
परंपराओं को संजोये हुए चैत्र मास व देवभूमि उत्तराखंड के गाँव
लेखक: भुवन बिष्ट
(वर्षों से चैत्र में बहनों और बेटियों को भिटौली देने की परंपरा के पीछे जो
सांस्कृतिक परंपरा जुड़ी थी, वह लगभग समाप्त होते जा रही है। लेकिन गांव आज
भी इन परंपराओं को संरक्षित किये हुये हैं। बसंत की बयार को घर-घर बांटने
की परंपरा है। फूलदेई बसंती उल्लास के पर्व फूलदेई सक्रांति से एक माह तक
अनवरत घर की दहलीज को रंग-बिरंगे फूलों की खुशबू से महकाने वाला चैत्र मास आ
गया है।गांवों में चैत्र मास में ही फूलदेई का त्यौहार भी मनाया जाता है।।)
देवभूमि उत्तराखंड सदैव ही अपनी परंपराओं, संस्कृति, सभ्यता के लिए विश्वविख्यात है। देवभूमि उत्तराखण्ड की संस्कृति, सभ्यता एंव परंपराओं की अनूठी मिशाल हैं देवभूमि उत्तराखण्ड के गाँव। प्राकृतिक सुंदरता को संजोये पावन धरा एंव बसंत से सजी हुई धरा, जंगलों में खिले हुए मनमोहक सुंदर बुराँश के पुष्पों से लदगद बुराँश के वृक्ष तथा पिताबंरी ओढ़े धरती सभी को अपनी ओर बरबस ही आकर्षित करती है। चैत्र मास के प्रथम गते को देवभूमि उत्तराखंड के गाँवों में मनायी जाती है फूलदेई। इस त्यौहार से प्रकृति का अनूठा संबंध रहा है। आज एक ओर जहां पलायन से गांव विरान हो रहे हैं दूसरी ओर परंपराओं को संरक्षित करने का कार्य भी गांव कर रहे हैं किन्तु आज पलायन की पीड़ा का दंश देवभूमि की अनेक परंपराओं पर स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
पलायन से अनेक परंपराऐं विलुप्त की कगार पर हैं कुछ परंपराऐं विलुप्त हो चुकी हैं, बढ़ते पलायन से गांवों व शहरों के बीच खाई बनते जा रही हैं और अंधाधुध आधुनिकता की दौड़ में देवभूमि उत्तराखण्ड की अनेक प्रचलित परंपराऐं पीछे छूटते जा रही है। वास्तव में परंपराओं को संजोने का कार्य गाँव करते हैं इसलिए आज गाँवों को सुरक्षित एंव संरक्षित करने का कार्य सबसे पहले होना चाहिए जिससे परंपराऐं संरक्षित हो सके।
आज पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव व गाँवों से हो रहे निरंतर पलायन के कारण गाँवों और शहरों के मध्य खाई बनते जा रही है वहीं संस्कृति सभ्यता के साथ साथ परंपराओं का अस्तित्व भी खतरे में है। वास्तव में गाँव परंपराओं के संरक्षण के मुख्य कारक हैं। आज गाँवों में परंपराओं को संजोये रखने के रूप में चैत (चैत्र) का महीना शूरू होते ही एक नई उमंग का संचार होने लगता है। क्योंकि इसे 'रंगीलो चैत' के नाम से भी जाना जाता है, और हमारे भारतीय संस्कृति के अनुसार भी चैत्र मास से ही नव वर्ष का आरंभ होता है। यह भी माना जाता है कि चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की पहली तिथि (पैट, गते) को नव वर्ष आरंभ होता है और सभी मांगलिक कार्यो, पूजा पाठ, विवाह, समारोहों आदि का आयोजन भी इसी वर्ष (वार्षिक पंचाग) के आधार पर ही किया जाता है।
कुमाँऊ संस्कृति में चैत्र माह का एक विशेष महत्व यह भी है कि इसमें भिटौली की परंपरा प्रचलित है। भिटौली में माता पिता अथवा भाई द्वारा शादिशुदा लड़की (बहिन) को भिटौली (भिटोई) दी जाती है जिसमें चैत्र मास के महिने में बेटी या बहन के लिए नए नए कपड़े, मिठाई, घर में तैयार किये गये पकवान गुड़ आदि वस्तुऐं ले जाई जाती हैं। जिस दिन घर में भिटौली आती उस दिन उत्सव का माहौल हो जाता, भिटौली के पकवानों को वह अपने परिवार,गांव में बाँटती हैं। किन्तु आज पहाड़ पर पलायन, बदलते सामाजिक परिवेश और भौतिकतावाद का जिन परंपराओं पर असर पड़ा उनमें भिटौली भी प्रमुख है। आज आधुनिकता के दौर में भिटौली से जुड़े इन गीतों का औचित्य भी विलुप्त होते जा रहा है।
वर्ष दिन को पैलो मैहणा,
पलायन से अनेक परंपराऐं विलुप्त की कगार पर हैं कुछ परंपराऐं विलुप्त हो चुकी हैं, बढ़ते पलायन से गांवों व शहरों के बीच खाई बनते जा रही हैं और अंधाधुध आधुनिकता की दौड़ में देवभूमि उत्तराखण्ड की अनेक प्रचलित परंपराऐं पीछे छूटते जा रही है। वास्तव में परंपराओं को संजोने का कार्य गाँव करते हैं इसलिए आज गाँवों को सुरक्षित एंव संरक्षित करने का कार्य सबसे पहले होना चाहिए जिससे परंपराऐं संरक्षित हो सके।
आज पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव व गाँवों से हो रहे निरंतर पलायन के कारण गाँवों और शहरों के मध्य खाई बनते जा रही है वहीं संस्कृति सभ्यता के साथ साथ परंपराओं का अस्तित्व भी खतरे में है। वास्तव में गाँव परंपराओं के संरक्षण के मुख्य कारक हैं। आज गाँवों में परंपराओं को संजोये रखने के रूप में चैत (चैत्र) का महीना शूरू होते ही एक नई उमंग का संचार होने लगता है। क्योंकि इसे 'रंगीलो चैत' के नाम से भी जाना जाता है, और हमारे भारतीय संस्कृति के अनुसार भी चैत्र मास से ही नव वर्ष का आरंभ होता है। यह भी माना जाता है कि चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की पहली तिथि (पैट, गते) को नव वर्ष आरंभ होता है और सभी मांगलिक कार्यो, पूजा पाठ, विवाह, समारोहों आदि का आयोजन भी इसी वर्ष (वार्षिक पंचाग) के आधार पर ही किया जाता है।
कुमाँऊ संस्कृति में चैत्र माह का एक विशेष महत्व यह भी है कि इसमें भिटौली की परंपरा प्रचलित है। भिटौली में माता पिता अथवा भाई द्वारा शादिशुदा लड़की (बहिन) को भिटौली (भिटोई) दी जाती है जिसमें चैत्र मास के महिने में बेटी या बहन के लिए नए नए कपड़े, मिठाई, घर में तैयार किये गये पकवान गुड़ आदि वस्तुऐं ले जाई जाती हैं। जिस दिन घर में भिटौली आती उस दिन उत्सव का माहौल हो जाता, भिटौली के पकवानों को वह अपने परिवार,गांव में बाँटती हैं। किन्तु आज पहाड़ पर पलायन, बदलते सामाजिक परिवेश और भौतिकतावाद का जिन परंपराओं पर असर पड़ा उनमें भिटौली भी प्रमुख है। आज आधुनिकता के दौर में भिटौली से जुड़े इन गीतों का औचित्य भी विलुप्त होते जा रहा है।
वर्ष दिन को पैलो मैहणा,
मेरि ईजु भिटौली ऐजा।।
आयो भिटौली म्हैणा,
मेरि ईजु भिटौली ऐजा।।
कुमाँऊ में अब चैत्र में भिटौली की गठरी अब सिर पर रखकर जाने वाले नहीं दिखते। आधुनिक नई पीढ़ी के लोग इसे थोपी हुई परंपरा मानकर ज्यादा तवोज्जो भी नहीं देना चाहते। वर्षो से चैत्र में बहनों और बेटियों को भिटौली देने की परंपरा के पीछे जो सांस्कृतिक परंपरा जुड़ी थी वह लगभग समाप्त होते जा रही है। लेकिन गांव आज भी इन परंपराओं को संरक्षित किये हुये हैं।
बसंत की बयार को घर-घर बांटने की परंपरा है। फूलदेई बसंती उल्लास के पर्व फूलदेई सक्रांति से एक माह तक अनवरत घर की दहलीज को रंग-बिरंगे फूलों की खुशबू से महकाने वाला चैत्र मास आ गया है। गांवों में कुछ परंपराएं बड़ी शिद्दत के साथ निभाई जा रही हैं। फूलदेई सक्रांत और पूरे चैत्र मास में घर की देहरी पर फूल डालने की परंपरा भी इन्हीं में से एक है। ऋतुराज वसंत प्राणी मात्र के जीवन में नई उमंग लेकर आता है।
गांवों में चैत्र मास में ही फूलदेई का त्यौहार भी मनाया जाता है। देवभूमि उत्तराखण्ड का राजकीय वृक्ष बुरांश इस समय खिलकर वनों की शोभा बढ़ाता हुआ आकर्षण का केन्द्र बना रहता है। वनों के बढ़ते दोहन से आज राजकीय वृक्ष खुरांश का अस्तित्व भी संकट में है। इस समय बसंत की बहार लिये हुए विभिन्न वृक्षों पर फूल खिले रहते हैं और धरती पितांबर ओढ़े रहती है। फूलदेई पर बच्चों द्वारा 'फूलदेई क्षमा दे, सासु ब्वारी भर भकार' आदि गीत कहकर घरों की देहरी पूजन किया जाता है। बच्चों को इस अवसर पर चावल, गुड़ भेंट किया जाता है। बच्चे बड़ों का आर्शीवाद लेकर मंदिरों एवं गांव घरों में फूल लेकर देहरी पूजन करते हैं। फूलों का पर्व फूलदेई हर रंग में एक आस है, विश्वास और अहसास है। हर पर्व में संस्कृति है, सुरूचि और सौंदर्य है। ये पर्व न सिर्फ कलात्मक अभिव्यक्ति के परिचायक हैं, अपितु इनमें गुंथी हैं, सांस्कृतिक परंपराएं, महानतम संदेश और उच्चतम आदर्शों की भव्य स्मृतियां।
इन सबके केंद्र में सुव्यक्त होती है शक्ति। उस दिव्य शक्ति के बिना किसी त्योहार, किसी पर्व, किसी रंग और किसी उमंग की कल्पना संभव नहीं है। एक मौसम विदा होता है और सुंदर सुकोमल फूलों की वादियों के बीच खुल जाती है श्रृंखला त्योहारों की। श्रृंखला जो बिखेरती है चारों तरफ खुशियों के खूब सारे खिलते-खिलखिलाते रंग। संस्कृति, सभ्यता व परंपराओं को संजोये गांवो में चैत्र मास में झोड़ा गायन का आयोजन किया जाता है। इन अवसरों पर गुड़ का वितरण भी किया जाता है, जिससे आपसी प्रेम भाव, एकता, सौहार्दता को बढ़ावा तो मिलता ही है। साथ ही साथ हमारी परंपरओं को जीवित रखने का कार्य भी किया जाता है। झोड़ा गायन में पारंपरिक वाद्य यंत्रों का भी उपयोग किया जाता है, लेकिन आज सबसे अधिक चिंतनीय प्रश्न यह है कि बढ़ते पलायन से अनेक गांवों में वीरान बाखलियां हमें अविकास का एहसास करा रही हैं।
आधुनिकता और पाश्चातय संस्कृति का प्रभाव भी आज अवश्य ही परंपराओं को संरक्षित करने में बाधक हैं। किन्तु वास्तव में गांवों से ही परंपराऐ जीवित हैं। चैत्र मास में ही गांवों में घरों, रसोईघरों की सफाई एंव पुताई का कार्य भी किया जाता है जो उनके पर्यावरण एंव स्वच्छता प्रेम को भी प्रदर्शित करता है। चैत्र मास में नवरात्रों का भी आयोजन होता है और गांवों में स्थित गोलू मंदिर, कालिका मंदिर, हरज्यू मंदिर, देवी मंदिरों में स्वच्छता के साथ-साथ पूजा-पाठ, भोग आदि का आयोजन भी किया जाता है। देवी-देवताओं से सफलता, सम्पन्नता, खुशहाली के लिए भी कामना की जाती है और महिलाओं द्वारा झोड़ा गायन भी मंदिरों में किया जाता है। इस अवसर पर देवी-देवताओं से खुशहाली की कामना की जाती है।
गांवों ने परंपराओं को संरक्षित करने का जो कार्य किया है, आज इनके संरक्षण के लिए गांवों के अस्तित्व एंव सम्मान को संजोये रखना भी एक चुनौती एंव आवश्यक है। तभी गांव परंपराओं को संजोये रखेगें, जब स्वंय सुरक्षित होंगे। पहाड़ पर लगातार बढ़ रहे पलायन को भी रोकना अत्यंत आवश्यक है, जिससे गांव विरान न हों और देवभूमि उत्तराखण्ड की संस्कृति, सभ्यता, परंपरा को संरक्षित किया जा सके।
कुमाँऊ में अब चैत्र में भिटौली की गठरी अब सिर पर रखकर जाने वाले नहीं दिखते। आधुनिक नई पीढ़ी के लोग इसे थोपी हुई परंपरा मानकर ज्यादा तवोज्जो भी नहीं देना चाहते। वर्षो से चैत्र में बहनों और बेटियों को भिटौली देने की परंपरा के पीछे जो सांस्कृतिक परंपरा जुड़ी थी वह लगभग समाप्त होते जा रही है। लेकिन गांव आज भी इन परंपराओं को संरक्षित किये हुये हैं।
बसंत की बयार को घर-घर बांटने की परंपरा है। फूलदेई बसंती उल्लास के पर्व फूलदेई सक्रांति से एक माह तक अनवरत घर की दहलीज को रंग-बिरंगे फूलों की खुशबू से महकाने वाला चैत्र मास आ गया है। गांवों में कुछ परंपराएं बड़ी शिद्दत के साथ निभाई जा रही हैं। फूलदेई सक्रांत और पूरे चैत्र मास में घर की देहरी पर फूल डालने की परंपरा भी इन्हीं में से एक है। ऋतुराज वसंत प्राणी मात्र के जीवन में नई उमंग लेकर आता है।
गांवों में चैत्र मास में ही फूलदेई का त्यौहार भी मनाया जाता है। देवभूमि उत्तराखण्ड का राजकीय वृक्ष बुरांश इस समय खिलकर वनों की शोभा बढ़ाता हुआ आकर्षण का केन्द्र बना रहता है। वनों के बढ़ते दोहन से आज राजकीय वृक्ष खुरांश का अस्तित्व भी संकट में है। इस समय बसंत की बहार लिये हुए विभिन्न वृक्षों पर फूल खिले रहते हैं और धरती पितांबर ओढ़े रहती है। फूलदेई पर बच्चों द्वारा 'फूलदेई क्षमा दे, सासु ब्वारी भर भकार' आदि गीत कहकर घरों की देहरी पूजन किया जाता है। बच्चों को इस अवसर पर चावल, गुड़ भेंट किया जाता है। बच्चे बड़ों का आर्शीवाद लेकर मंदिरों एवं गांव घरों में फूल लेकर देहरी पूजन करते हैं। फूलों का पर्व फूलदेई हर रंग में एक आस है, विश्वास और अहसास है। हर पर्व में संस्कृति है, सुरूचि और सौंदर्य है। ये पर्व न सिर्फ कलात्मक अभिव्यक्ति के परिचायक हैं, अपितु इनमें गुंथी हैं, सांस्कृतिक परंपराएं, महानतम संदेश और उच्चतम आदर्शों की भव्य स्मृतियां।
इन सबके केंद्र में सुव्यक्त होती है शक्ति। उस दिव्य शक्ति के बिना किसी त्योहार, किसी पर्व, किसी रंग और किसी उमंग की कल्पना संभव नहीं है। एक मौसम विदा होता है और सुंदर सुकोमल फूलों की वादियों के बीच खुल जाती है श्रृंखला त्योहारों की। श्रृंखला जो बिखेरती है चारों तरफ खुशियों के खूब सारे खिलते-खिलखिलाते रंग। संस्कृति, सभ्यता व परंपराओं को संजोये गांवो में चैत्र मास में झोड़ा गायन का आयोजन किया जाता है। इन अवसरों पर गुड़ का वितरण भी किया जाता है, जिससे आपसी प्रेम भाव, एकता, सौहार्दता को बढ़ावा तो मिलता ही है। साथ ही साथ हमारी परंपरओं को जीवित रखने का कार्य भी किया जाता है। झोड़ा गायन में पारंपरिक वाद्य यंत्रों का भी उपयोग किया जाता है, लेकिन आज सबसे अधिक चिंतनीय प्रश्न यह है कि बढ़ते पलायन से अनेक गांवों में वीरान बाखलियां हमें अविकास का एहसास करा रही हैं।
आधुनिकता और पाश्चातय संस्कृति का प्रभाव भी आज अवश्य ही परंपराओं को संरक्षित करने में बाधक हैं। किन्तु वास्तव में गांवों से ही परंपराऐ जीवित हैं। चैत्र मास में ही गांवों में घरों, रसोईघरों की सफाई एंव पुताई का कार्य भी किया जाता है जो उनके पर्यावरण एंव स्वच्छता प्रेम को भी प्रदर्शित करता है। चैत्र मास में नवरात्रों का भी आयोजन होता है और गांवों में स्थित गोलू मंदिर, कालिका मंदिर, हरज्यू मंदिर, देवी मंदिरों में स्वच्छता के साथ-साथ पूजा-पाठ, भोग आदि का आयोजन भी किया जाता है। देवी-देवताओं से सफलता, सम्पन्नता, खुशहाली के लिए भी कामना की जाती है और महिलाओं द्वारा झोड़ा गायन भी मंदिरों में किया जाता है। इस अवसर पर देवी-देवताओं से खुशहाली की कामना की जाती है।
गांवों ने परंपराओं को संरक्षित करने का जो कार्य किया है, आज इनके संरक्षण के लिए गांवों के अस्तित्व एंव सम्मान को संजोये रखना भी एक चुनौती एंव आवश्यक है। तभी गांव परंपराओं को संजोये रखेगें, जब स्वंय सुरक्षित होंगे। पहाड़ पर लगातार बढ़ रहे पलायन को भी रोकना अत्यंत आवश्यक है, जिससे गांव विरान न हों और देवभूमि उत्तराखण्ड की संस्कृति, सभ्यता, परंपरा को संरक्षित किया जा सके।


अनेक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लेख, कविताएं लिख धुके लेखक भुवन विष्ट, रानीखेत जिला अल्मोड़ा।

bhuwanbisht1131@gmail.com
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