
महाशिवरात्रि कुमाऊँ में भक्ति व उमंग का पर्व
देश के अन्य स्थानों की तरह ही महाशिवरात्रि का पर्व कुमाऊँ अंचल में भी बड़े उल्लास और भक्ति भावना से मनाया जाता है। भक्तगण इस दिन प्रातः स्नान के पश्चात भगवान शिव की आराधना करते हैं और ज्यादातर भक्त उपवास भी रखते हैं। शिव आराधना हेतु भक्त आस पास के शिव मंदिर में भगवान शिव की पूजा-अर्चना व दर्शनों हेतु जाते हैं। विशेष रूप से भगवान शिव के मंदिरों में पूजा-अर्चना करने के लिए इस दिन भक्तो की लम्बी कतारें देखी जा सकती हैं। अगर शिव मंदिर ना भी हो तो अन्य मंदिरों में भी इस दिन भक्तो की भीड़ रहती है। सरकार द्वारा यह दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया है ताकि लोग बिना किसी बाधा के महाशिवरात्रि का पर्व मना सकें।
महाशिवरात्रि नाम किस प्रकार पड़ा इस बारे में शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव सभी जीव-जन्तुओं के स्वामी एवं अधिनायक है। सभी जीव-जंतु, कीट-पतंग भगवान शिव की इच्छा से ही सब प्रकार के कार्य तथा व्यवहार किया करते हैं। शिव-पुराण के अनुसार भगवान शिव वर्ष में छ: मास कैलाश पर्वत पर रहकर तपस्या में लीन रहते हैं। इस अवधि में में उनके साथ ही सभी कीड़े-मकोड़े भी अपने बिलो मे बन्द हो जाते हैं। उसके बाद भगवान शिव छः मास तक कैलाश पर्वत से धरती पर आते हैं और श्मशान घाट में निवास किया करते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव का धरती पर अवतरण प्रायः फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि से हुआ करता है। भगवान शिव-शंकर के धरती पर अवतरण का यह महान दिन शिवभक्तों में “महाशिवरात्रि” के नाम से जाना जाता है।

पुराणों में प्रचलित अन्य कथा के अनुसार देव व असुरो द्वारा अमृत प्राप्ति हेतु सामूहिक रूप से समुद्र-मंथन करने का निर्णय किया गया था। अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं और राक्षसों के द्वारा की जा रही सागर-मंथन की प्रक्रिया के दौरान, अमृत से पहले सागर से एक-एक कर कुछ रत्न निकले थे पर इसी दौरान कालकूट नाम का घातक विष भी निकला। ये विष इतना खतरनाक था कि इसके प्रभाव से पूरा ब्रह्मांड में त्राहि-त्राहि होने लगी थी। अगर इसे तुरंत नष्ट नहीं किया जाता तो यह ब्रह्मांड को ही समाप्त कर सकता था। इस विष को अगर कोई नष्ट कर सकता था तो वह थे भगवान शिव, देवताओं के आग्रह पर श्रष्टि को विनाश से बचाने के लिए भगवान शिव ने कालकूट नामक विष को अपने कंठ में रख लिया था। लेकिन कालकूट विष के घातक प्रभाव से उनका कंठ (गला) नीला हो गया, जिस कारण ही इस घटना के बाद से भगवान शिव का नाम नीलकंठ पड़ा।

भगवान शिव में विष पी तो लिया लेकिन पीने के बाद इस विष के प्रभाव से भगवान शिव के कंठ में भयंकर जलन होने लगी और उनका मस्तिष्क गर्म हो उठा। भगवान शिव के इस कष्ट को देख कर सभी देवतागण चिंतित होने लगे। तब भगवान शिव के कंठ की जलन को कम करने के लिए सभी देवताओं ने उन्हें बेल पत्र खिलाया, जिससे विष का प्रभाव कुछ कम होने लगा और कुछ समय बाद भगवान शिव सामान्य हो गए। कहा जाता है कि तभी से शिव जी की पूजा में बेल पत्र का विशेष महत्व है। कुछ लोगो की मान्यता यह भी है कि भगवान शिव द्वारा विष पीकर पूरे संसार को विष के घातक प्रभाव से बचाने की इस घटना के उपलक्ष में ही महाशिवरात्रि मनाई जाती है। बेल पत्र को लेकर यह भी माना जाता है कि जो भी भक्त बेल पत्र के साथ भगवान शिव की पूजा करता है उसे तीर्थों में स्नान जितना फल प्राप्त होता है।
कुछ भक्तों की महाशिवरात्रि के इस दिन को लेकर मान्यता है कि संसार का प्रारंभ इसी दिन से हुआ था, तो किसी का मानना है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह माता पार्वती के साथ हुआ था। इसी मान्यता के अनुसार देश के कई जगहों इस दिन को शिव-पार्वती विवाह उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भगवान शिव और माता पार्वती के इस विवाह की तैयारियां महा शिवरात्रि के तीन-चार दिन पूर्व से ही शुरू हो जाती हैं। इस अवसर पर उनकी प्रतिमाओं को हर घर में घुमाया जाता है और बारात के रूप में भी शिव-पार्वती विवाह की झांकी के साथ शिव मंदिर में उत्सव मनाया जाता है।

महा शिवरात्रि को मानव जीवन और दुनिया में 'मनुष्य द्वारा अंधकार और अज्ञान पर विजय पाने' के लिए स्मरण किये जाने वाले दिन के रूप में मनाया जाता है। यह भी कहा जाता है की यह वही दिन है जब देवी पार्वती और भगवान शिव ने फिर से शादी की थी। यह त्योहार मुख्य रूप से पूरे दिन उपवास और रात-रात भर जागने के बाद भगवान शिव को बेल-पत्र (बेल के पेड़) अर्पित करके और उसके प्रसाद के द्वारा मनाया जाता है। महा शिवरात्रि के इस पर्व पर भगवान् शिव को बेल पत्र अर्पित करने का विशेष महत्त्व मन गया है।
भगवान शिव को वैराग्य वाला देवता माना जाता है इसलिए भगवान शिव की पूजा में ज्यादातर जंगली फल फूल व प्राकृतिक रूप से प्राप्त पदार्थों का प्रयोग ज्यादा होता है जैसे बेल पत्र, बेर का फल व भस्म का प्रयोग पूजन में होता है। महाशिवरात्रि का उपवास रखने वाले लोग भी अपने आहार में प्राकृतिक रूप से अपने आप उगने वाले जंगली खाद्य पदार्थों का प्रयोग करते हैं जैसे आहार में शकरकंद व अन्य कंद का प्रयोग किया जाता है मसालों का प्रयोग भी कम ही होता है, नमक में सेंधा नमक का प्रयोग होता है। जिन कारणों से महाशिवरात्रि के अवसर पर बाजार में भी बेर और शकरकन्द जैसे प्राकृतिक खाद्य-सामग्री की मांग व बिक्री बढ़ जाती है।

कुमाऊँ व अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में भक्त पहाड़ी जंगली खाद्य वस्तुओं का प्रयोग करते हैं, जैसे इस दिन तरुड़ या तौड़ जो एक प्रकार की कन्द होती है की सब्जी विशेष रूप से आहार के प्रयोग में लायी जाती है। जंगल या घर के आस पास जहां भी तरुड़ या तौड़ की बेल होती है तो खोदकर इसकी कन्द निकालकर सब्जी बनायी जाती है। वैसे तो पहाड़ों में सब्जी के रूप में तरुड़ की कन्द का प्रयोग सामान्यतया होता ही है पर महाशिवरात्रि के व्रत पर इसकी विशेष मांग होने के कारण यह पहाड़ों में बाजार में भी उपलब्ध होती हैं।
कुमाऊँ अंचल में महा शिवरात्रि का एक और मान्यता यह भी है कि इस दिन प्रसिद्ध जागेश्वर धाम में कड़ी तपस्या करने मात्र से ही निसंतान महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है। इस आस्था के चलते आज भी महिलाएं शिवरात्रि, कार्तिक पूर्णिमा, बैशाखी पूर्णिमा और सावन माह में यहां होने वाली विशेष पूजा अर्चना में भाग लेती है और अपने मन की मुराद पाती है। जागेश्वर धाम में शिवरात्रि के मौके पर महामृत्युंजय मंदिर में आयोजित होने वाले विशेष पूजा अर्चना के बारे में मान्यता है कि निसंतान महिलाओं की ओर से यहां की जाने वाली तपस्या का फल उन्हें जरूर मिलता है।
शिवरात्रि के दिन तपस्या कर भगवान शिव की पूजा अर्चना करने वाली महिलाओं को शिवरात्री के दिन उपवास रखना होता है। जिसके बाद ब्रह्मकुंड में स्नान और शाम की पूजा के बाद महिलाएं हाथ में गोबर और उसके ऊपर दीया रखकर रातभर खड़े रहकर भगवान भोले की आराध्या करतीं हैं। अगले दिन सुबह पूजा अर्चना के बाद पुजारी महिला के हाथ से दीए को उतारते हैं। जिसके बाद पुन: ब्रह्मकुंड में स्नान के बाद महिलाओं को मंदिर में साठी के चावल से शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की पूजा करनी पड़ती है। इस प्रक्रिया में महिलाओं को दिए में एक सुपारी, स्वर्ण प्रतिमा व पिछौड़े में नारियल बांधना होता है। माना जाता है कि इस तरह पूजा अर्चना करने के एक सालबाद महिलाओं को संतान की प्राप्ति हो जाती है।
कुमाऊँ अंचल के नैनीताल जनपद में भीमताल क्षेत्र में छोटा कैलाश नाम की एक चोटी पर भगवान शिव का छोटा सा मंदिर है। महाशिवरात्रि के दिन यहां पर भक्तों की बड़ी भीड़ होती है और एक मेले का सा वातावरण होता है। पहले यह स्थान भौगोलिक रूप से काफी दुर्गम माना जाता था क्योंकि तब यह स्थान निकटतम सड़क स्थल जैसे नौकुचियाताल और अमृतपुर से कम से कम १५-२० किमी की दूरी पर था। आस-पास के क्षेत्रों से लोग तब २०-३० किमी की पैदल यात्रा कर कर भी यहां पहुँचते थे। इस यात्रा को कैलाश यात्रा जैसा ही धार्मिक और पवित्र माना जाता है। लोग रात-रात भर पैदल चलकर प्रात: इस चोटी पर पहुंचकर भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। अब पीनरौ गाँव तक सड़क हो जाने के बाद मंदिर तक जाना पहले से काफी सुगम हो गया है लेकिन अभी भी मन्दिर तक पहुंचने के लिए लगभग ३-४ किमी की खड़ी पहाड़ी चढ़ाई करनी होती है। भीमताल तथा हल्द्वानी से इस स्थान की दूरी लगभग २० और ३५ किमी है।
छोटा कैलाश चोटी पर भगवान शिव का छोटा सा मंदिर है जिसमें एक शिवलिंग विराजमान है जो काफ़ी प्राचीन माना जाता है। वैसे यहां पर वर्तमान मन्दिर भी पिछले कुछ समय में ही बनाया गया है, बताते हैं कि पहले यहां पर खुले में ही शिव लिंग का पूजन हुआ करता था। इस मंदिर के बारे में यहां पर रहने वाले कर्नाटक बाबा का कहना है कि कैलाश जाते हुए भगवान शिव व माता पार्वती ने यहां पर एक रात विश्राम किया था। तब से ही यहां पर पवित्र धुनी जलाई जा रही है जिसके आगे कई भक्त रात-रात भर जागकर अपनी मनोकामना पूर्ण होने हेतु भगवान शिव से प्रार्थना करते हैं। अगर मौसम साफ़ हो (ऐसा सामान्यतया बरसात के बाद ही होता है) मन्दिर से आस पास की पहाड़ियो और हल्द्वानी नगर का विहंगम दृश्य मन को मोह लेता है।
महाशिवरात्रि पर शिव पूजन हेतु भक्त सुबह नहाकर शरीर को शुद्ध कर या पहाड़ में /बीमारी में संभव ना हो तो फिर हाथ-मुंह धोकर कुल्ला कर, घर के पूजास्थल में रखे दीपक को जलाकर पूजा का संकल्प लेते हैं। सबसे पहले भगवान गणेश और माता पार्वती का ध्यान किया जाता है और उसके बाद भगवान शिव का पूजन करते हुए उनकी प्रतिमा को यथासंभव गंगाजल, दही, घी और फिर शहद से स्नान कराते हैं। फिर शिवजी को पंचामृत स्नान कराया जाता है, भगवान शिव पर वस्त्र, फूल, इत्र, माला और बेल पत्र चढ़ाया जाता है। उसके बाद शिव-शंकर को नैवेद्य (भोग) लगाया जाता है और पान और दक्षिणा चढ़ाकर शिव आरती गयी जाती है। आखिर में भगवान शिव से प्रार्थना और अपनी तरफ से किसी भी जाने-अनजाने हुयी भूल के लिए क्षमा-याचना की जाती है।
वैसे शिव भक्तो में तो शिवरात्रि हर महीने कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन आती है जिसे सिर्फ शिवरात्रि कहा जाता है। लेकिन फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन आने वाली शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहा जाता है। इसीलिए शिव भक्त लोग इसे सबसे बड़ी शिवरात्रि के नाम से भी जानते हैं तो अन्य जन-सामान्य शिवरात्रि के नाम से जानते हैं। शिव भक्तो के लिए साल के दौरान हर माह में आने वाली 12 शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है।
माना जाता है कि महाशिवरात्रि के दिन जो व्यक्ति दया भाव दिखाते हुए शिव जी की पूजा करते हैं मोक्ष को को प्राप्त होते हैं। वैसे भी भोलेनाथ शिव जी को जल्दी प्रसन्न होने वाले देवता के रूप में भी जाना जाता है। जिस कारण उनका पूजन पूरे देश मे हर्षउल्लास के साथ किया जाता है और यह रात्रि शिव जी की महान रात यानि महाशिवरात्रि कहलाती है। इस पवित्र दिन पर हमें भी हमारे मन मे दया आदि का भाव रखते हुए शिव उपासना करनी चाहिए और भक्तों के सभी कष्टों को खत्म करने की विनती करनी चाहिए।
हर किसी अन्य त्यौहार की तरह ही महाशिवरात्रि के पर्व पर भी हमारे समाज की कुछ कुरीतियां जुड़ी हुयी है। जैसे की महाशिवरात्रि पर लोगों की नशा करने की परंपरा, जैसा मान्यताओं में प्रचलित है कि भगवान शिव भांग धतुरे का सेवन करते हैं तो कुछ भक्त इस दिन भांगऔर भांग के अन्य नशीले उत्पाद का प्रयोग नशे हेतु भगवान शिव के प्रसाद रूप में करते हैं। महाशिवरात्रि पर लगने वाले मेलों में भांग-घोटे की बिक्री विशेष रूप से भगवान शिव के प्रसाद रूप में प्रचारित कर की जाती है। कुछ भक्त अन्य हानिकारक भांग के उत्पादों का प्रयोग भगवान शिव के नाम पर करते हैं। ऐसी बातें किशोरों व युवा लोगो को नशे के प्रति आकर्षित करती हैं इस बारे में किशोरों व युवाओं को अवश्य आगाह किया जाना चाहिए। नहीं तो यह धार्मिक अनुष्ठान हमारे युवाओं के स्वास्थ्य व उनके सामाजिक चरित्र निर्माण के लिए घातक भी हो सकता है।
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