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गिर्दा दगड़ साक्षात्कार- क्वाठ भितेरकि कलमलाटै तो साहित्य भै

गिर्दा दगड़ साक्षात्कार, interview in kumaoni language with Girish Tewari Girda, Girda ka kumaoni bhasha mein interview

क्वाठ भितेरकि कलमलाटै तो साहित्य भै

(गिर्दा दगड़ साहित्यिक साक्षात्कार)
इंटरव्यूकर्ता - डाॅ. हयातसिंह रावत
संपादक-‘पहरू’ कुमाउनी मासिक पत्रिका

30 जून, 2004 कि बात भै।  अल्मा्ड़ डाॅ. शमशेर सिंह बिष्ट ज्यूक घर में श्री गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ अई भै।  बिना के पैंली बै तैयारी और सूचना कै मैं गिर्दा दगै बातचीत करनै थैं, वां पुजि गयूं । गिर्दाकि सेहत ठीक न्हांती, फिर लै उनूल के ना-नुकुर नैं करि। आस्ते-आस्ते रङत में ऐ बेर भौत कविता सुणाई और भौत लमि बातचीत करै। यो बातचीत पाठकों सामणि पेश  छु।

सवाल - गिरदा! आपूं थैं लोग जन कबि कौंनी। आपूं कें जनकबि नामल पुकारनी। मैं यो जा्णन चाँ कि कबि और जनकबि में कि फरक हुँ?
उत्तर - यार हयात! तौ तो यसि किसमकि बात करि दे त्वैल! जैक क्वे सीमाब( और क्वे सूत्रब( उत्तर नैं है सकन। जनभावना भइ। जन भावनानकि अभिव्यक्ति जन कबिता भै। सवाल यो भै, जै में जरा संघर्षशीलता लै हो। किलैकि संघर्षशीलता सिर्फ जो सड़क में आन्दोलन करनी, उना्रै भितर नैं हुनि। संघर्ष तो समाज में कतू धरातलों  में चलूँ, तो अभिव्यक्ति धरातल में लै जभत का्रै हमर संघर्षशील धारा तरब हुँ जाणै प्रवृत्ति जब मन में ऐ गई, तौ हमर एक बणाई हुई खाँ्च भै, तौ जनकबि छु, तौ फला्ण कबि छु, यो ढिमा्क कबि छु, जबकि सामान्य रूपल अगर कूँछा जब, समाज में जो घटनौ, वीक अभिव्यक्ति सबै करनेर भै। गद्य वा्ल गद्य में करनेर भै, कबिता वा्ल कबिता में करनेर भै। जरा सा यदुक भै कि कतीकैं क्वे उभार ऐरो जनता बीच में, तो जनता बीच में जैबेर टुक्याव छोड़ि दी, उनरि भावनाओं कें और मजबूत करि दी, उनरि भावनाओं के बाणी दी दी, म्यार् समझल तै है अलावा कबिता और जन कबिता में बड़ भारि अंतर मैंकैं नि ला्गन। राजनीतिक बिचारधारा पर जभत जांलै संस्कृति कर्मी राजनीतिक चिंतन धारा लिजी न हो, यो समाज कसी बड़ौ, कि बड़ौ, कसी यो समाज में कि चीजा्क कतू हस्तक्षेप हुनी, और हम कस किसमक समाज चाँनू, तो जैकि यो दृष्टि साफ भई, म्या्र ख्यालल उ ई जनकबि भै। जो आदिम साफ, द्वि टूक बात कूनौ-तौ बा्ट गलत जाणौछा तुम या तौ बा्ट तुम ठीक जाणौछा, मैं लै तुमा्र दगा्ड़ छुं।

सवाल - ऐलै आपूंल राजनीतिक बिचाराधारा बात करै। तो आ्पण यो मा्नन छु कि कबियों या रचनाकारन कें क्वे न क्वे राजनीतिक बिचारधारा दगै जुड़न चैं?
उत्तर - रावत ज्यू! म्यर मतलब तौ संकुचित राजनैतिक बिचारधारा दगै न्हाँ। म्यर मतलब जीवन दर्शन दगै छु, किलैकि बिना क्वे दर्शन दगै जुड़ी तुमर क्वे बिजन नैं बणि सकन, क्वे दृष्टि नैं बणि सकनि। क्वे न क्वे दृष्टि तो तुमरि लै रौलि। तुलसीदासकि लै आ्पणि दृष्टि छी, आ्पण देश-काल परिस्थिति में। कबीरदासकि लै आ्पणि दृष्टि छी। कुल मिलै बेर साहित्य कि भै? हमर आ्पण भितरक क्वा्ठपन जो कलमलाट लागि रौ, वीकी अभिव्यक्ति तो भै। जनताक मन में जो कलमलाट लागि रौ, वीकी अभिव्यक्ति तो हम साहित्य में करनेर भयां। तो कुल मिलै बेर कैं न कैं दर्शन तो प्रधान भये, भै। जसि नजरल तुम देखला, चीज तुमूकें उई नजरल तो देखियेलि। तो दर्शन हुन भौत जरूरी भै। म्यर राजनीतिक बिचारधारा मतलब दलगत राजनीति दगै न्हैं बल्कि जीवन दर्शन दगै छु। 

सवाल - कुछ लोग कौंनी साहित्य कला लिजी छु और कुछ लोग कौंनी साहित्य समाजै लिजी छु, यै पर आ्पण कि मा्नन छु?
उत्तर - म्यर तो बिल्कुल साफ मा्नन भै, साहित्य समाजै लिजी। कला अलग से समाज बटी या हमरि जिंदगी बटी कटि बेर पिलेट में धरी हुई चीज जै कि छ ऊ। कला तो योई जिंदगिक मंथन भै। अगर कला छु जब, अगर कबिता छु जब, अगर कतीकैं कोई पेटिंग छु जब, तो कुल मिलै बेर योई जिंदगी कै मंथन भै ऊ। बिचारनकि छाया, रोजै फानी छौ, घुर ग्वाँ हुनै रैंछौ यां रत्तै-ब्याल, दैकि जै हानि भै यो हमर समाज। भली कै नैं फा्नला, भानै फुटि जा्ल। तै तो भै मूल दर्शन। यो समाज में मंथन उरातार चलि रौ। समुद्र मंथन तो संसार में उरातार चलि रौ। उ में बटी नव रत्न निकलन छन। उ में बटी जहर लै निकलल, उ कैं रोकि नैं सकना हम। तो इनूकैं अलग-अलग खा्नों में धरि बेर सटीक, सुरुचिपूर्ण, जो जीवन दगै जुड़ी हुई अभिव्यक्ति छु, म्या्र बिचारल उई कला छु। कला, कला के लिए बातकि म्येरि नजर में के मतलबै न्हैं। कला तो समाजै लिजी हैंछ। 

सवाल - अच्छा गिरदा! आपूँल ल्यखन कब बटी शुरू करौ?
उत्तर - यार हयात! ल्यखन तो भौत पैंली बटी शुरू करि हाछी।  जब मैं दर्जा 9-10 में पढ़छी, तब बटी ल्यखन शुरू है गो छी।  उतकांन म्येरि नजर में कुमाउनी कबिता, क्वे कबिताइ नैं छी।  कबिताक बा्र में लै उन दिनू के समझ जै के भै।  ल्यखनक शौक भै, जसी सब ना्नतिन ल्यखनी, हम लै लेखि दिनेर भयां।  उ तो इतफाकल चारूचन्द्र पाण्डे ज्यू जीसाईसी अल्मा्ड़ में टीचर भै, मैं वा इस्कूल पढ़नेर भयूँ।  ऊँ रैली में हमूथैं पुरोगराम करूनेर भै।  आ्पण लेखी गीत लै गऊनेर भै।  कुमाउँनी कबिता लै सुणोंनेर भै।  धीरे-धीरे उना्र संपर्क में  रै बेर, बात-चीत सुणि बेर कबिता कें समझण लागां।  पाण्डे ज्यूल या्स संस्कार हमा्र भितर खिती उ आज तक मौजूद छन।  उभतकरै सन् 64 में लखनऊ आकाशवाणी केन्द्र में ‘उत्तरायण कार्यक्रम’ शुरू भै।  पाण्डे ज्यू उ कार्यक्रम में प्रमुख कबि भै। कुमाउँनी लेखन कें अघिल बढ़ूँन में ‘उत्तरायण कार्यक्रम’ क लै भौत ठुल योगदान छु। जब मैंल पाण्डे ज्यूकि -
म्या्र सिराण ह्यूँ हिमांचल
म्या्र बगल काली की कलकल।
म्या्र नासन में देबगंगा,
म्या्र हाँसन मोत्यूँ की छलबल।
म्या्र छातिन गड़लोड़ फुटि गै।
डाँसि बुसी गो मुठिक चोटल,
खुटकि धापल सीर फुटि गै।
मेरि हातिन में, हातिन को बल।
कबिता पढ़ै।  तब हमरि बुद्धी  खुलि, फिर खुलनै गै।  उन दिनों हमुकैं गुमानी, गौर्दा कि कबिता कें समझणकि के समझ जै कि भै।  पाण्डे ज्यूकि यो कबिता टुकुड़ल हमा्र मन में लै कुलबुलाट शुरू कर दी।

पाण्डे ज्यूल एक संस्कृत छंदक कुमाउँनी अनुवाद करौ-
पछिल बे सूरज अघिल अगिनि छ,
जेड़िया रात जाड़ैल घुनमुनि छ।
आँचुइन भीख, बोट मुणि रूणो,
खुजो न आसक फंद बज्यूणो।
यो कबिता जब पढ़ै, तब समझ में आ कि हमर वाँ तो कुमाउँनी में यतुक गैल चीज छु, गहन, गंभीर अभिव्यक्ति छु।  हम तो तब जांलै कुमाउँनी कें ‘तीलै धारौ बोला’ समझनेर भयां, बस।  पाण्डे ज्यू गीत लै ल्यखनेर भै। उनर एक गीत छु -
लला नारिङ रस लै दे
जामिर फल लै दे
नारिङ हुँ जिया करे।
यो गीत उन तिक्यांन भौत चर्चित छी।  यो बड़ि सुन्दर, नाजुक अभिव्यक्ति छु।  यो गीत में बिल्कुल लोक दगै बटी हुई पंक्ति छन।  पेंणि दगै पेंणि मिलै  रा्खी। जसि हमरि लोक शैली छन।
पाण्डे ज्यूकि सङत में रै बेर धीरे-धीरे द्वि-चार तुकबन्दी करि म्यर लै कबिता ल्यखन शुरू हैगै?

सवाल - आ्पणि पैंल रचना कां छपै और कब छपै?

उत्तर - उतकांन दिल्ली बटी छपनेर ‘वीर अर्जुन’ यां खूब पढ़ीनेर भै।  मैंल लै अर्जुन कें ल्हिबेर हिंदी में एक कबिता बणै दी और उ ‘वीर अर्जुन’ में ना्नतिना कालम में छपि गै।  यो करीब सन् 60-61 कि बात हुनेलि।

सवाल - कुमाउनी में छपनकि व्यवस्था उन दिनों कसि छी?

उत्तर - उन दिनों तसि के व्यवस्था नैं भै।  एक उत्तरायण कार्यक्रम भै बस।  उ  में कवि सम्मेलन हुनेर भै।  तौई परेशानियों के देखि बेर जब हम आ्पण रूचकारा तलाश में भ्यैर मैदान में गयां तब वां जैबेर यो रटन लागि कि जब सब जा्गौ साहित्य ऐ सकूँ तो हमर कुमाउँनी साहित्य किलै नैं ऐ सकन।  सांचि को कूंछा ‘शिखरों के स्वर’ पछिल मूल प्रेरणा प्रकाश पंडित कि भै।  जब उनर ‘आज के उर्दू शायर’ निकलि सकूँ तो आज के कुमाउँनी कबि किलै नैं निकल सकन? यो बात मन में ऐ।  तब सन् 1969 में जैबेर तौ ‘शिखरों के स्वर’ किताब तैयार भै।  जैमें उदिन जांलैक करीब-करीब जतुक कबि भई, उनूकें एक्कै जा्ग में लोंणकि कोशिष करी।

सवाल - ‘उत्तरायण कार्यक्रम’ में आपूँल कब बटी जा्ण शुरू करौ?

उत्तर - मैंल मार्च 65 में लखनऊ उत्तरायण कार्यक्रम में पैंल रचना  सुणै।  ना्नतिनों कार्यक्रमै लिजी लेखी छी यो कुमाउँनी कविता।  उभत करै बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ ज्यू और जगधारी ज्यू उत्तरायण कार्यक्रम कें देखी करछी, कुमाउँनी में लेखनै थैं उनूंल हमुकें  प्रेरित करौ।

सवाल - तो आपूँ ना्नतिनों लिजी लै साहित्य लेखी करछा?

उत्तर - पैंली तो मैंल ना्नतिनों लिजी भौत लेखौ। पैंल बात तो यो छु कि ना्नतिनौ लिजी अलग और सयाणों लिजी अलग के हुनेर नि भै।  पर कुछ चीजों जिक्र मैं तुमरि सा्मणि जरूर करन चाँ।  मैंल भौ कें सितोंन बखतकि एक हुलारि ल्यखै -
आली पैं आली, ठुम-ठुम आली,
माठू-माठु आली, ऐ जाली हो
मेरि भौ की नीनुरी ऐ जाली,
मेरि भौ की बिनुरी ऐ, जाली।
आली पें आली, नौ फंदिया ता्श बै आली। मेरि भौ ......।
येकि धुन राजुला सौक्यांण बटी ल्हे। कहानि नि लेखि भुला मैंल। कुमाउँनी में कभै कहानि नंै लेखि। हाँ ना्नतिनों लिजी एक लोक का्थ स्यालदा-भालदा ल्यखै। उ लै लेखै कि लिपिब( करै, बस।  कविता खूब लेखी।  नाटक लै नैं ल्या्ख कुमाउँनी में।

सवाल - कुमाउनी  में आपूंक क्वे कविता संग्रह लै छपी छन?

उत्तर - कुमाउनी में यस क्वे प्रतिनिधि संग्रह तो म्यर न्हैं भुला।  यथकै यो ‘पहाड़’ ल 2002 में ‘उत्तराखण्ड काव्य’ छापौ।  उ में सन् 77-78 बटी लेखी लम्बी यात्राक कबिता छन।  फिरि तो मणी समझदारी ऐगे।  गौर्दा कें लै समझण लागि गयां।  चारूचन्द्र पाण्डे ज्यूक, गौर्दाक संकलन ऐ गै।  बृजेन्द्र लाल शाह जा्स दिग्गजोंक संपर्क मिलि गै।  चीज अघिल कै बढ़ते गै।  गौर्दाक ‘वृक्षन को विलाप’ कें ल्हिबेर वीक ऐतिहासिकता कें समझणकि कोशिष करते हुए सन् 77 बटी मैंल गिरहबंदी शुरू करी - ‘‘आज हिमाल तुमुन कें धत्यूछौ, जागो, जागो हो म्यारा लाल’’  उ होते-होते हर आन्दोलन बटी उत्तराखण्ड आन्दोलन जांलै पुरि गाथा तौ गीत भितर छु।  एक किसमक संघर्ष गायन भै ऊ।  रमौली रमौल गैनेर भै, मालूसाही वा्ल मालूशाही गैनेर भै, गिरदा तौ गैनेर भै। 

सवाल - आपूं लोगोंल एक ‘हमारी कविता के आँखर’ किताब लै ल्यखै?

उत्तर - यो करीब सन् 77-78 कि बात छु। शेखर पाठक और मैं, हम द्वि जाणिल  लेखै यो किताब।  हमूँल कोशिष करी कि कुमाउनी कबिताकि जांच पड़ताल करी जौ। कुमाउनी कबिता यात्रा कां बटी कां जांणै छु।  कतू लमचैड़ येक फलक छु। कतुक ये में अघिल कै संभावना छु, यो सब खोजणै कोशिष करै?

सवाल -  आपूँ हिंदी में लै लेखी करछा?

उत्तर - हो होइ! हिंदी में ई लेखनेर भयूं। तु थैं मैंल पैंलियै कौ।  कुमाउनी में ल्यखन हम हेय समझनेर भयाँ।  म्यर लेखन भै मूलतः हिंदी और उर्दू में।  उर्दूल मैं कैं भौत प्रभावित करौ।  फैज अहमद फैज म्यर प्रिय शायर छु।  ऊ कैं मैंल कुमाउँनी में लै लौंणक कोशिष करै।
हम मेहनतकश, जग वालों से
‘‘जब अपना हिस्सा मांगेंगे।
एक खेत नहीं, एक देश नहीं
हम सारी दुनियां मांगेंगे।
हम ओड़ बारूड़ि ल्वार कुल्ली कभाड़ी
जै दिन यो दुनी थैं हिसाब ल्यूंल
एक हाङ न माँगू, एक फाङ न माँगू
सब खसरा-खतौनी किताब ल्यूंलो
यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं यां सागर-सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे।
यो फैज अहमद क पंक्ति छन। येक कुमाउँनी अनुवाद देखौ -
याँ डा्न-का्न हीरा हरिया छन
यां गाड़ - गध्या्र मोत्यूं भरिया छन
यो माल खजा्न सब हमरै तो छु,
हम एक-एक पाईं को हिसाब ल्यूंलो।

सवाल - हिंदी में आपूंल को-को बिधा में ल्यखौ?

उत्तर - मूलतः मैंल द्वि तो नाटक लेखी।  यांक भाव भूमि पर एक नाटक छु - ‘नगाड़े खामोश हैं’।  शैलेश मटियानी ल लै म्यर संस्कार बणूंन में भौत ठुल योगदान दे। शैलेश मटियानी कें मैं आ्पण मानसिक गुरू मानूँ।  बफौल बीर गाथा कें जसि ढङल उनूँल हिंदी में ‘मुख सरोबर के हंस’ उपन्यास में दे, वील म्या्र भितर जो प्रेरणा पैद करी, वील बफौलनकि का्थ पर आधारित ‘नगाड़े खामोश हैं’ नाटक लेखौ।  उ में मैंल कोशिष योई करी कि हमरि लोकगाथा- बीरगाथा गायन शैली, हिंदी में ऐ जौ। तई अंदाज में दुसर नाटक यांक रामलिलौं पर आधारित ‘धनुष यज्ञ’ लेखौ।  यों द्विये नाटक खेली तो खूब गई, लेकिन आइ तक छपि नैं रै। नाटकों है अलावा हिंदी में कविता लेखी। कहानि नैं ल्या्ख। 

सवाल - हिंदी में लेखी क्वे किताब ऐल तक आ्पणि छपि रै?

उत्तर - ऐल तक क्वे किताब नैं छपि रै।  क्वे संकलन करी जौ, क्वे किताब छापी जौ, तै उज्यांणि कभै ध्यानै नैं गै।  फिरि यस लै भै।  जनता बीच में जौ, उनूकैं सुणौ। जनता स्वीकार करलि वालि बात भै।  पर छापींन लै चैन भै, हमरि नैं छपि सकि तो हमरि क्वे खूबी नै भै, तौ हमरि कमजोरी भै। 

सवाल - कुमाउनी कबिता में गुमानी पंत बटी ल्हिबेर आज तक को-को महत्वपूर्ण कबि रई छन?

उत्तर - कुमाउनी में गुमानी ज्यू आदि कबि मानी जानी।  नेपाली में लै आदि कबि रूप में शुमार छन गुमानी ज्यू।  उ बाद पुरि एक श्रंखला रै।  कई कविनल कुमाउँनी में काव्य रचना करै।  फल्दाकोट वा्ल शिवदत्त सती ज्यू रई।  उनूँल ‘घस्यारी-पतरौल’ बैकटेश्वर प्रेस मुंबई बटी उभत आ्पण किताब छपै।  तो कुमाउँनीक लै आ्पण इतिहास ना्न न्हैं।  गजल कुमाउँनी भाषा का उनूल उ दिन लेखि दी।  ‘शिखरों के स्वर’ में लै शामिल छु ऊ।  तौ प्रयोग उभतै हैगै। फिरि हम यथकै औंनों तो गौर्दा हैगै।  गौर्दाल सर्वाधिक प्रभावित करौ मैंकैं। किलै, उनूल खालि साहित्य नैं ल्यख, उनूँल इतिहास लेखौ।  गौर्दा कविता में पुर इतिहास छु, आ्पण युग छु। गौर्दा ल होलि लै लेखी।  उनरि होलि लै ऐतिहासिक छन।  उनर चिन्तन और चिंता में भौतै बिस्तार छु।  उभतकारै उनूल ‘वृक्षन को विलाप’ लेखि दी। फिरि गौर्दा बटी होते हुए आज तककि कबिता यात्रा हमरि सा्मणि छु।  बीच में एक कबि पीताम्बर पाण्डे ज्यू भई।  उनरि ‘चाड़नै बरात’ भौत भलि कबिता छु।  आज कुमाउँनी भाषा में भौत भा्ल किसमा्क लिख्वार हमरि सा्मणि छन, जो हमरि कबिता कैं लै, बिचार कैं लै और समाज कैं लै अघिल ल्हिजा्णई।  काब्य गोष्ठी लै भौत हुणई।  अल्मा्ड़ नंदादेवी म्या्ल में लै हुँछी पैंली।  जैंती में शहीद दिवसा दिन लै काब्य गोष्ठी हई करैंछि। केदारसिंह कुंजवाल ज्यू कराई करछी।  कुमाउँनी विकास में यो सब चीजोंक योगदान छु।  प्रवासी संस्थाओंक लै भौत ठुल योगदान छु।  खासतौर पर लखनऊ उत्तरायण कार्यक्रमक तो भौत ठुल योगदान छु।  वील एक मंच उपलब्ध करा।  नतरि उ दिन जांलै तो क्वे मंचै न्हांती। 

सवाल - आ्पुथैं रंगकर्मी लै कई जाँ। तो रंगकर्म दगड़ि आपूँ कसी और कब जुड़ छा?

उत्तर - रंगकर्म दगै म्यर भौत गैर जुड़ाव छु। यो उज्यांणि म्यर रूझान ना्नछना बटी रई छु।  याँ जीआईसी इस्कूल में ड्रामा हुनेर भै।  चारूचन्द्र पाण्डे ज्यू और जुबली मास्साब भै।  ऊँ सिखोंछी।  उभत कारै हमूंल रवीन्द्र नाथ टैगोर क ‘विसर्जन’ नाटक लै ख्यलौ। बलि प्रथा विरोध में छी यो नाटक। 

रंगमंच येक लिजी मैंकैं सबन है ज्यादा प्रभावित करूँ कि रस, रूप, रंग, गंध, स्वाद सारी चीज रंगमंचा्क माध्यमल तुम जनता तक पुजै सकछा।  बोलि, भाषा, गीत, संगीत अभिनय, संवाद, भेष-भूषा सा्र उपकरण ये में छन।  ज्यादा है ज्यादा लोगों तक आ्पणि बात हम यो माध्यमल पुजै सकनूँ।  यो भाषा, देश, सीमा हैबेर मली छु। रंगमंचा्क माध्यमल हम पहाड़ कें दिल्ली, मुंबई या बिदेश में ठा्ड़ करि सकनूँ। शुरू-शुरू में नैनीताल में ‘अंधायुग’ और ‘अंधेर नगरी चैपट राजा’ बटी प्रयोग शुरू करौ।  वृजेन्द्र लाल शाह, लेनिन पंत ज्यूल रंगमंच कि चीज छु कै, म्या्र आँख, कान खोली।  तब अंधेर नगरी हमूंल नैनीताल में होली ठेटर रूप में पेश करौ।

सवाल - आपूं गीत नाटक प्रभाग दगै कब जुड़ छा?

उत्तर - मैं पैंली 1966 में पीडब्लू डी में वर्कचार्ज में नौकरी करि छीं।  करीब डेढ़ साल करै। सितम्बर 1967 बटी नैनीताल में गीत नाटक प्रभाग खुलौ।  वृजेन्द्र लाल शाह ज्यू असिस्टैंट डायरेक्टर छी।  नैनीताल खोलन में शाह ज्यूक और लेनिन पंत ज्यूक योगदान छी।  तब शाह ज्यूल उ में भर्ती करै।  मैं लै भर्ती है गयूँ। येक असली नाम छी - सीमांत प्रचार शाखा।  सीमांतक जनमानस कें राष्ट्रीय धारा दगड़ि जोड़न तैक मुख्य काम छी।  तैमें मैंल करीब उन्तीस साल सर्विस करी।

सवाल - आपूँ आजकल कि ल्यखनौछा?

उत्तर - मैंल कभै आसन जमै बेर तो, नैं ल्यख।  आजकल लै के बिशेष नैं ल्यखनयूँ।  हाँ आज तलक जतुक लै लेखि राखौ, सोचनयूँ उ एक जा्ग थुपुड़ी जानौ, भलै हुन।

सवाल - दाज्यू! साहित्यकारक समाज दगै कि रिश्त हुण चैं?

उत्तर - जड़ हमर समाज भै। समाज भै पाणिक चुपटौल।  समाज सीर भै।  जस सीरक और तीसक रिश्त हुँ। उस समाज और हमर रिश्त  हुण चैं।  हम तो बीच में यतुकै माध्यम भयां, समाज बटी सिखि बेर ल्यों, उ कें छाणि-छुणि बेर, ठीक-ठाक करि, भलीकै मिसै बेर, समाज कैं लौटै द्यूँ।  हमर लोक साहित्य में लोककि अभिव्यक्ति मिलनेर भै।  पैंली बै मैंस पुछनेर भै-अली बेर बा्गस्यरक गीत कि छी हो।  गौर्दा ल उभत करै बा्गस्यरै लिजी कुली बेगार वा्ल गीत लै ल्यखौ- ‘झन दिया कुली बेगार’ सन् 1921 में।  तो तौ लोक पर्व हमा्र अभिव्यक्तिनक माध्यम लै छी।  लोक पर्व में लोक भावना सा्मणि ऐंछि।  आज प्रायोजित पर्व हैगी।  आ्ब उनूमें हमरि लोक अभिव्यक्ति मिलनी नैं।  आजादी बाद जब हमर यां पैंल बंदोबस्त भौ।  उतकांन हमार यां एक गीत चलौ -
रातिया हुँछौ खानापुरी, ब्याव रबड़ै घिस।
अमीरों है री चैन चुपड़ा, गरीबों पिसै पिस।
महाकाब्य भै तौ द्वि पंक्ति।  सारि बेदना, तैमें छलकि रै।  दिन में पिन्सनल लेखीनेर भै।  ब्याल हूँ जाँ बै नोटै गड्डी मिली, फिरि पिन्सनल लेखी मिटै बेर स्याइल नाम चढै़ दिनेर भै।  तो साहित्यकारक और समाजक ततुक घनिष्ठ संबंध हुनेर भै।

सवाल - दाज्यू! एक सवाल छु, आपूं किलै ल्यखछा और ल्येखि बेर कि मिलूँ आपूं कैं?

उत्तर - अगर मैं आपुं हुंणी लेखणयी जब तो मैंल ल्यखण छोड़ि दिण चैं।  लेकिन वाकई में जो सोत छु हमर, उ अगर हमन कें प्रेरित करनौ, वाँ बटी उमाल ओंणौ तो तुम ल्यखी बिना रई नि सकना।  तुम कै हूँ जै कि ल्यखणौछा, उ तो तुमर भितरक एक किसमक उमाल छु, नैं।  आ्ब तुमूंल दूदा तली बै आ्ग जलै रा्खौ, तो उ में उमाल  आलै। उ कैं कोई रोकी नि सकन।  हम कैकै लिजी जै कि ल्यखणयां।  गड़बड़ तो उती कें है जैं, जब हम सोचनूं कि हम कैकै लिजी ल्यखणयां।  फिरि हमन में और ल्यखी चीज में अंतर ऐ जां,  किलै, हम ल्यखणी है गयां।  एक स्वाभाविक रूपल जभत करै तुमा्र मुख बटी कोई चीज झड़ैं, उ स्वाभाविक चीज छु, समाज बटी पैद हरै, समाज कें लौटूंण छु।

सवाल - दाज्यू! लेखि बेर आपुकें कि प्राप्ति हैं वील?

उत्तर - उ बरोबरि संतोष तुमन कैं और क्वे चीज बै प्राप्त नि है सकन।  सबन है ठुलि बात यो भै कि तुम लोंगन कें बाणी दियो।  जभत का्रै तुम हजारों लोगन बीच गैंछा, क्वे कबिता सुणौंछा, तो उनूकैं छपि-छपी लागैं।  लोग कूंनी-आहा! तैल हमरि दिलकि बात कै दे।  तै है ठुलि उपलब्धि तो के हई नि सकनि।  हजार लोगों बीच में चार पंक्ति तुम सुणौंछा और जनता कूनै-अहा! हा! तसै चाणौछिया हम।  तै कूँण चाणौछियां हम लै।  हमा्र पास तरिक नि छी कूणक।  तसिक हम कै नि सक्यां। त्वील कै दे यार। धन्य छै।  तै हैबेर ठुलि उपलब्धि और के है सकें? यो बात हमूंल जरूर याद धरण चैं कि कैकै लिजी अगर हम ल्यखनौ, तो कभै हमर बोलिनौ उद्धार नि है सकन।  बोलिनौ उद्धार तबै ह्वल जब हम भितर बटी आई हुई उमाल कैं बुलान। अनुभव करनी चीज छु ऊ।  जब तुम भितर बटी अनुभव करला, तबै ऊ दुसा्र कैं लै असर करि सकैं।  तुमर अनुभवै नैं भै, तो खालि भाषाकि मार कुश्ती करि बेर शब्द कें यां बटी टिपि बेर वाँ धरौ, वाँ बटी टिपि बेर यां धरौ, तसिक अगर कबिता होली, उ कबिता कभै असरै नैं करि सकनि।

कुमाऊँनी मासिक पहरु में पूर्व प्रकाशित

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