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जालली, बिल्वेश्वर मन्दिर में वृक्ष के नीचे विश्राम करते हुए भगवान विष्णु व देवी लक्ष्मी के दर्शन


जालली, बिल्वेश्वर मन्दिर में वृक्ष के नीचे विश्राम करते
🌳 हुए भगवान विष्णु व देवी लक्ष्मी के दर्शन🌳

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🌷आज 'दैनिक भास्कर' में पढ़िए मेरा लेख🌷
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हाल ही में उत्तराखंड स्थित महत्त्वपूर्ण मंदिरों और ऐतिहासिक स्थानों से सम्बंधित अपनी शोध योजना के तहत मैंने 19 अक्टूबर को अल्मोड़ा जिले में स्थित द्वाराहाट क्षेत्र के अंतर्गत जालली से लगभग एक कि.मी.की दूरी पर विद्यमान बिल्वेश्वर मंदिर का पुरातात्त्विक सर्वेक्षण किया तो यहां से कुमाऊं क्षेत्र खासकर पाली पछाऊं के अति प्राचीन इतिहास से जुड़े अनेक दुर्लभ मंदिर पुरातत्त्व के अवशेषों का पता चला। रानीखेत मासी मोटर मार्ग में काव गाड़ और धौल गाड़ इन दो नदियों के बीच में स्थित यह प्राचीन मन्दिर कत्यूरी काल के पंचायतन मन्दिर समूह की शैली में बना एक ऐतिहासिक मन्दिर है, जिसे धर्म विध्वंशक आक्रमणकारियों द्वारा तीन चार शताब्दी पहले नष्ट कर दिया गया था। बिल्वेश्वर मंदिर को कत्युरी काल का कहने का मुख्य कारण यह भी है कि कत्यूरी राजाओं द्वारा बनाया गया 'बटुक भैरव' का प्राचीन नागरी शैली में निर्मित एकमात्र मंदिर आज भी यहां विद्यमान है,जिसकी स्थापत्यकला द्वाराहाट के वर्त्तमान मंदिर समूहों से मेल खाती है। किन्तु इस मंदिर की मूर्तिकला इतनी अद्वितीय है कि यहां बार बार आने को मन करता है क्योंकि यहां त्रिमुखी शिव बिल्वेश्वर महादेव, समुद्र में शयन करते शेषशायी भगवान विष्णु,उनकी चरण वन्दना करती देवी लक्ष्मी के साथ साथ गौरीपुत्र गणेश, द्वार पर विराजमान नन्दी और द्रोणपर्वत उठाते पवनपुत्र हनुमान जी और बटुकभैरव के भव्य दर्शन एक साथ हो जाते हैं। किन्तु इस बार जब मन्दिर में गया तो पहले जैसी चहल पहल नहीं थी।यहां संगीत से गूंजती महाराज गन्धर्वगिरि जी की स्वर लहरियां भी कहीं सुनाई नहीं दी। मंदिर की देवमूर्तियों को भी इधर उधर स्थानांतरित कर दिया गया था। सबकुछ असहज लग रहा था। मन्दिर के पुजारी भी कुछ उदास लग रहे थे। लगता था पलायन की मार से यह मंदिर भी बहुत कुछ प्रभावित हो चुका था।

इस मन्दिर की सबसे विलक्षण और अत्यंत दुर्लभ मूर्ति है समुद्रशयन की मुद्रा में विश्राम करते काले स्लेटी रंग के पत्थर पर उकेरी गई भगवान विष्णु की मूर्ति। मैं इस मंदिर में आठ दस वर्ष पहले भी आया था। तब यहां के सन्त महाराज गन्धर्व गिरी और जगदीश गिरी से इस मंदिर और विष्णुमूर्ति के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी भी प्राप्त हुई थी। किन्तु इस बार जब पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के प्रयोजन से इस मन्दिर में मेरा आना हुआ तो बहुत कुछ बदला बदला सा लगा। पता चला कि महाराज गन्धर्व गिरि अब यहां नहीं रहते वे काफी समय से बाहर ही रहते हैं और जगदीश गिरि जी का देहांत हो चुका है।इसलिए मन्दिर की पूजा व्यवस्था का काम अब वहां महेश गिरि संभालते हैं।

एकाएक मेरी नज़र मंदिर के गर्भगृह पर पड़ी तो वहां शेषशायी विष्णु की वह दुर्लभ मूर्ति गायब थी जिसके दर्शन करने में यहां विशेष रूप से आया था।

पहले वहां स्थित शेषशायी विष्णु मूर्ति मन्दिर के गर्भगृह का ही भाग होने के कारण पुष्पों से शोभायमान रहती थी इसलिए इस मूर्ति की बारीक कलाकृति का पता नहीं चल पाता था। किन्तु आज यह जानकर हैरानी हुई कि भगवान शिव के परिवार से इस शेषशायी विष्णुलक्ष्मी की मूर्ति को किसी कारणवश मन्दिर के गर्भगृह से हटाकर अब बाहर परिसर में स्थित एक पीपल के पेड़ के नीचे स्थापित कर दिया गया है। देवासुर संग्राम के सूत्रधार शेषशायी भगवान विष्णु और तीनों लोकों का भरण पोषण करने वाली उनकी अर्द्धांगिनी देवी लक्ष्मी की मूर्ति की यह दशा देखकर मैंने सर्वप्रथम उनकी चरणवंदना की अपनी ओर से पुष्प अर्पित किए।उनके चित्र खींचे। वे मेरी इस पुष्पांजलि से सन्तुष्ट होकर मानो वे यह रहस्योद्घाटन कर रहे थे कि यह जालली घाटी जहां नदियां और गाड़ गधेरे बहा करते थे।धान के सेरों में चावल की भरपूर फसल होती थी।बिल्वेश्वर महादेव की देवमूर्तियों विशाल जनसमूह द्वारा पूजा अर्चना होती थी,उसी क्षेत्र पर पानी का भीषण संकट छाया हुआ है,खेत बंजर हो गए हों तो ऐसे में विष्णु और लक्ष्मी की कौन पूजा करेगा? विष्णु जलरूप हैं और लक्ष्मी धन धान्य रूप है। ऐसे में समूचे उत्तराखंड में जलरूप विष्णु लक्ष्मी सहित वृक्षों के मूल में स्थापित होकर अपने भक्तों को सन्देश दे रही है कि जलस्रोतों की वापसी चाहते हो तो वृक्ष लगाओ उसी से धन धान्य रूपी लक्ष्मी का पुनः अवतरण होगा और उत्तराखंड की बंजर भूमि फिर से शस्य श्यामल होगी। मैंने विष्णु-लक्ष्मी दोनों को नमस्कार किया और उनके पहरे दार द्वारपालों का भी अभिवादन किया।

मित्रों को बताना चाहता हूं कि रानीखेत-मासी मोटर मार्ग पर स्थित जालली घाटी प्राचीन काल से ही शिव मंदिरों के लिए बहुत चर्चित रही है। इस मोटर मार्ग के किनारे पर स्थित सिलोर महादेव, बिल्वेश्वर महादेव, इटलेश्वर महादेव तथा सुरेग्वेल आदि प्राचीन मंदिरों का इतिहास बताता है कि पाली पछाऊं का यह क्षेत्र अतीत में सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा था। यहां किसी जमाने में विशाल स्तर पर धान की खेती होती थी।इसीलिए कत्यूरी राजाओं के काल में यहां भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ और भारतवर्ष की उत्कृष्ट मूर्तिकला के लिए इस क्षेत्र के मंदिर प्रसिद्ध रहे। इनमें यह बिल्वेश्वर मन्दिर सर्वाधिक उत्कृष्ट स्थापत्य और मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध है। मैं जब इस मंदिर की देवमूर्तियों के इतिहास की जानकारी प्राप्त कर रहा था तो ऐसा ही हू-बहू मन्दिर मुझे महाराष्ट्र में पिम्पलेश्वर महादेव का मन्दिर मिला। वहां भी शिव मंदिर में शेषशायी विष्णु विराजमान हैं। साथ में शिवलिंग और द्वार पर नन्दी का पहरा है। शिव और विष्णु का देवत्व एक ही है और गुप्तकाल मैं त्रिमुखी शिव की अवधारणा का भी यही फलितार्थ निकलता है कि ब्रह्मा,विष्णु और महेश एक ही परम शक्ति की तीन पर्याय हैं,जिनसे सृष्टि,पालन और संहार का कार्य संचालित होता है।

ऐतिहासिक दृष्टि से बिल्वेश्वर महादेव कत्यूरी राजाओं के काल में निर्मित एक प्रसिद्ध पौराणिक शिव मंदिर है। चार पांच दशक पहले तक यहां मंदिर परिसर में वार्षिक मेला भी लगता था और यहां रामलीला भी होती थी वर्त्तमान में पलायन की वजह से अब यह मंदिर परिसर सूना सूना सा लगता है किंतु इस प्राचीन मंदिर में आराध्य देवमूर्तियां आज भी भारतीय मूर्तिकला का गौरवशाली इतिहास संजोए हुए हैं।

बिल्वेश्वर महादेव के रूप में पूज्य होने के कारण इस मंदिर में भगवान शिव की भव्य प्राचीन मूर्ति होनी चाहिए थी किन्तु दुर्भाग्य से यहां अब केवल खंडित त्रिमुखी शिव का मुख ही मिलता है। आज भी इस मंदिर में पुरातात्त्विक महत्त्व की अनेक मूर्तियां हैं, जिनमें काले सलेटी रंग के गणेश, नन्दी, और हनुमान की मूर्तिके अलावा बिल्वेश्वर महादेव का प्राचीन शिवलिंग,विशाल आकार का खंडित शक्ति का भग्न अवशेष विशेष रूप से पुरातात्त्विक महत्त्व के साक्ष्य हैं।

बहुत हैरानी होती है कि देवभूमि उत्तराखंड में अब पुरातत्त्व के महत्त्व की सुंदर और दुर्लभ मूर्तियों की या तो मंदिरों से चोरी हो रही है अथवा वे मूर्तियां क्षेत्रवासियों द्वारा इस तरह यत्र तत्र दयनीय दशा में उपेक्षित हालात में हैं। उत्तराखंड राज्य का पुरातत्त्व विभाग कभी इन मूर्तियों की न तो कोई खोज खबर रखता है और न ही ऐसी दुर्लभ मूर्तियों के संरक्षण की योजना उसके पास है।समाज में भी इतिहास की इस अमूल्य धरोहर के प्रति कोई चिंता नहीं दिखाई देती है।

इस मूर्ति के बारे में बिल्वेश्वर मन्दिर के पुजारी महेश गिरि ने बताया कि यह शेषशायी मूर्ति खंडित होने के कारण पीपल के वृक्ष के नीचे रख दी गई है। जबकि वास्तविकता यह है कि पुरातत्त्व के महत्त्व की प्राचीन देवमूर्ति को कभी खंडित नहीं माना जाता है और जब एक बार जिस मूर्ति की पूजा हो चुकी हो उसे खंडित मान कर गर्भगृह से बाहर नहीं रखा जाना चाहिए। मैंने मन्दिर के पुजारी महेश गिरि को उस विष्णुमूर्ति के पुरातात्त्विक महत्त्व के बारे में जानकारी दी और यह सलाह भी दी कि उस मूर्ति को पुनः गर्भगृह में अपने पुराने स्थान पर ही स्थापित किया जाना चाहिए, या फिर उसे पुरातत्त्व विभाग को सौंप दिया जाना चाहिए। इतनी दुर्लभ और विलक्षण शेषशायी विष्णुमूर्ति का निरादर नहीं होना चाहिए।
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जहां तक इस शेषशायी विष्णुमूर्ति के पुरातात्त्विक महत्त्व का सवाल है,यह काले पत्थर पर उकेरी गई कत्यूर कालीन मूर्ति है,जिसका समय आठवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य हो सकता है। उस मूर्ति के साथ एक खंडित द्वारपट्टिका भी है,जिससे प्रतीत होता है कि बिल्वेश्वर मन्दिर समूह के परिसर में कभी यह विष्णुमूर्ति भी विराजमान रही होगी और उस भगवान विष्णु की शेषशायी प्रतिमा के गर्भगृह को चारों ओर से इसे द्वारपट्टिका द्वारा अलंकृत किया गया होगा। द्वारपट्टिका में तीन द्वारपालों के चित्रों को उकेरा गया है। इस विलक्षण विष्णु मूर्ति की खास विशेषता यह है कि इसमें देवी लक्ष्मी खड़ी मुद्रा में विष्णु के चरणों को पकड़े हुए दर्शाई गई है और शेषनाग ने अपने पुच्छ भाग से लक्ष्मी के चरणों को आवृत्त कर रखा है। प्रायःअब तक जितनी शेषशायी विष्णु की मूर्तियां मिली हैं, उनमें लक्ष्मी बैठी हुई मुद्रा में विष्णु के चरण दबाते हुए दर्शाई जाती है,जैसे कि चौड़ा गांव के नौले में विराजमान शेषशायी विष्णु मूर्ति में देखा जा सकता है। किन्तु बिल्वेश्वर की यह मूर्ति इस दृष्टि से बिल्कुल अलग है कि इसमें शेषनाग ने लक्ष्मी को अपने पाश से बांध रखा है और वह खड़ी मुद्रा में विष्णु का चरण पकड़े हुए वंदना कर रही हैं।

शेषशायी भगवान विष्णु की मूर्ति में देवी लक्ष्मी जिस प्रकार भगवान के चरण वंदन करते दर्शाई गई हैं और बगल में इंद्र आदि देवतागण स्तुति गान कर रहे हैं।साथ में शिव,गणेश आदि देवताओं की आकृतियां भी उकेरी गई हैं।यह दृश्य देखते ही बनता है कि पुराणों में इन देवशक्तियों के बारे में जैसा वर्णन आया है सिद्धहस्त मूर्तिकारों द्वारा वैसी ही भाव-भंगिमा इन मूर्तियों में उकेरी गई है।  इसे भी पुराण और पुरातत्त्व का अद्भुत मणिकांचन संयोग ही कहा जाना चाहिए जो उत्तराखंड की इस दुर्लभ मूर्ति में देखा जा सकता है।
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राष्ट्रीय धरातल पर देखा जाए तो उत्तराखंड में बिल्वेश्वर मन्दिर की यह दुर्लभ शेषशायी मूर्ति और अन्य शिव परिवार से जुड़ी मूर्तियां विश्व प्रसिद्ध मथुरा संग्रहालय की ऐतिहासिक मूर्तियों से भी कहीं ज्यादा सुंदर,भव्य एवं कलात्मक सौंदर्य से चमत्कृत हैं।किन्तु विडम्बना यह है कि राष्ट्र की मुख्य धारा में इस क्षेत्र के मंदिरों और मूर्तियों का हमारे क्षेत्र के पुरातत्त्वविदों, इतिहासकारों और शोधकर्ताओं द्वारा मूल्यांकन सदा उपेक्षित ही रहा और ऐसा ही बिल्वेश्वर मंदिर की मूर्तियों के बारे में भी कहा जा सकता है।

आशा की जाती है कि इतिहास,पुरातत्त्व तथा मूर्तिकला से जुड़े विद्वान और शोधार्थी इस बिल्वेश्वर मंदिर के इतिहास,स्थापत्य कला और मूर्तिकला को अपने शोधपूर्ण अध्ययन का विषय बना कर उत्तराखंड के सांस्कृतिक धरोहर के मूल्यांकन में अपना सहयोग देंगे।

आज 'दैनिक भास्कर' ने 'उत्तराखंड लाइव' में बिल्वेश्वर से सम्बन्धित लेख को प्रकाशित किया। इसके लिए मैं सम्पादक मंडल का विशेष आभारी हूं कि उन्होंने जालली घाटी के इस उपेक्षित मन्दिर की उत्कृष्ट मूर्तिकला से देशवासियों को अवगत कराया।

-© डा.मोहन चंद तिवारी 💐💐💐
 

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