
हमार पहाड़पन, अणकसै हैरौ
रचनाकार: दुर्गा दत्त जोशी
अच्यान हमार पहाड़पन, अणकसै हैरौ।
खेति पाति उजड़ि गै, कौंनी, विकास हैरौ।
गौं उजड़ि गई हो, सबै सड़क में ऐ रई।
काम धंध छाड़ि हालि, बजार में भै रई।
पेंनि भैंस पालि छी, दै दूद हुंनेर भाय।
आपणि खेति पाति भै, नानतिन पहलवान भाय।
अच्यान शराब चलि रौ, ज्वान लकड़ि रई।
झिकड़ फसाद बड़ि गई, बिमति, बिगड़ि गई।
कि कौंनौं हो पहाड़ाक रंग ढंग औरै है रई।
कदुक भल मुलुक छियो, आब कां न्है गई।
अच्यान हमार पहाड़पन, अणकसै हैरौ।
खेति पाति उजड़ि गै, कौंनी, विकास हैरौ।
गौं उजड़ि गई हो, सबै सड़क में ऐ रई।
काम धंध छाड़ि हालि, बजार में भै रई।
पेंनि भैंस पालि छी, दै दूद हुंनेर भाय।
आपणि खेति पाति भै, नानतिन पहलवान भाय।
अच्यान शराब चलि रौ, ज्वान लकड़ि रई।
झिकड़ फसाद बड़ि गई, बिमति, बिगड़ि गई।
कि कौंनौं हो पहाड़ाक रंग ढंग औरै है रई।
कदुक भल मुलुक छियो, आब कां न्है गई।


दुर्गा दत्त जोशी जी द्वारा फेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी से साभार
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