
अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता
स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद
पछिल अध्याय-१२ बै अघिल
तेरूँ अध्याय - क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
श्री भगवान बलाण
यो शरीर संसार जामों जाँ कौन्तेय। सब क्षेत्र कईं।
आपण खेत जा भली पछाण ल्हीं ऊ आपणो क्षेत्रज्ञ कईं।01।
मैं कन ही क्षेत्रज्ञ समझ तू,सब क्षेत्रन को हे भारत!
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ज्ञान छऽ उत्तम ज्ञान मेरा मन में।02।
काँछ् क्षेत्र ऊ? कतुक क्षेत्रफल? कतुक उपज औ कसिकै भै?
कस विकार औ कस प्रभाव छ सब संक्षेप में मैं थें सुण।03।
ऋषिगण लै नाना गीतन में, बहु छन्दन में विविध प्रकार।
ब्रह्म सूत्र कापदन में यै को यथायोग्य करनी विस्तार।04।
महाभूत औ अहंकार भै मूल प्रकृति बै बुद्धिरु मन।
दश इन्द्रिय छन ज्ञान कर्म की दगड़ै पाँच विषय ले छन।05।
सुख, दुख, इच्छा द्वेष दगै संघात चेतना धृतिलै छऽ
पूरो क्षेत्र विकार सहित यो सब संक्षेप में बतै दियो।06।
दंभ नि हो, अभिमान नि हो, हो क्षमा अहिंसा, सज्जनता।
गुरु सेवा, पवित्रता, स्थिरता, पुर हो मन इन्द्रिय निग्रह।07।
भोगन की तैं हो विराम औ अहंकार की लाग नि हो।
जन्म मरण औ जरा रोग का दुख दोषन कन देखनै रौ।08।
ममता औ आसक्त् िनि हो क्ये दारा सुत घर परिजन की।
कती चित्त विचलित नी हो, हो अनिष्ट या हो मन की।09।
मेरा ही जो ध्यान में बैठी केवल मेरी भक्ति करौ।
भलो लागौ एकान्त सदा ही, जन समूह बै मन हटि जौ।10।
नित्य त्यागी अध्यात्म ज्ञान में तत्वज्ञान को परिशीलन।
यै छ् ज्ञान, ज्ञानी का लक्षण शेष् अन्यथा सब अज्ञान।11।
जाणण योग्य अब ज्ञेय बतैं दीं, जै कन जाणी अमृत मिलौ।
आदि रहित ऊ परब्रह्म देख् सत् लै न्हा ऊ असत लै न्हा।12।
सबै तरफ हूँ हाथ् खुट आँख् छन, सबै तरफ हूँ ख्वार मुख छन
सबै तरफ हूँ लागी कान छन, व्याप्त करी छन लोकन कन ।13।
सब इन्द्रिन को गुणाभास छऽ सब इन्द्रिन बै रहित छ् ऊ।
अनासक्त परद पालन करणी, निर्गुण हुण पर गुण भोगी ।14।
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भितर भरी लै, भेर छई लै, चर लै वी छऽ अचर लै वी।
अती मसिण तब अविज्ञेय छऽ , दूर है दूर निकट लै वी।15।
पूर्ण अखंडित भूतन में ऊ, देखीं परन्तु विभक्त हईं।
ज्ञेयतत्व ही सब भेतन को, जन्म विकास विनाश करूँ।16।
सब ज्योति की परम ज्योति, पर, अंधकार है परे कईं।
ज्ञान ज्ञेय और ज्ञान गम्य छऽ सबना हृदय में बैठी छऽ !17।
एतुकै क्षेत्र ज्ञान ज्ञे छऽ जो संक्षेप में बतै दियो।
मेरो भक्त जो यो सब समझी मेरा भाव मेंऐ जालो।18।
प्रकृति और ऊ पुरुष धनंजय छन द्वीयै अनादि अक्षय।
द्वन्द्व विकार और यो गुणत्रय समझ प्रकृति बै हईं उदय।19।
कार्य करण द्वीयै बणूण में प्रकृतिइ हेतु कई जाँ छऽ।
सुख दुख का उपभोग करण में पुरुष कें हेतु कई जाँ छऽ।20।
प्रकृति संग यो प्रकृति अंग में भोगों प्रकृति जनित गुण संग।
यै गुण संग तरंग रंग डुबि, मिलनी भल नक जन्म प्रसंग।21।
साक्षी सममति दिणिया भर्ता भेक्त और महेश्वर छऽ।
परमात्मा यो पुरुष कई जाँ देह भितर हुण पर ’पर ’ छऽ।22।
जो यो पुरुष पछाणि ल्हीं निर्गुण प्रकृति का वी का गुणन दगै।
सबै भांति वर्तण पर लै ऊ पुनर्जन्म हूँ कभैं नि आ।23।
ध्यान योग लै देखी ल्हिनी क्वे, आत्मा कैं आत्मा भीतर।
क्वे देखनी यै सांख्य योग लै, कर्मयोग करि कोई दुसर।24।
पर क्वे यैकँ नि देखि बेर लै, सुणि सुणि करनी उपासना।
सुणी में श्रद्धा धरणी लै यां तरनी मृत्यु महासागर।25।
यावत् कुल सब स्थावर जंगम, जाँ जतकै उत्पन्न हुँ छऽ।
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ याग का कारण समझ ल्हिये अर्जुन!।26।
नाशवान यै सबै चराचर घट घट भीतर अविनश्वर।
जो समान बैठी परमेश्वर देखनो छऽ वी देखनो छऽ।27।
एकसार सब जाग् देखनो छऽ सम स्वरूप् में परमेश्वर।
आत्म हनन नि हुन ऊ आत्मा तब ऊ पुजौं परम गति कैं।28।
जो देखनो छऽ सब प्रकार का कुल कर्मन कै प्रकृति करैं
और पुरुष कें देखों अकर्ता, वी वास्तव में ठीक देखों ।29।
बहुरूपी इन सब भूतन कैं एकरूप जो देखी सकौं।
औ विस्तार में देखी एक कैं ब्रह्म स्वरूप कैं पाई ल्हीं ।30
अनादि हुण पर, निर्गुण हुण पर ऊ अविनाशी परमात्मा।
रूँ शरीर में कौन्तेय! पर क्ये नि करनश् कैं लिप्त नि हुन।31
जसिकै यो सर्वत्र पहुँचियो, मसिण अकाश लिप्त नी हुन।
उसिकै सारे देह में रूणीं आत्मा कतीं लिप्त नि हुन। 32।
जसिकै एक प्रकाशक रवि लै, सारे लोक में हूँ आलोक।
उसीकै सारे क्षेत्र को भारत! एक प्रकाशक छऽ क्षेत्रज्ञ। 33।
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को अन्तर ज्ञाननेत्र लै जो देखनी।
भूत प्रकृति बै मोक्ष पछाणनी, परम तत्व हूँ ऊँ पुजनी।34।
कृमशः अघिल अध्याय-१४
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