
पहाड़ों में सौंदर्य का प्रतीक है बाखली
(आज यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि ईट सिमेंट के ढेरों में रहने वाले लोगों व पारंपरिक घरों में रहने वाले लोगों के बीच आर्थिक स्तर व मानसिक स्तर के बीच खाई बनते जा रही है, जो अत्यधिक चिंतनीय है। )
लेखक: भुवन बिष्ट
देवभूमि उत्तराखण्ड सदैव ही अपनी संस्कृति, सभ्यता, परंपरा एवं प्राकतिक एंव आध्यात्मिक सौंदर्य के लिए विश्व विख्यात रहा है। यहाँ के गांवों में परम्परागत एवं क्रमबद्ध निर्मित घरों को बाखलियां कहा जाता है।
देवभूमि के ये परंपरागत घर बाखलियां सदैव व ही एकता की वाहक रही हैं। जिसमें एक ही आंगन से अनेक.घर परिवार जुड़े रहते हैं। पूर्व में इसमें अधिकाशत: संयुक्त परिवार निवास करते थे। आजकल भौतिकतावादी जीवन तथा रोजगार के लिए होने वाले लगातार पलायन के कारण गांवों की भव्य व आकर्षक बाखलियाँ वीरान होने जा रहीं है। आजकल लगातार बढ़ रही एकल परिवार की प्रथा एंव गांवों की मूलभूत सुविधाओं से वंचित होने के कारणों ने भी परंपरागत बाखलियों को वीरान होने के लिए विवश कर दिया है। आधुनिकता की चकाचौंध के कारण आज पहाड के गांव ईंट, रेत, बजरी के ढेर परिवर्तित होते जा रहे हैं।
जबकि प्राचीन काल में निर्मित परंपरागत बाखलियों की ढालूदार छतें जो पाथर छोटे-बड़े एक चौड़े पत्थर को आकर्षक ढंग से पिरोकर बनाई जाती थी, आंगन व खोई आंगन की बाहरदीवारी के साथ-साथ काष्ठकला की अनूठी मिसाल से निर्मित दरवाजे व खिड़कियों से उन्हें भव्य रूप प्रदान किया जाता था। ये बाखलियां व परंपरागत घर न केवल भव्य एवं आकर्षक हैं अपितु पहाड़ों की भौगोलिक परिस्थितियों हिमपात, गर्म एवं ठंडे मौसम के अनुकूल निर्मित भी हैं।

इन परंपरागत घरों एवं बाखलियों की लकड़ी मिट्टी एवं पत्थर से निर्मित ढालूदार छत पाथर एवं मिट्टी से निर्मित फर्श जिसे पाल कहा जाता है, विभिन्न परिस्थितियों एवं रोगों से मुक्त रखने में भी सहायक हैं। बाखलियों में अधिकाशत: अनेक संयुक्त परिवार एक परिसर, आंगन में निवास करते थे। इसलिए एक-दूसरे के सुख-दुख में पूर्ण रूप से सहभागी बने रहते थे। जिससे देवभमि की एकता व अखण्डता का स्पष्ट अंदाजा लगाया जा सकता है। यही परंपरागत घरों बाखलिया की एकता के कारण ही देवभूमि के गांवों का स्वतंत्रता संग्राम में भी विशेष योगदान रहा।
लेकिन आज बढ़ते भौतिकतावादी जीवन व पाश्चात्य संस्कृति के आगमन से पहाड़ों के सुन्दर व आकर्षक गांव ईंट, सिमेंट-कंक्रीट के ढेर-में परिवर्तित होते जा रहे हैं। आज विकास तो उचित है किन्तु इन ढेरों से कभी-कभी अनैतिकता की झलक भी देखने को मिली है।
आज यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि ईंट सिमेंट के घरों में रहने वाले लोगों पारंपरिक घरों में रहने वाले लोगों के बीच आर्थिक स्तर व मानसिक स्तर के बीच खाई बनते जा रही है, जो अत्यधिक चिन्तनीय है। एकल परिवार की प्रथा एवं पाश्चात्य संस्कृति से भी मानवीय मूल्यों का स्तर लगातार गिरते जा रह है। आजकल शहरों एंव सड़कों के पास वाले गांवों की बाखलियां जीर्णक-शीर्ण हो चुकी हैं। किन्तु शहरों से दूर बसे गांवों में आज भी बाखलियां अपने अस्तित्व में देखने को मिलती हैं। किन्तु यहां भी पलायन का दर्द स्पष्ट रूप से झलकता है।
आज भले ही संयुक्त परिवारों एवं मानवीय मूल्यों का पतन हो रहा हो, लेकिन भव्य आकर्षक एवं कला की अनूठी मिसाल को पारंपरिक बाखलियां बयां करती हैं। आज विरान होती बाखलियों से पलायन का दर्द स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है कि गांवों में विकास के नाम पर भले ही अरबों रूपये बहाये जाते हैं किन्तु मूलभूत सुविधाओं एवं रोजगार का पूर्ण रूप से अभाव बना हुआ है।
आज विरान होती इन पारंपरिक बाखलियों कलाकृति को प्राचीन धरोहरों के रूप में संरक्षित किया जाना आवश्यक है तभी भावी पीड़ी को देवभूमि के गांवों की एकता, अखण्डता, संस्कृति व सभ्यता का परिचय मिल पायेगा साथ ही मानवीय मुल्यों एवं मानवता का स्तर भी बना रहेगा।

घसेरी यूट्यूब चैनल पर बाखली के बारे में विस्तृत जानकारी दी गयी है, यहां पर पारिभाषिक शब्द, गढ़वाली भाषा के दिए गए हैं जिनके लिए कुमाऊनी में अन्य शब्द प्रयोग किये जाते हैं कृपया वीडियो जरूर देखें:-
अनेक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लेख, कविताएं लिख धुके लेखक भुवन विष्ट, रानीखेत जिला अल्मोड़ा।

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