सांस्कृतिक सामाजिक ऐतिहासिक विरासत की पहचान-स्यालदे बिखोती मेला
लेखक: भुवन बिष्ट
(इस दिन स्नान का विशेष महत्व है। बिखौती मेले का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है। द्वाराहाट के पूरे पाली पछाऊ क्षेत्र की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक,सामाजिक, विरासत की पहचान है।)
देवभूमि उत्तराखण्ड सदैव ही अपनी परंपराओं, संस्कृति के लिए
विश्वविख्यात है। परंपराऐं हमारी एकता अखण्डता को भी दिखलाती है, हमारी
परंपरओं की पहचान हैं हमारे त्यौहार एंव मेले, जिनका ऐतिहासिक सामाजिक
महत्व भी है । मेलों मे प्रमुख स्थान है द्वाराहाट (द्वारिका) में लगने
वाला स्यालदे बिखौती मेला। विषुवत् संक्रान्ति ही बिखौती नाम से जानी जाती
है।
इस दिन स्नान का विशेष महत्व है । बिखौती मेले का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है। द्वाराहाट के पूरे पाली पछाऊ क्षेत्र की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, विरासत की पहचान है स्याल्दे बिखौती मेला इससे अतीत के गौरव, राजा एंव प्रजा के बीच आपसी सामंजस्य मेल मिलाप से जुड़ा ऐसा उत्सव देखने को मिलता है जब विमांडेश्वर और द्वाराहाट में ईतिहास जीवंत हो उठता है। द्वाराहाट कस्बे में सम्पन्न होने वाला स्याल्दे बिखौती का प्रसिद्ध मेला प्रतिवर्ष वैशाख माह में सम्पन्न होता है। हिन्दू नव संवत्सर की शुरुआत ही के साथ इस मेले की भी शुरुआत होती है जो चैत्र मास की अन्तिम तिथि से शुरु होता है। यह मेला द्वाराहाट से आठ कि.मी. दूर प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर और द्वाराहाट बाजार में लगता है। मेला दो भागों में लगता है। पहला चैत्र मास की अन्तिम तिथि को विभाण्डेश्वर मंदिर में तथा दूसरा वैशाख माह की पहली तिथि को द्वाराहाट बाजार में। मेले की तैयारियाँ गाँव-गाँव में एक महीने पहले से शुरु हो जाती हैं। बैशाख के एक गते से आयोजित होने वाले स्याल्दे बिखौती मेले का ऐतिहासिक महत्व माना जाता है कि इस मेले का शुभारंभ ग्यारवीं सदी में कत्यूर वंशी राजा गुजर देव के शासन काल में माना जाता है।
बाद में कत्यूरी राजाओं ने अपने अपने शासनकाल के अनुसार इस परंपरा को अध्यात्म, रण कौशल, से जोड़ा गया। ईतिहास के अनुसार देवभूमि की सांस्कृतिक विरासत को संजोने व मूर्तिकला के रूप में मेले का विकास का श्रेय कत्यूरी राजा सुधार देव को जाता है। लगभग बारहवीं सदी में मां शीतला देवी व पोखर का निर्माण भी कत्यूरी राजाओं द्वारा करवाया गया । द्वाराहाट के विमांडेश्वर मेले के दूसरे दिन द्वाराहाट में शीतला देवी की पूजा की जाती है । पोखर के स्थान को ही वर्तमान में शीतला पुष्कर मैदान कहा जाता है, इसी स्थान में कभी पोखर था जिसमें कमल के फूल खिलते थे। मेले में द्वाराहाट क्षेत्र के गांवों के साथ साथ दूर दूर गांवों से भी लोग उत्साहपूर्वक मेले में भाग लेते हैं। स्यालदे बिखौती मेले का मुख्य आकर्षण ओड़ा (वौण) भेटने की रस्म है । ओड़ा भेंटकर लोग स्वंय को गौरवान्वित अनुभव करते है। क्षेत्र के आसपास के विभिन्न गांवों के लोग अलग अलग समूहों में आकर ओड़ा भेंटने की रस्म निभाते हैं।
स्याल्दे बिखौती मेले के दिन ओड़े को विशेष रूप से भव्य एंव आकर्षक तरीके से सजाया जाता है। मान्यता है कि विभिन्न गांवों के लोग समूहों में नगाड़ों निशाणों के साथ आकर इस ओड़े के ऊपर लाठी से प्रहार करके गर्व अनुभव करते हैं इसी परंपरा को ओड़ा भेंटना कहा जाता है। पहले कभी यह मेला इतना विशाल था कि अपने अपने दलों के चिन्ह लिए ग्रामवासियों को ओड़ा भेंटने के लिए दिन-दिन भर इन्तजार करना पड़ता था। सभी दल ढोल-नगाड़े और निषाण से सज्जित होकर आते थे। तुरही की हुँकार और ढोल पर चोट के साथ हर्षोंल्लास से ही टोलियाँ ओड़ा भेंटने की रस्म अदा करती थीं। लेकिन बाद में इसमें थोड़ा सुधार करके आल, गरख और नौज्यूला जैसे तीन भागों में सभी गाँवों को अलग-अलग विभाजित कर दिया गया।
इन दलों के मेले में पहुँचने के क्रम और समय भी पूर्व निर्धारित होते हैं। स्याल्दे बिखौती के दिन इन धड़ों की सजधज अलग ही होती है। हर दल अपने- अपने परम्परागत तरीके से आता है निशाणों को शांति, देवी की शक्ति, युद्ध का प्रतिक भी माना जाता है। निशाणों को लाने से पहले इनकी विशेष रूप से पूजा की जाती है। मेले में शामिल नगाड़ा निशाणों (ध्वजा) की संख्याओं के आधार पर ही शामिल होने वाले गांवों की संख्या के बारे में अनुमान लगाया जाता है। मान्यता के अनुसार इस रस्म को छोटी छोटी रियासतदारों के आपसी संर्घष से उपजी परंपरा भी माना जाता है।
इसका आगाज लगभग सत्रहवीं सदी से माना जाता है। कत्यूरी शासकों की वीर रस से भरी इस कौतिक परंपरा को अन्य शासकों ने भी आगे बढ़ाने के साथ साथ इसका कुमांऊ के अन्य क्षेत्रों में भी विस्तार किया। रानीखेत के जैनोली पिलखोली क्षेत्र (सैमधार )में भी इस परंपरा के त्यौहार को बूढ़ चैताव के नाम से मनाया जाता है। स्यालदे बिखौती मेले के बित्रानी शासक भी मुरिद थे। स्याल्दे बिखौती मेले के लिए गांवों में पहले से ही झोड़ा गायन की तैयारियां शूरू हो जाती हैं गांवों मे महिलाओं और पुरूष इसके लिए पहले से ही विशेष रूप से तैयारियों में जुट जाते हैं। इसके साथ साथ पारंपरिक वाद्य यंत्रों ढोल, दमुवा, नगाड़े, निशाणों को भी मेले के लिए तैयार किया जाता है। स्याल्दे बिखौती मेले को भव्य व आकर्षक बनाने के लिए हर गांव वाले अपने अपने गांव स्तर से भी झोड़ो की तैयारियां व पारंपरिक वाद्य यंत्रो को विशेष रूप से तैयार करते हैं। आसपास के गांवों एंव पूरे पाली पछांऊ क्षेत्र में स्यालदे बिखौती मेले का बेसब्री से इंतजार रहता है।
बित्रानी काल से ही बारी बारी से ओड़ा भेंटने की रस्म चली आ रही है जिससे कि धड़ों में आपसी टकराव न हो। ओड़ा सबसे पहले भेंटने के लिए किसी एक धड़े को नियुक्ति किया जाता है और वहीं धड़ा सबसे पहले ओड़ा भेंटने की रस्म निभाता है उसके बाद सभी गांवों के लोग निशाणों के साथ ओड़ा भेंटने की रस्म निभाते हैं। ओड़ा भेंटने की रस्म में लोग एक रणबांकुरे की भूमिका में नजर आते हैं। मेले एंव त्यौहार हमारी परंपराओं को संरक्षित करने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। आज आधुनिकता की चकाचौंध में देवभूमि की संस्कृति, सभ्यता, एंव परंपराओं को संरक्षित करने के लिए सभी को प्रयासरत रहना चाहिए।
अनेक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लेख, कविताएं लिख धुके लेखक भुवन विष्ट, रानीखेत जिला अल्मोड़ा।

bhuwanbisht1131@gmail.com
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