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कुमाऊंनी कॉलम- बने बने काफल किल्मौड़ो छे

लेखक: अशोक पांडे

बने बने काफल किल्मौड़ो छे, 
बाड़ामुणी कोमल काकड़ो छगोठन में 
गोरू लैण बाखड़ो छ, 
थातिन में उत्तम उप्राड़ो छ
यौ कविता छू गुमानी ज्यूकि। आज मैं आपूं कैं कुमाउनी भाषक सब्बूं है ठुल मानी जाणी कवि गुमानी ज्यूक बार में बतूंल। कोई कोई तो उनूकैं कुमाउनीक आदि कवि लै कूँ। उनर जनम १७९१ सन में गंगोलीहाटक नजीक उप्राड़ा गौं में देवनिधि पन्त ज्यूक घर हौ। उनरि इजक नाम छी देवमंजरी। गुमानी उपनाम थैं उनूंल कविता लेखीं। उसि उनर असली नाम लोकरत्न धरी गो छी। उनर परिवारैक कुल परम्परा छी पंडित-वृत्ति और वैद्यकी। उनर जजमान कुमाऊं है अघिल नेपाल, गढवाल और तिरहुत जांलै फैली हाय।

गुमानी ज्यू संस्कृत भाषाक भौत्ते ठुल विद्वान् मानी जांछी। अपुण जिन्दगी में उनूंल करीब बीस किताब लेखीं जो संस्कृतक अलावा नेपाली और कुमाउनी में क छीं। उनूंल अपणी कविता में देशकालक भौत्ते जीवंत बखान करौ। उनरि कविता कैं समग्र पढ़ि बेर पत्त लागूं कि उ एक सच्च देशभक्त लै छीं। उनूल देशभक्ति वालि कविता जादे हिन्दी में लेखी लेकिन अपणी दुदबोलि मतलब मातृभाषा में उनूल यौ कुमाऊ देसक एक-एक चीजक बार में ख़ूब हौस लिबेर लेखौ।

कुमाउनी में लै यतुक मिठी भाषा लेखी जै सकें यौ बात कर बेर बतूणी वाल गुमानीज्यू पैल मैंस छी। हिसालूक लिजी लेखी उनरि एक कविता पढ़ बै समझी जै सकूं:

छनाई छन मेवा रत्न सगला पर्वतन में,
हिसालू का तोफा छन बहुत तोफा जनन में,
पहर चौथा ठंडा बखत जनरो स्वाद लिण में,
अहो, मैं समजुंछ अमृत लग वस्तु क्या हुनलो।

गुमानी ज्यू कैं सब लोग उनरि काफलक कविता लिजी लै याद करनी जिमें ऊं काफलोंकि वाणी में कूणी – खाणा लायक इंद्र का हम छियां भूलोक आई पड़ा।

बताई जां कि एक फ्यार उनर वां अकाव पडौ। अकाव जसि विषम परिस्थिति में लै उनरि कविता ज्यूनी रै। यस मुस्किल बखत में उनूंल पैली अपण गौंक भाल बखातक बार में चार पंक्ति कईं:

केला निम्बु अखोड़ दाड़िम रिखू नारिंग आदो दही,
खासो भात जमालि को कल्कलो भूना गेडीरी गबा,
च्यूड़ा सद्य उत्योल दूद बाकलो घ्यू गाय को दाणे दार,
कहानी सुन्दर मौणियां धपडुआ गंगावली रौणियां।

और वीक बाद चार कईं अकालक बार में। जरा देखिया धैं -

आटा का अणचालिया खशखशा रोटा बड़ा, 
बाकलाफानो भट्ट गुरूंस और गहत को डुबका,
बिना लूण काकालो शाक जीनो बिना भुटण को पिंडालू का, 
नौल कोज्यों त्यों पेट भरी अकाल काटनी गंगावली रौणियां।

आज जब हमारि अघिल पीढ़ी कैं ठुल नगर-महानगरैक संस्कृति लुभूण भैट रै और पुराण लोग लै आपणी परम्पराऊं कैं भुलण लाग गेयीं, हमन कैं चैं कि हम आपण इतिहास में जै बेर अपुण द्याप्त जस कवि-लेखकूंकि पछ्याण करों और जतु लै संभव हो आपणी थाती कैं बचे बेर धरूं।

जब हम आपणी संस्कृतिक फाम नि करन तो समज ज्यो गोर्खाली राज दूर नि राइ जा जान जैक बार में गुमानी ज्यू कूंछी –

दिन-दिन को खजाना का भार बोकनलि,
शिव शिव चुली मेंका बाल नै एक केका,
तदपि मूलक तेरो छोड़ि नै कोई भाजा,
इति वदति गुमानी धन्य गोर्खाली राजा।


(अघिल हफ्त गुमानी ज्यूक बार में और बतूंल)

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