
सेब-Apple (भाग-१)
लेखक: शम्भू नौटियाल
सेब (Apple) वानस्पतिक नाम:- Malus pulmila or Malus sylvestris Mill है जो कुल रोजेसी (Rosaceae) से संबंधित है। सेब एक ऐसा (शीतोष्ण कटिबंधीय) फल हैं जो केवल ठंडी जलवायु में ही उगाया जा सकता हैं। सेब को फलने-फूलने के लिए पर्याप्त ठंडक का होना अति आवश्यक हैं। इसके लिए सर्दियों में लगभग 2 से 3 महीने 45 डिग्री फारेनहाइट एवं उससे नीचे तापमान की आवश्यकता होती हैं। सेब के बगीचे उन स्थानों पर सफल नहीं हो पाते है जहाँ अप्रैल माह में पाले का प्रकोप बहुत अधिक होता हैं।
उन सभी पहाड़ियों पर सेब उगाया जा सकता हैं जिनकी ऊँचाई 1500-2400 मीटर तक होती हैं। जिन स्थानों पर वर्षा अधिक होती हैं वह स्थान सेब के लिए उपयुक्त नही होते हैं। इसके लिए वार्षिक वर्षा 100-125 सेमी० तक होनी चाहिये। सेब की उत्पत्ति पश्चिमी एशिया के काला सागर एवं कैस्पियन सागर" के बीच किसी शीतोष्ण भाग में हुई हैं। यहाँ से यूरोप और संसार के दूसरे शीतोष्ण भागों में इसके पौधे का वितरण हुआ तथा इस समय भारत के पहाड़ी भागों में उगाये जाने वाले फलों में इसका मुख्य स्थान हैं।
कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि सेब सबसे पहले मध्य एशियाई देश कजाखिस्तान में पैदा हुए थे। यहीं से ये बाकी दुनिया तक पहुंचे। यूं तो आज दुनिया के तमाम देशों में सेब उगाए जाते हैं। जैसे भारत में ही कश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल में सेब की कई नस्लें पैदा की जाती हैं। मगर वैज्ञानिक मानते हैं कि कजाखिस्तान के पहाड़ी इलाको में अभी भी सेब की कई नस्लें ऐसी हैं जो बाकी दुनिया को मालूम नहीं हैं। इनकी ख़ूबियां तलाशने के लिए अमरीकी वैज्ञानिक फिल फोर्सलाइन 1993 में कजाखिस्तान गए थे। 
फिल अपने तजुर्बे से बताते हैं कि कजाखिस्तान के जंगली सेबों में कई ऐसी खूबियां हैं जिनकी मदद से सेबों की नई नस्लें विकसित की जा सकती हैं। सेब की पहली नस्ल 'मालस सिएवर्सी' मानी जाती है। ये प्रजाति आज भी कजाखिस्तान के जंगलों में उगती है। जंगलों में इन सेबों के किसान होते हैं जंगली भालू। जो सेब कुतरकर इसके बीज यहां-वहां बिखेर देते हैं। असल में कजाखिस्तान के जंगलों में मधुमक्खियां, एक पेड़ के बीज दूसरे से मिला देती हैं। इस क़ुदरती मेल-जोल से जंगलों में सेब की सैकड़ों नई नस्लों के पेड़ पैदा हो गए थे।
दुनिया भर में सेब की 8300 से अधिक किस्में पाई गई है। सेब उत्पादन में अग्रणी देश भी अपनी जलवायु, बाजार की मांग, उपभोक्ताओं के स्वादानुसार साल दर साल सेब की नवीनतम किस्में इजाद करने में जुटे रहते हैं। इसी के परिणामस्वरूप एक ही प्रजाति के सेब की कई किस्में विकसित कर ली गई है। पश्चिमी देशों की बात करें तो वहां अब गाला व ग्रेनी स्मिथ जैसे सेब की अधिक मांग है। इसी वजह से इन देशों में हर साल गाला प्रजातीय सेब की नयी किस्में विकसित की जा रही है। जिनमें लाल रंग और स्वाद की गुणवत्ता को सुधारने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं, अगर एशियाई देशों की बात की जाए तो यहां के उपभोक्ताओं का स्वाद कुछ अलग है। यहां के लोग अधिकतर मीठा फल खाना पसंद करते हैं, इसलिए यहां पर सेब की डिलीशियस किस्मों की पैदावार पर अधिक बल दिया जाता है।

ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की बात की जाए तो वहां का फल उत्पादक और फल अनुसंधान आज के हिसाब सबसे कुशाग्र है। इसकी वजह यह है कि उनके पास अपर्याप्त उपभोक्ता होने के कारण उन्हें अधिकतर फल एशियाई बाजार में निर्यात करने होते है। इस चुनौती से निपटने का उन्होंने सरल तरीका ढूंढ लिया है। उन्होंने सेब व नाशपाती की एशियाई और यूरोपीय किस्मों को क्रॉस ब्रीड करके इन फलों की नई किस्में तैयार की है। जो स्वाद में एशियाई किस्मों की तरह मीठी और यूरोपीय किस्मों की तरह भंडारण क्षमता से भरपूर है।
वैश्वीकरण के दौर में इन किस्मों को पाना एक बागवान के लिए अधिक चुनौती भरा काम नहीं है। लेकिन असल बात यह है कि इन सैकड़ों किस्मों में से अपने बागीचे के लिए सबसे बेहतर विकल्प की तलाश करना ऐसा है जैसे किसी खेत में सुई तलाशना। फिर भी कुछ बिंदुओं को ध्यान में रखकर उत्तराखंड के बागवान अपने बागीचे के लिए सेब की सही किस्म का चुनाव कर सकते है। सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि सेब की किस्में 3 तरह की होती है। स्पर, सेमी स्पर और स्टैंडर्ड। स्पर किस्में बौनी प्रवृति की होती है जिनकी ग्रोथ कम होती है। इन किस्मों में स्कारलेट सीरीज, रेड कैप, रेड कान, कैम स्पर, सुपर चीफ इत्यादि शामिल हैं। सेमी स्पर किस्में वह किस्में होती है जिनमे ग्रोथ रेट ज्यादा बेहतर होता है। इनका आकार स्पर किस्मों के मुकाबले बडा होता है। इनमे एडम्स, ऐस स्पर, किंग रॉट, रेड विलॉक्स, ओरेगन स्पर 2, जेरॉमाइन वगैरह शामिल है।
स्टैंडर्ड किस्में वह होती है जिनकी ग्रोथ अत्यधिक होती है। यह किस्में उत्पादन भी देरी से शुरू करती है। इनमे रॉयल, वांस, हैपका, ग्रेनी स्मिथ, फूजी, गाला, गोल्डन जैसी किस्मों को शामिल किया जाता है। किसी भी किस्म के चयन से पहले बागवान अपने बागीचे की ऊंचाई अवश्य जान लें। क्योंकि आमतौर पर देखा गया है कि कम ऊंचाई वाली जगहों पर सेब के पौधों में ग्रोथ तो ठीक ठाक होती है किन्तु फलों में ठीक ढंग से रंग नहीं आता। जिसके कारण मार्केट में ऐसे फलों की अधिक मांग नहीं रहती। ऐसी जगहों के लिए बागवानों को अधिक रंगत वाली किस्मों एडम्स, जैरोमाइन, रेड विलॉक्स, स्कारलेट स्पर 2 का चुनाव करना चाहिए। अगर ऐसी जगहों पर सिंचाई व्यवस्था हो और बागवान जल्दी तैयार होने वाली किस्मों पर काम करना चाहते है तो वह गाला प्रजाति के डार्क बैरोन, गलावल, जुगाला, रेडलम गाला जैसी किस्मों को आजमा सकते हैं।
मीडियम बेल्ट के सेब बागवानों को अधिक रंगत वाली किस्मों के चुनाव से बचना चाहिए। एक बात यह भी है कि डिलीशियस प्रजाति में काफी मेहनत लगती है। इसके पेड़ बड़े होते हैं और ज्यादा जगह घेरते हैं। इसलिये पिछले कुछ सालों में कई काश्तकारों ने इसकी जगह स्पर प्रजाति लगाई। स्पर प्रजाति के पेड़ उतनी ही जगह में दुगने लग जाते हैं और उत्पादन ज्यादा होता है। उत्तराखंड में प्रमुख नकदी फसलों में शुमार सेब को आर्थिकी का मुख्य जरिया बनाने की दिशा में सरकार ने भी कदम बढ़ा दिए हैं। मिशन एप्पल के तहत प्रदेश में सेब उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए स्पर प्रजातियों को बढ़ावा दिया जा रहा है।
इसके लिए रूट स्टॉक पर ग्राफ्टिंग के जरिये इनकी पौध तैयार कर किसानों को वितरित की जा रही हैं। स्पर प्रजातियां कम समय में अधिक उत्पादन देती हैं। पेड़ छोटे होने के कारण इनके प्रबंधन में अधिक सहूलियत रहती है। प्रदेश में वर्तमान में करीब 26 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में सेब की खेती होती है। उत्तरकाशी समेत अन्य पर्वतीय जिलों में यह प्रमुख नगदी फसलों में शुमार है। उत्तराखंड में मिशन एप्पल के अंतर्गत सेब की अधिक उत्पादन देने वाली स्पर प्रजातियों पर ध्यान केंद्रित करने पर जोर दिया जा रहा है। स्पर प्रजातियां अधिक फायदेमंद हैं। एक तो ये तीन साल में ही फल देने लगती हैं और इनके फल का आकार भी एक समान होता है। पेड़ छोटे होने के कारण इनके प्रबंधन में आसानी रहती है।
अच्छी बात ये है कि स्पर प्रजातियां हर साल फल देती हैं। जाहिर है कि इससे सेब उत्पादन को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। सेब में उत्तराखंड का तीसरा नंबर है। भारत में तीन राज्यों में सेब का उत्पादन होता है। इसमें कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड है। नॉथ ईस्ट के भी कुछ राज्यों में सेब होता है, लेकिन वो बहुत कम है। कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में भी सबसे ज्यादा सेब जम्मू कश्मीर में होता है। भारत का कुल 24 लाख टन सेब उत्पादन का साठ फीसद कश्मीर में होता है। उसके बाद हिमाचल का नंबर आता है। जहां हर साल ढाई करोड़ पेटी सेब देश और विदेश की मंडियों में जाता रहा है। उसके बाद उत्तराखंड हैं। जहां मुख्य रूप से चार जिलों देहरादून, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा और नैनीताल में सेब के बगीचे हैं।
इनमें सबसे ज्यादा उत्तरकाशी की हर्षिल सेब पट्टी है। विशेषकर गुणवत्ता के मामले में हर्षिल क्षेत्र के सेब अव्वल माना जाता है। हर्षिल के सेब की खासियत का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि इस सेब की डिमांड भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी है। हर्षिल के इस मशहूर सेब की पहली पौध क्षेत्र में अंग्रेजी सेना छोड़ने वाले एक भगोड़े अंग्रेज सैनिक ने की थी। यही नहीं वह भागीरथी की घाटी में स्थायी रूप से बसने वाला पहला अंग्रेज भी था। इंग्लैंड निवासी फ्रेडरिक विल्सन मेरठ में कंपनी की सेना में तैनात था। अंग्रेज-अफगान युद्ध के समय अंग्रेजी सेना छोड़ मसूरी पहुंचे। यह साल सन 1841 था। इसके बाद विल्सन हर्षिल घूमने तो यहां की वादियां इतनी भाई कि यहीं के होकर रह गए। स्थानीय लोगों का साथ विल्सन को इतना भाया कि उन्होंने गढ़वाली बोली भी सीखी और पास के ही गांव मुखबा की लड़की से शादी भी कर ली।
स्थानीय लोग विल्सन को राजा कहने लगे। 1864 में विल्सन ने इंग्लैंड से सेब की पौधे मंगवाकर लगवाए। साथ ही नाशपाती के बागीचे और सफेद राजमा भी लगाकर आसपास के गांव वालों को कृषि बागवानी के लिए प्रेरित किया। वर्ष 1960 के बाद सेब उत्पादन में लोगों की रुचि बढ़ी तो यह व्यवसाय के तौर पर अपनाए जाने लगा। वर्तमान में उत्तरकाशी जिले में करीब दस हेक्टेयर क्षेत्रफल में सेब के बगीचे हैं और प्रतिवर्ष करीब 20500 मीट्रिक टन उत्पादन होता है।
बिगत दो वर्षों से हर्षिल में जिला प्रशासन की मुहिम पर एप्पल फेस्टिवल का आयोजन किया जा रहा है। जनपद में पहलीबार जिलाधिकारी डाॅ. आशीष चौहान जी व गंगोत्री के माननीय विधायक गोपाल सिंह रावत जी की सराहनीय पहल पर 1 व 2 अक्टुबर 2018 में हर्षिल सेब को ब्रेंड नेम दिलाने के साथ ही स्थानीय युवाओं को रोजगार दिलाने व वागवानों की आर्थिकी मजबूत करने के साथ ही पर्यटन से जोड़ने को लेकर एप्पल फेस्टिवल का आयोजन किया गया इस ऐतिहासिक एप्पल फेस्टिवल के अवसर पर हर्षिल क्षेत्र में आठ गांव को फल पट्टी के रूप में विकसित करने हेतु झाला में बनें 810.94 लाख से निर्मित कोल्ड स्टोर एवं 107.00 लाख की लागत के सेटिंग ग्रेडिंग यूनिट का शुभारंभ किया गया। कोल्ड स्टोर में 20 प्रतिशत जगह क्षेत्रीय बागवानों के लिए रिजर्व रखी गयी है, स्थानीय वागवानों को 01 रूपये 10 पैसा प्रति किलो प्रतिमाह की दर से शुल्क देना पड़ेगा। कोल्ड स्टोर में करीब 1लाख सेब की पेटियां रखे जाने की क्षमता है।
लेकिन एक वर्ष बाद समाचार पत्रों के माध्यम से पता चला है कि किसानों के लिए हर्षिल वैली के झाला में बीते साल खुला कोल्ड स्टोर किसानों की उम्मीद पर उतना खरा नहीं उतरा है। क्योंकि 810.94 लाख लागत से बने 1200 मीट्रिक टन क्षमता के कोल्ड स्टोर के संचालन को कृषि उत्पादन विपणन बोर्ड ने इसे निजी कंपनी को तीन साल के लिए लीज पर दे दिया था। लेकिन इसमें मंडियों में ‘ए’ ग्रेड में बिकने वाले उनके डेलीसस प्रजाति के सेब का ‘बी’ ग्रेड में वर्गीकरण कर किसानों को 15 से 27 रुपये प्रति किलो की दर से सेब बेचने को मजबूर किया गया। यही सेब मंडियों में 38 से 40 रुपये प्रति किलो की दर से बिकता है। यूं तो कोल्ड स्टोर में किसानों के लिए सेब स्टोरेज हेतु 25 प्रतिशत स्थान नियत है, लेकिन सेब खरीद के दौरान ग्रेडिंग में गड़बड़ी की आशंका के चलते अधिक किसानों ने यहां अपना सेब बेचने में रुचि नहीं दिखायी।
यही कारण है कि 1200 मीट्रिक टन क्षमता वाले कोल्ड स्टोर में महज 1.5 मीट्रिक टन सेब ही स्टोर हो पाया। स्थानीय काश्तकारों का कहना है कि कोल्ड स्टोर में रंग व आकार के आधार पर ग्रेडिंग की व्यवस्था नहीं की गई, जिससे यहां कुल उत्पाद का 70 प्रतिशत सेब ‘बी’ ग्रेड बताकर मंडी से आधी कीमत पर खरीदा गया। जहाँ प्रथम एप्पल फेस्टिवल प्रदर्शनी में रेडचीफ, सुपर चीफ, गेल काला, आर्गन स्पर, जीजर गोल्ड, पिंक लेडी,, ग्रीमी स्मिथ ग्रेमी चेलेंजर, ब्लेक रायल, ब्लाक्स, ऐस स्पर, रायल डेलीसिएस, रायल रेड गोल्ड डेलिसिएस, रेड गोल्ड, राइमर, जोनाथन, फेनी आदि सेब की प्रजातियाँ दिखीं वहीं इंस्टिट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट देहरादून की ओर से हर्षिल के उत्पादित सेब से 13 प्रकार के व्यंजन बनाये गये थे जिसमें फ्रूट चाट, वल्डडूफ सलाद, एप्पल चाट, जैम चाट, सुडर, जुजुप्स, पाई, टार्ट, क्रिमवल, ब्रेड, ड्राइकेक, केक, जूस आदि व्यंजन आकर्षणा केन्द्र रहा।
दूसरे वर्ष एप्पल फेस्टिवल 8-9 अक्टूबर को 2019 को सम्पन्न हुआ जिसमें हर्षिल घाटी के पुराने बर्तन, आभूषण, औजार, वाद्ययंत्र, कपड़े आदि की प्रदर्शनी के साथ सेब की प्रदर्शनी भी लगायी जाती है प्रदर्शनी में रेड चीफ, ऑर्गन स्पर, सुपर चीफ, गाला, गोल्डन डेलीशियस, रॉयल डेलीशियस, रेड डेलीशियस, फैनी, रॉयमर, जोनाथन, बकिंघम, रेड ब्लाक, जिंजर गोल्ड, पिंक लेडी, ग्रेमी स्मिथ, रेड गोल्डन, ग्रीन स्वीट, रेड फ्यूजी, क्रेब एप्पल आदि 23 प्रजाति के सेब दिखाई दिये। इस फेस्टिवल में माननीय मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत भी पहुंचे और सेब का बना केक काटा। फेस्टिवल में सेब की विभिन्न किस्मों की प्रजातियों की प्रदर्शनी, फोटो गैलरी और गढ़ संग्रहालय का अवलोकन भी किया।
पहले उत्तरकाशी के सेब हिमाचल प्रदेश की पेटियों में बाजार तक पहुंचते थे जिससे सेब उत्पादकों में काफी मायूसी रहती थी लेकिन अब उद्यान विभाग ने हिमाचली क्वालिटी की पेटियों में ही उत्तराखंड एप्पल में प्रिंट करवाकर 50 फीसदी सब्सिडी पर काश्तकारों को मुहैया कराने का उत्तम प्रयास किया है। क्योंकि उत्तराखंड में बनने वाली सेब पेटियां अच्छी क्वालिटी की न होने के कारण इसे नापंसद किया गया था इसलिऐ हिमाचल एप्पल पेटियों में सेब की पैकिंग करना काश्तकारों की मजबूरी रहती थी। इस वर्ष लाॅकडाउन के कारण मधुमक्खियों हेतु ससमय मौन बाक्स उपलब्ध न होना सेब के काश्तकारों के लिऐ चिंता का विषय बना हुआ है। चूंकि मधुमक्खियों का परागण में अहम योगदान है।

उत्तराखंड में सेब की किस्में, उत्पादक क्षेत्र उस क्षेत्र की ऊंचाई, जलवायु व परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग होती है। क्योंकि सेब की किस्में एक निश्चित क्षेत्र की ऊंचाई और वहां की जलवायु के अनुसार विकसित होती है। वह किस्म दूसरी ऊंचाई वाले के स्थान के लिए अनुकूलित नहीं हो सकती। इसी तरह जो सेब की किस्में एक वातावरण में अच्छी पैदावार देती है, वो अन्य इलाके के अलग वातावरण में शायद उतनी अच्छी पैदावार न दे। ऐसे में बागवानों को अपने इलाके की ऊंचाई, वातावरण व परिस्थितियों के हिसाब से ही सेब की किस्में लगाने के लिए चुनाव करना चाहिए।
अल्मोड़ा जिले के चौबटिया में करीब 235 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैला सेब का बागान एशिया का सबसे बड़ा एप्पल गार्डन है। यहां फिल्मों की शूटिंग होती थी, लोग इस सेब बागान की खूबसूरती को निहारने के लिए आते थे, लेकिन वक्त के थपेड़ों या अनदेखी ने बाग की रौनक छीन ली। देखभाल के अभाव में ये बागान सिमटता चला गया। बागान का उत्पादन लगातार कम होता जा रहा है। आज ये बागान अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहा है। कभी यह बागान 235 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला था, जहां सीजन में 500 कुंतल से ज्यादा सेब की पैदावार होती थी। आज सेब का उत्पादन क्षेत्र घटकर 106.91 हेक्टेयर रह गया है। यहां 17 हजार फल वृक्ष हैं, लेकिन उत्पादन सिर्फ 20 से 30 कुंतल तक सिमट कर रह गया है।
Chaubatia Apple Orchard Almora साल 1955-56 मे अस्तित्व में आया था। यहां हिमालयी रेड डिलिसियस एप्पल के पेड़ हुआ करते थे, पर बाद में यहां अमेरिकन सेबों की पौध लगा दी गई। इसके साथ ही बागान के बुरे दिन शुरू हो गए, फलों का उत्पादन घटने पर अब यहां रिसर्च सेंटर बनाने की तैयारी चल रही है। सरकार अगर एप्पल गार्डन के उद्धार पर ध्यान दे तो ये आजीविका, पर्यटन और आर्थिकी का मजबूत साधन बन सकता है। स्थानीय लोग भी चौबटिया गार्डन को दोबारा स्थापित होते देखना चाहते हैं व नए सिरे से विकसित करने की मांग कर रहे हैं, ताकि इसका वजूद बचाया जा सके।

0 टिप्पणियाँ