
अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता
स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद
पछिल अध्याय-११ बै अघिल
बारूँ अध्याय - भक्ति योग
अर्जुन बलाण
यै प्रकार जो, सदा युक्त मन, भक्ति सहित कर तुमर भजन।
या जो अक्षर निराकार कन, इन योगिन में ठुल को छनं ।01।
श्री भगवान बलाण
एकमात्र बस मेरा भजन में, नित्य लागी छऽ जनरि लगन।
श्रद्धा पूर्णमेरो ही पूजन, मेरा मत में वी ठुल छन।02।
पर जो अक्षर ब्रह्म अगोचर अकथनीय जो पर है पर।
जो अचिन्त्य नित सब जाग पुजिया अतिशय अचल कूट भजनी।03।
संयम करि जो सब इन्द्रिन कन, नित समबंद्धि ध्यान धरनी।
ऊँ लै मेकन प्राप्त हुनी सब प्राणि मात्र को हित करनी।04।
हुँ छ उनन पैं क्लेश अधिकतर निराकार मेंचित्त जनर।
बिना छुटी अभिमान देह को, अव्यय गति हूँ अति दुष्कर।05।
ऊँ जो सब कर्मन को मेरी तैं, भलि कै करी दिनी सन्यास।
केवल एकाकार योग में, मेरा ध्यान में करौ निवास।06।
उनरो मैंतारण करणी छूँ मृत्यु रूप भव सागर पार।
जनार चित्त में बसी रूँछ मैं उनर करूँ सत्वर उद्धार।07।
मैं में मन कैं लगा औरद वाँ बंद्धि आपणी थिर बैठा।
तब निवास करलै तू मैं में, यै में कोई संशय न्हाँ।08।
यदि तू चित को समाधान करि धरिदनी सकनै मैं में मन।
बार बार अभ्यास योग लै, मेरी इच्छा कर अर्जुन।09।
यदि अभ्यास लै नी करि सकनै, तब मेरी तैं कर्मन करं।
कर्म मदर्थ करण पर लै तू, सकल सिद्धि कैं पै सकलै।10।
कर्ममदर्थ करण हूँ लै यदि तू असमर्थ हई जाँ छै।
मन वश करि उद्योग योग कर सब कर्मन को फल छांड़ि दे।11।
श्रेष्ठ ज्ञान छ अभ्यासन है, ज्ञान है ध्यान विशेष भयो।,
फल को त्याग ध्यान है भल भै, शान्ति निरंतर त्याग बै हूँ।12।
सब प्राणिन हूँ द्वेषरहित जो, सब को मित्र दया करणी।
ममता अहंकार ने जै में, क्षमावान दुख सुख में सम।13।
म न संतोषी ध्यान में बैठी, चित्त वश करी दृढत्र निश्चय।
मैं कन अर्पित करी बुद्धि मन, मेरो भक्त ऊ मेरो प्रिय!14।
जग में जो कै दुख नि पुजूनो जग को क्वे जै दुख नी दिन।
हर्ष अमर्ष और भय चिन्ता रहित सदा ऊ मेरो प्रिय।15।
आश रहित पवित्र चतुर जो उदासीन औ व्यथा रहित।
फलाशक्तिको त्याग करी हो, मेरो भक्त ऊ मेरो प्रिय।16।
नि करन हर्ष जो द्वेष नी करनो, नि करन शोच न आकांक्षा।
शुभ और अशुभ द्वियै जो छोड़ि द्यो भक्त छ ऊ मेरो प्रिय।17।
शत्रु मित्र हूँ जो एकनससे मान और अपमानै तें।
शीत गरम औ सुख दुख में लै सब आसक्ति रहित जो छ।8।
स्तुति निदा सम, सदा मौन रूँ । जां जस हो संतोष करौं।
घर कैं न्हा, छऽ थिर मति जै की, भक्ति मान ऊ मेरो प्रिय।19।
मरम पे्रम लै मेरो दिई यो, धर्मामृत जो करौ ग्रहण।
ऊ अतिशय प्रिय मेरो भक्त छऽ श्रद्धा धरि रै मेरी शरण।20।
कृमशः अघिल अध्याय-१३
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