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कसिके जूं मैत

कसिके जूं मैत
रचनाकार: घनानन्द पाण्डे 'मेघ'

दिन रात बित्या बितिज्ञान म्हणा,
ऐगो फागुन फिरि आलो चैत।
स्वामी परदेश मैं छु एकली
हे भगवान कसिके जूं मैत।।

आदु परांण स्वामी दगाड़,
आदु परांण, पुजि छ मैत।
एकली छु मैं यो कार-वार
इजू भ्यटण के बाट न्हैत।

पंख जै हुना मैं उड़ि जानूं,
न्है जानुं झिट्ट स्वामी का पास।
न्हैजा घुगुति चिट्ठी ल्हिजै दे,
मैं के स्वामी को लागो उदास।।

मैं रूलै ऐ जां  घुगुति बैणा,
तु जन बासे ये म्हैण चैत।
तु ले दुःखी छै मैले दुःखी छु
कै थें करनूं हम शिकैत।।

मैं छोड़ि आयूँ अपंणु मैत,
स्वामी परदेश घर में न्हैत।
मैं छु एकली म्यार दगाड़,
निर्मोही स्वामी रै जाना धैंत।।
घनानन्द पाण्डे 'मेघ'

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