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खतड़ू जलूंण छू पलायनक

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खतड़ू जलूंण छू पलायनक

रचनाकार: तारा पाठक

इजा मैं बंबई में कसी
खतड़ू मनूंल।

नैं यां कांस,नें गुलपांखा फूल।
नैं भंङाऊ स्याट,नें फाड़ी छ्यूल।
नैं पिरूव मिलन, के ल्हिबेर
खतड़ू बणूल।
इजा मैं बंबई में
कसी खतड़ू मनूंल।

नैं यां असोजौ हरी घा,
नैं घा खाणी गोर_भैंस।
जांहुं लै डीठ करौ
मुनावै_मुनावै,मैंसै_मैंस।
कै ख्वार है खुटन 
जालै घा धरुंल, कैधैं 
धीत गाई धीत कूंल।
इजा मैं बंबई में
कसी खतड़ू मनूंल।

यां गोठ हुनैं नैं
कै गोठा जाव_माव जलूंल ,
खतड़ूवौ क्वे नामै नि जाणन
कै दगाड़ भैलो खतड़ुवा भैलो कूंल।
काकाड़_स्यौ मिलनी लै त
खतड़ू कैं कसी चढ़ूंल।
इजा मैं बंबई में
कसी खतड़ू मनूंल।

पोथा देश_काल_परिस्थिति
देखण भै।
भलि बात छ_तु बंबई जैबेर लै
पहाड़ नि भुलि रये।
जतू है सकल ,
त्यार_ब्यार वैं मनूंनै रये।
दुखिल नि हो पोथा
पहाड़ जै खतड़ू नि जलै सक कै।
गोर_ भैंस पावण हुं चाहे
क्वे नि रैगो पहाड़ में।
गदू _काकाड़ नि देखींणै
चाहे झाल में।
आब छ्यूला रांख को बणू,
को बड़ुवा जाव जलूं।
भैलो खतड़ुवा भैलो कूंणौं
रिवाज आब खतम हैगो।
चौबट्टी में खतड़ू जलूणौं
रिवाज लै भषम हैगो।
पोथा आब ठुल्लो खतड़ू
जलूणी ऐंगीं पहाड़ में।
आब खतड़ू जलूणी म्हैंण
असोज नें चैत में हैगो।

चौबट्टी जाग पुरा जंगव हुं,
छ्यूलों जाग ठाड़ सवा बोट।
जो जानवरों त्यार छी खतड़ू
उं स्यौ _काकाड़ों जाग
पर चढ़ाई जानी आग कें।

आज उतू जरूरी नि रैगो
खतड़ू मनूंण।
जतू जरूरी हैगो
पहाड़ बचूंण।

ऐसकछै पहाड़, रोकि सकछै
पलायन त त्यार आफी बचि जाल।
नतरी बंबई में त्यार मना नि मना।
खतड़ू जला नि जला
के फरक नि पड़न।
18-09-2020
तारा पाठक जी द्वारा उत्तराखण्डी मासिक: कुमगढ़ पर पोस्ट से साभार

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