

🔥कुमाऊनी लोकसंस्कृति को पहचान दी🔥
🌲🌳 लोकगायक हीरा सिंह राणा जी ने🌳🌲
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🌻🌷हीरा सिंह राणा जी की जन्मजयंती पर🌷🌻
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🌻🌷हीरा सिंह राणा जी की जन्मजयंती पर🌷🌻
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त्यर पहाड़ म्यर पहाड़,रौय दुखोंक ड्योर पहाड़।
बुजुर्गो ले जोड़ पहाड़,राजनीति ले तोड़ पहाड़।।
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अत्यंत हर्ष का विषय है कि आज सायं पर्वतीय समाज द्वारा कुमाऊं स्क्वायर,वेस्ट विनोद नगर में उत्तराखंड के जाने माने जनकवि व लोक गायक हीरा सिंह राणा जी का 77वां जन्म दिवस 'लोक संस्कृति सम्मान दिवस' के रूप में मनाया जा रहा है। कुमाऊं की लोक संस्कृति को समर्पित इस गीतकार ने अपने द्वारा रचे और स्वर दिए मर्मस्पर्शी गीतों के द्वारा उत्तराखंड की संस्कृति के उत्थान के लिए जो महनीय योगदान दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।उत्तराखण्ड के प्रमुख गायक कलाकारों में हीरा सिंह राणा जी का नाम सर्वोपरि है। लोग प्यार से उन्हें 'हिरदा कुमाऊनी' भी कहते हैं।

हीरा सिंह राणा जी का जन्म मानिला की डानी ग्राम डढ़ोली, जिला अल्मोड़ा उत्तराखण्ड में हुआ। उनकी माताजी का नाम नारंगी देवी और पिताजी का नाम मोहन सिंह राणा था। राणा जी ने कुमाउनी संगीत को लोकप्रिय बनाने और उसे गम्भीर साहित्यिक स्वर देने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। राणा ने एेसे गाने बनाए जो हृदय की गहराइयों को छूने वाले होते हैं।उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति हो या तीज त्योहार, देशभक्ति हो या जन-जन की सामाजिक पीड़ा,संघर्षों और पहाड़ की विभीषिकाओं को झेलती नारी की व्यथाकथा, पर्वतीय जनजीवन के हर पहलू पर हीरा सिंह राणा ने अपनी लेखनी चलाई और जन मानस की भावनाओं को बहुत ही गहराई से छूआ है।
लोक गायक हीरा सिंह राणा जी के एमपी 3 में गाए कुछ सदाबहार बेमिसाल गाने जो आज भी हर दिल को छू जाते हैं, उनमें 'मेरी मानिल डानी', 'आ ली ली बाकरी' 'नोली पराणा' आदि गीत उल्लेखनीय हैं। दिल्ली में हमारी संस्था 'पर्वतीय सांस्कृतिक मंडल', नेहरू विहार में होली आदि सांस्कृतिक पर्वों पर हीरा सिंह राणा के गीतों को सामूहिक रूप से जब तक नहीं गाया जाता तब तक लोकसंगीत का यह कार्यक्रम अधूरा ही माना जाता है। यह बताता है कि उत्तराखंड के समाज में उनकी कितनी लोकप्रियता है।


दरअसल,"रंगीली बिंदी घागरी काई, हाई हाई रे मिजाता।।" जैसे उनके श्रृंगारपरक रंगीले गीतों की खूबसूरती उत्तराखंड के सौन्दर्यपरक चेतना को जितनी संजीदगी से मधुरमय स्वर प्रदान करते हैं, उसकी बात ही कुछ निराली है-
"नौ पाटै घागरी पारा रेशमियां चैना।
हाई हाई रे मिजाता, हाई हाई रे मिजाता।
रंगीली बिंदी घागरी काई, हाई हाई रे मिजाता।।"
हमारे पर्वतीय सांस्कृतिक मंडल के उभरते कलाकार शम्भूदत्त रिखाड़ी जी हीरा सिंह राणा जी के "म्यरि मानिलै डानी मैं त्येरि बलाई ल्योंला।" गीत इतनी आत्मीयता और तन्मयता से गाते हैं कि देवभूमि पहाड़ का आध्यात्मिक सौंदर्य आंखों के सामने झूमने सा लगता है। जब भी देश-प्रदेश में राणा जी के गीतों को सामूहिक रूप से गाया या सुना जाता है, जन्मभूमि पहाड़ की आत्मीयता और अस्मिता,उसका नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य और मानवीय मूल्यों के नैतिक आदर्श एक साथ हिलोरें मारने लगते हैं। इसलिए मेरा मानना तो है कि हीरा सिंह राणा महज एक लोक गायक नहीं बल्कि युग चेतना के मर्मस्पर्शी चितेरे कलाकार भी हैं। हीरा सिंह राणा के गीतों में पर्वतीय जनमानस के सरोकार भी बहुत संजीदगी से अभिव्यक्त हुए हैं।उत्तराखंड राज्य का गठन जिन खुशहाली के सपनों को पूरा करने के लिए किया गया था वे सपने अब तक अधूरे ही रहे हैं। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यहां पलायन सबसे ज्यादा हुआ है। उसका एक मुख्य कारण है राज्य सरकारों द्वारा जल,जमीन से जुड़े कृषि के संसाधनों के प्रति घोर उपेक्षा भाव रखना। लोक कवि हीरासिंह राणा ने पहाड़ के पलायन की इस जनपीड़ा को बयां करते हुए कहा है-
“कैकणी सुणानू पहाड़ै डाड़,
काट्यी ग्यीं जंगल सुकिगे गाड़।
सब्ब ज्वान नान् यां बटि न्है गई टाड़।।
क्वे सुणों पहाड़कि दुःखों कहाणी,
जै शिव शंकर जै हो भवानी॥”
प्रारम्भ से ही हिरदा की कविताओं में जहां एक ओर प्रकृति की गोद में रची बसी पहाड़ की सुषमा हिलोरे मारती नज़र आती है तो वहीं दूसरी ओर पहाड़ को भेदने, उससे स्वार्थसिद्ध करने वाली वह पहाड़ी मनोवृत्ति भी अभिव्यंजित होने लगती है जो आज के उत्तराखंड का कटु यथार्थ भी बन गया है।हीरा सिंह राणा की एक कविता 'त्यर पहाड़ म्यर पहाड़' वर्त्तमान पलायन के दौर में आज बहुत ही प्रासंगिक है। किस प्रकार विकास के नाम पर हमारे नेताओं द्वारा पर्यावरण के रक्षक प्रहरी पहाड़ों को तोड़ा और फोड़ा जा रहा है, उसकी दर्दभरी टीस यदि कहीं सुनाई पड़ती है तो वह टीस 'हिरदा कुमाऊनी' की कविता में ही सुनाई पड़ सकती है। उत्तराखंड के पर्यावरणवादी हों, या फिर राजनैतिक दल,पत्रकार बन्धु हों या साहित्यकार उत्तराखंड की जन समस्याओं को उतनी बारीकी से नहीं समझ पाए जितनी आत्मीयता से उनकी कविता ने पहाड़ के दर्द को समझा है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का सरकारी स्तर पर दोहन हुआ, प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट हुई और जेई और एई मिल बांट कर सरकारी ठेकेदारों से पैसों से जेब भरते रहे, निश्चित रूप से पहाड़ की उस पीड़ा को केवल हीरा सिंह राणा जैसा कवि ही बांच सकता है, जिसकी कविता की आत्मा में पहाड़ बसा हो। आइए! हीरा सिंह राणा की इस कविता के चंद बोलों को जरा ध्यान से सुनें और तालिया नहीं बजाएं केवल अश्रुपात ही करें -
🔥त्यर पहाड़ म्यर पहाड़🔥
"त्यर पहाड़ म्यर पहाड़,
रौय दुखोंक ड्योर पहाड़ ।।
बुजुर्गो ले जोड़ पहाड़,
राजनीति ले तोड़ पहाड़ ।
ठेकदारों ले फोड़ पहाड़,
नान्तिनो ले छोड़ पहाड़ ।।
ग्वाव नै गुसैं घर नै बाड़।
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़ ।।
सब न्हाई गयी शहरों में,
ठुला छव्टा नगरों में
पेट पावण क चक्करों में,
किराय दीनी कमरों में ।
बांज कुड़ों में जम गो झाड़,
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़ ।।
क्येकी तरक्की क्येक विकास ।
हर आँखों में आंसा आंस ।।
जेई करण रौ बिल कें पास
ऐई मारण रौ पैसोंक गास
अटैची में भर पहाड़
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़"
-- हीरा सिंह राणा


इतने घनघोर संकट के बावजूद भी जितनी भी हरियाली आज उत्तराखंड में बची है वह इस देव भूमि में विराजमान देवताओं का आशीर्वाद, प्रकृति परमेश्वरी का कृपा प्रसाद और हमारी तपस्यारत नारी शक्ति के कठोर परिश्रम का ही फल है। मां, बेटी, बहन तथा पत्नी के रूप में नारीशक्ति की इस राज्य को खुशहाल बनाने में अहम भूमिका रही है। वह नारी शक्ति ही आज भी उत्तराखंड को हरित क्रांति से जोड़ने के लिए संघर्षशील है। पलायन के भारी संकट के बाद भी हम जहां इधर उधर एक दूसरे पर आरोप मढ़ने में लगे हैं वहां पहाड़ की नारीशक्ति इस घोर पलायन के दौर में भी बंजर खेतों को हरा भरा करने के लिए अपने दुख सुख की परवाह किए बिना जी जान से जुटी है। उत्तराखंड की धरती से जुड़े कवि हीरासिंह राणा ने अपने शब्दों के माध्यम से उत्तराखंड की मातृभूमि को हरितक्रांति से जोड़ने वाली इस नारी शक्ति के संघर्ष को भी इन मार्मिक शब्दों में अभिव्यक्ति प्रदान की है-
“भ्योव पहाड़ों का गोद गहानैं‚
खेतों का बीचम बिणै बजानै।
नांगड़ि खुट्यां मा बुड़िया कानी‚
च्यापिंछ पीड़ै कैं क्ये नि चितानी।
पहाड़ा सैणियोंक तप और त्याग‚
आफि बणाय जैल आपोंण भाग।
स्वोचौ पहाड़क सैणियोंक ल्हिजी‚
जे आजि गों बटी गों में नि पूजी ॥”
महानगरीय संस्कृति के प्रभाव से आज कुमाउँनी भाषा और संस्कृति अपनी पहचान खोने के दौर से गुजर रही है ऐसे कठिन दौर में हमारे बीच से हीरा सिंह राणा जैसे लोककवि और दुदबोलि भाषा के उन्नायक लोक गायक का अचानक ही चला जाना बहुत ही दुःखद है। उनके साहित्यिक और लोकगायिकी से कुमाउँनी भाषा और संस्कृति को लोकप्रियता के नए आयाम मिले हैं,इसलिए यह पर्वतीय लोकसंस्कृति के लिए भी अपूरणीय क्षति है।
परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि श्री हीरा सिंह राणा जी की दिवंगत आत्मा को अपने श्री चरणों में स्थान दें तथा सम्पूर्ण शोकाकुल परिवार एवं परिजनों को इस दुःख को सहने की शक्ति प्रदान करें।
।।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
-© डा.मोहन चंद तिवारी 💐💐💐

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