
जिम कार्बेट पार्काक् शेर......
रचनाकार: ज्ञान पंत
के लाछै
के ल्हीबेरि जालै रे
रनकारा .....
खाल्ली - खाल्ली
किलै
"तौया" ल्ही रौछै।
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ज्यादे
अतराट
भल नि हुँन ....
चौमासै - गाड़
रौड़
कयी जनेर भै।
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सोल सिंगार
करी बाद ले
का्व मूँख
कावै रै ग्यो .....
मैं
सोचणैं में छूँ!
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अच्छयान .....
स्यैंणि - बैग में ले
कंप्टीशन है रौ ....
तु ठुल
कि मैं ठुल .....
आजि तय नि है रौ।
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लिपि - घोसी
मूँख .....
कैको ले हौओ ....
झिट घड़ि मैयी
देखां
है जनेर भै।
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जनमबारा - दिन ले
"फू"
करौ बल .....
अंग्रेज राणौ
भल सिखै ग्यो हो
हमन कैं।
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पाँख लागी
मनखिय 'क ले
किरमोई ' ना जा
हाल हुनेर छन।
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खुट
भीं पन
नि होला त
कां बैठला भुला?
............
जे कूँण छ
कै दे .....
भोल 'क
के भरौस!
...........
दिन फिरण में
देर जि लागैं ....
बेयी जां
चौल है रैछी
आज
"छा्र" फोगी रौ।
..............
हा्व में
बात
नि मारी कर ......
फयी बोट
मलिकै
नि जा्न।
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भ्यार
द्वि जगै बेरि
के फैद ......
उज्याव त
भतेर
ज्यादे जरुरी छ।
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शब्दार्थ:
के लाछै - क्या लाए थे,
तौया - परेशान करना,
रनकारा - यहाँ पर शैतान के लिए हे,
रौड़ - नाला,
लिपि घोसी - बनावटी,
झिट घड़ि - जल्दी ही,
किरमोई'ना जा - चींटियों जैसा,
भीं पन - जमीन में,
चौल - चहल पहल,
छा्र - राख,
फोगी रौ - फैली हुई है,
फयी बोट - फलदार पेड़,
भतेर - भीतर में
Oct 25, 27 2017

...... ज्ञान पंत
ज्ञान पंत जी द्वारा फ़ेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी से साभार
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