं।  कुछ को गाय भैसों का रक्षक माना जाता है।  धिनाली पहाड में सम्पन्नता का प्रतीक भी है।  कहा जाता था कि - अरे सम्पन्न परिवार भै, दस थान (गिनती) तो गोरु बाछै छन, द्वि भैंस छन, इदुक बाकार छन।

पहाडी समाज में धिनाली को पर्दे में ही रखा जाता है।  जब गृहणी दूध निकालकर लाऐगी तो आँचल से ढककर भीतर लाऐंगे।  भीतर भी सबसे पीछे के कमरे में एक काठ के बक्से में रखा जाऐगा जिसे ढन्ड्याव कहते थे।  ढन्ड्याव में चूंकि धिनाली रखते हैं इसलिए इसे भी पवित्र चीज माना जाता है।  इसी में सारी धिनाली रखी जाती थी।  

दही जमाने के लिए लकडी की ठेकी और मठ्ठा छांछ बनावे के लिए लकडी का ही बर्तन जिसे नई कहते थे होता था।  जिसमें बिलोने का का लकडी का रौल होता था।(ये नाम कुमाऊ के विभिन्न हिस्सों में अलग अलग हो सकते हैं) छांछ बनाने का स्थान भी नियत होता था।  जहां लकजी का एक खम्भा जैसा होता था जिसे थुमी कहते हैं।  ये थुमी भी एक पवित्र स्थान होता है जहां पर ऐपण दिये जाते थे।

गोबर्धन पूजा के दिन यहीं पर पूजा भी होती थी।  यहां पर लछिम नरैंण बनाये जाते थे ऐपण डालकर।   पहाड में मठ्ठा बनाना जिसे छां फांनण कहते हैं विशेष योग्यता व जानकारी की जरूरत होती है कि किस मौसम में कैसे बनायी जाय!  तब गरम पानी डलेगा कब ठन्डा!   जो सफेद मख्खन निकलता है वो मडवे की रोटी के साथ खाया जाय तो उससे स्वादिष्ट दुनिया में कुछ नहीं।

धिनाली के साथ कुछ रीति रिवाज पहाड के लोकजीवन में जुडे हैं।  ये आज के युग में लोगों को दकियानूसी बाते लगें पर वहां पर तो ये परम्पराऐ चली आ रही हैं।  धिनाली का बर्तन खाली नही रखा जाता।  यदि आप किसी को लोटे ठेकी में दूध दही दें, तो हडपी (घी रखने का काठ का बर्तन) में घी दो तो वह बर्तन लौटाते समय उसमें कुछ डालकर ही वापस करेगा।  कुछ नही तो पानी डालकर तब भी देगा।  धिनाली को बुरी नजर से बचाने का बडा यत्न किया जाता है।  नातक-सूतक (परिवार में जन्म-मृत्यु) के दिनों इसका प्रयोग नही किया जाता ताकि धिनाली अपवित्र न हो।

वैसे तो हर हिन्दू परम्पराओ में धिनाली का महत्व है फिर पहाडों में तो हर काम में इसका महत्वपूर्ण उपयोग किया जाता है।  पंचामृत, पंचगब्य बनाना हो, देवताओ का भोग तैयार करना हो या देवताओ को विशेष स्नान कराना हो, हवन यज्ञ हो।  पहाडों में जडी बूटियों से धूप बनाने में भी घी प्रयोग होता है।  धिनाली का ही हर जगह प्रयोग होता है।  गाय के गोबर से लिपाई तो हर घर में होती थी।  लाल मिट्टी में गोबर मिलाये बिना लीपना अच्छा नही माना जाता था।  पहाड के पुराने मकानो का गारा भी गोबर मिट्टी का ही होता था।

पहाडो में कोई परिवार तब तक सम्पूर्ण नही माना जाता था जब तक गोठ में गाय भैंस न हो।  एक कहावत तो बहुत प्रसिद्ध है - जो गोठ गौ, उ भीतर मौ(जिसके गोठ में गाय उसी के घर में परिवार)।  धिनाली पहाड में आर्थिकी का भी एक प्रमुख स्त्रोत रहा है।  कुछ लोग तो थोडा दूध दही घी बेचकर अपनी दर गुजर करते आये हैं।  आज इस धिनाली को ब्यावसायिक स्तर पर करके पहाडी किसान न केवल अपनी आर्थिक स्थिति सुधार सकते है वरन इसके सहारे हमारी पहाडी सस्कृति को भी बचा सकते हैं।

(फोटो साभार - गूगल)
विनोद पन्त' खन्तोली ' (हरिद्वार), 29-12-2021, M-9411371839

विनोद पंत 'खन्तोली'जी के फ़ेसबुक वॉलसे साभार

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