
जनकवि श्री गिरीश तिवारी "गिर्दा" का बागश्यरौक गीत
सरजू-गुमती संगम में गंगजली उठूँलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, 'भुलु' उत्तराखण्ड ल्हयूँलो।
उतरैणिक कौतीक हिटो, वै फैसला करुँलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूंलो, 'बैणी' उत्तराखण्ड ल्हयूंलो।
बडी महिमा बागस्यरै की, के दिनूँ सबूत,
ऐलघातै उतरैणि आब यो अलख जगूँलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, 'भुलु' उत्तराखण्ड ल्हयूँलो।
धन-मयेड़ी छाति उनरी, धन त्यारा उँ लाल,
बलिदानै की जोत जगै, ढोलि गै जो उज्याल,
खटीमा, मंसुरि, मुजफ्फरनगर कैं हम के भुली जुँलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, 'चेली' उत्तराखण्ड ल्हयूँलो।
कस होलो उत्तराखण्ड, कस हमारा नेता,
कस ह्वाला पधान गौं का, कसि होली ब्यवस्था।
जडि़-कंजडि़ उखेलि भली कैं, पुरि बहस करुँलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, वि कैं मनकसो बणुलो।
बैंणी फाँसी उमर, नि माजैलि दिलिपना कढ़ाई,
रम, रैफल, ल्येफ्ट-रैट, कसि हुँछौ बतूँलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, 'ज्वानो' उत्तराखण्ड ल्हयूँलो।
मैंसन हूँ घर-कुडि़ हौ, भैंसन हूँ खाल,
गोरु-बाछन हूँ गोचर ही, चाड़-प्वाथन हूँ डाल।
धूर-जंगव फूलो फलो, यस मुलुक बैंणूलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, 'परु' उत्तराखण्ड ल्हयूँलो।
पांणिक जागि पांणि एजौ, बल्फ में उज्याल,
दुख बिमारी में मिली जौ, दवाई-अस्पताल।
सबनै हूँ बराबरी हो, उस नै है बतूँलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, विकैं मनकस बणुलो।
सांच न मराल् झुरी-झुरी, जाँ झुट नि डौंरी पाला,
सि, लाकश़ बजरी चोर, जौं नि फाँरी पाला।
जै दिन जांलै यस नी है, जो हम लड़ते रुंलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, विकैं मनकस बणुलो।
लुछालुछ कछेरि मे, नि हौ ब्लौकन में लूट,
मरी भैंसा का कान काटि, खाँणकि न हौ छूट।
कुकरी-गासैकि नियम नि हौ, यस पनत कँरुलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, विकैं मनकस बणुलो।
जात-पात नान्-ठुल, को नी होलो सवाल,
सबै उत्तराखण्डी भया, हिमाला का लाल।
ये धरती सबै की छू, सबै यती रुँलो-
उत्तराखण्ड ल्हयूँलो, विकैं मनकस बणुलो।
आज उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद गिर्दा की आदर्श राज्य की सारी परिकल्पनाएं जो उन्होंने इस गीत में रेखांकित की थी, एक मजाक बन कर रह गयीं हैं।
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