
-:हमरि काखि (चाची):-
लेखिका: अरुण प्रभा पंत
हमर बड़बाज्यूक (दादाजी) ब्वारी भाय तीन (३)! हम एक कं जेड़ज, एक कं इज,एक कं काखि कुनेर भयां। हमार ठुल दाज्यू और दिद हमर जेड़ज थैं इज और हमरि इज और काखि थैं काखि कुनेर भाय। काखि थैं हमरि नान बैण और भाऊ इज कुनेर बा भाय। समझ में नि उनेर भौय जब बाद में इस्कूल गेयां तब हमूल जांणौं कि इज थै इज कै कुनी।
हम सब भै बैणि एक दगाड़ पड़नेर भयां, पर कालिख पास हमरि नान बैण और भाय सितनेर (सोते) भाय (थे)। जब पत्त चलौ कि जेड़ज ,इज, काखि अलग अलग हुनी तो भल नि लाग (अच्छा नहीं लगा)। मेरि नान बैणिल तो हमौर झाकौर (बाल) उचेड़ दे कुंछा।
हमरि काखि लंबी पतलि (पतली) और मशिणौ बलानेर भै, पर खित्त चारी (एकदम से हंसना) हंसनेर भै। हमरि इज मुल मुल चारी (हल्का हल्का मुस्काती) हंसनेर भै। जेड़जाक तो दंतपाटि (दांतों की पंक्ति) लै नि देखि हमूल (हमने)। जेड़ज, इज और काखि तिनातीन सांक (सगी) बैणीन जा रुनेर भाय (रहते थे)
आमौक (दादी का) हुकुम (कहना) बजूणै तौंसब्बै तंग्यार(तैयार) रुनेर भाय। जेड़ज हमरि इज और काखि कं भौत बात समझूनेर भइन,सिखुनेर भइन पर कभ्भै लै एकदुसरैक काट (शिकायत,बुराई) नि करछी तीना तीन। हम सब तीन्नाकै संतान जै भयां। पछा एक दिन हमर काक, काखि कं आपण दगाड़(साथ) परदेस (दूसरे शहर) लिग्याय हमरि इज ,जेड़ज और काखि सौरास जांणी चेलिक न्यांथ (तरह से) हिकुर (सिसक सिसक कर) लगैलगै बेर दाढ़ (रोने)हालण लाग।
हम लै आपण नान भै, बैणिक और काखिक जांण में निश्वासी गेयां, मैल तो आपण काकाक जंगाड़न (जांघ में) हांणदे (मार दे) हाथैल- काखिक धोति खैंच दे। पुर घर सुन्न कर बेर काक काखि और म्यार नान भै -भैण हमन कं छोड़ि बेर जानैं रैयी। ऐस छी हमौर रिश्त आपण काखि दगै।। आजाक मैंस के जाणनी ,के समझनी यो बात कं हो।
आब मेरी मम्मी मेरे पापा,आम् बड़बाज्यछ लै दुसार है जानेर भाय हो।
अरुण प्रभा पंत
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