
सिमटने लगे हैं बांज के वन
लेखक: श्री चन्द्रशेखर तिवारीयह आलेख राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के संपादकीय पेज में प्रकाशित हुआ है।
राष्ट्रीय सहारा का आभार।
बांज के जंगलों का अस्तित्व पहाड़ में बहुत पहले से विद्यमान रहा है। पहाड़ी इलाकों में चीड़ के जंगलों का फैलाव बाद में हुआ माना जाता है। ब्रिटिश काल में चीड़ का पेड़ लीसा, बिरोजा व स्लीपर प्राप्ति का मुख्य स्रोत था जिस कारण उस समय इसके व्यावसायिक महत्ता को अधिक तरजीह दी गयी और चीड़ के वनों का विस्तार किया गया। बांज (ओक) को पहाड़ का हरा सोना कहा जाता है। पहाड़ के पर्यावरण, खेती-बाड़ी, समाज व संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाले बांज मध्य हिमालयी क्षेत्र में 1200 मी. से लेकर 3500मी. की ऊंचाई के मध्य स्थानीय जलवायु, मिट्टी व ढाल की दिशा के अनुरुप उगता है।
उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों की कृषि व्यवस्था को समृद्ध रखने में बांज की अहम भूमिका दिखाई देती है। इसकी हरी पत्तियां पशुओं के लिये पौष्टिक चारा प्रदान करती हैं। मुख्य बात यह भी है कि इसकी सूखी पत्तियां पशुओं के बिछावन लिये उपयोग में लायी जाती हैं। जब यह पत्तियां पशुओं के मल मूत्र में अच्छी तरह सन जाती हैं तब यह अच्छी प्राकृतिक खाद बनकर खेती की पैदावार बढ़ाने में अपना योगदान देती हैं।
स्थानीय ग्राम्य जीवन के लिए ईंधन के रुप में बांज की लकडी सर्वोतम समझी जाती है क्योंकि अन्य काष्ठ ईंधन की तुलना में बांज की लकड़ी से कहीं अधिक मात्रा में ताप और ऊर्जा मिलती है। ग्रामीण काश्तकारों द्वारा बांज की लकडी का उपयोग खेती के काम में आने वाले विविध औजारों यथा कुदाल,दरातीं के बीन (मूंठ या सुंयाठ), हल के नसूड़े,पाटा व दन्याली के निर्माण में किया जाता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पर्यावरण को समृद्ध रखने में बांज के जंगल कई तरह से कारगर सिद्ध होते हैं। बांज की जड़े वर्षा जल को अवशोषित करने व भूमिगत करने में मदद करती हैं जिससे जलस्रोतों में जल का सतत प्रवाह बना रहता है। बांज की पत्तियां जमीन में गिरकर दबती व सड़ती रहती हैं, इससे मिट्टी की सबसे उपरी परत में हृयूमस (प्राकृतिक खाद) का निर्माण होता रहता है। यह परत जमीन को उर्वरक बनाने के साथ ही धीरे-धीरे जल को भूमिगत करने में योगदान तो देती ही हैं साथ ही तेज बारिश की बूंदों से जमीन की ऊपरी सतह की मिट्टी को बहने से रोकती भी हैं। बांज की लम्बी व विस्तृत क्षेत्र में फैली जड़ें मिट्टी को कस कर जकडे रखती हैं। इससे भू-कटाव नहीं हो पाता है।
बांज का जंगल जैव विविधता का अतुल भण्डार होता है जहां नाना प्रकार की वनस्पतियां, झाड़ियां व फर्न की प्रजातियां पायी जाती हैं। बांज का पेड़ अपने तने व शाखाओं में लाइकिन, ऑरकिड, मॉस व फर्न जैसी वनस्पतियों को फलने-फूलने का अवसर भी देता है।यही नहीं असंख्य छोटे-छोटे जीव, कीडे-मकोड़े व नन्हें पौंधे बांज के पेड़ों से गिरी पत्तियों के नीचे आश्रय पाते हैं और स्थानीय जैव विविधता को समृद्ध करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
ईंधन व चारे के लिये बांज का अधांधुंध व गलत तरीके से उपयोग करना बांज के लिये सबसे ज्यादा घातक सिद्ध हुआ है। बांज की पत्तियों व उसकी शाखा को बार-बार काटते रहने के कारण बांज का पेड़ पत्तियों से विहीन हो जाता है। इससे पेड़ की विकास क्रिया रुक जाती है और अन्ततः बांज के हरे-भरे पेड़ कुछ वर्षों के ही दौरान ठूंठ बनकर खत्म होने की कगार पर आ जाते हैं। पशुओं की मुक्त चराई व चीड़ की घुसपैठ होने का असर बांज के जंगलों पर पड़ रहा है।
पर्यावरण के जानकार लोगों का मानना है कि पूर्व के दशकों में उत्तराखंड के कई स्थानों पर आलू की फसल उगाने और फलों के बाग लगाने के लिये भी बांज वनों का सफाया किया गया। माना जाता रहा है कि कई स्थानों में जहां आज सेब, आलू व चाय की खेती की जा रही है वहां कभीे बांज के घने वन हुआ करते थे। ब्रिटिश काल व उसके बाद कई सालों तक सरकारी कार्यालयों में लकडी के कोयलों की पूर्ति के लिये भी बड़ी संख्या में बांज के पेड़ों का कटान हुआ। बांज के जंगलों व उसके समीपवर्ती इलाकों में चीड़ की घुसपैठ होने का असर भी बांज के जंगलों में पड़ने लगा है जिससे बांज के पेड़ धीरे-धीरे गुम होने लगे हैं। दूसरी ओर यहां के वन क्षेत्र बंजर व निष्प्रयोज्य भूमि में भी तब्दील होते जा रहे हैं इससे बांज समेत सभी वन प्रजातियों का क्षेत्रफल कम होते जा रहा है।

आरक्षित वनों को छोड़कर बांज के जंगलों की हालत अत्यन्त ही दयनीय अवस्था में है।जनसंख्या बहुल गांव-इलाकों में बांज समेत दूसरी प्रजातियों के जंगल सिमटने की ओर अग्रसर हैं। निश्चित ही इससे हिमालय के पर्यावरण व ग्रामीण कृषि व्यवस्था में इसका प्रभाव पड़ पर रहा है। इन बातों को ध्यान में रखकर हमें बांज के संरक्षण, विकास व इनके पौंध रोपण में सामूहिक प्रयासों की जरुरत प्राथमिकता के तौर पर समझनी होगी।
कदाचित इस बात की कल्पना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि ग्रामीण परिवेश में बांज के पेड़ आने वाले दशकों में कहीं इतिहास की वस्तु न बन जाय। देखा जाय तो पहाड़ के इस लोकगीत “नी काटा-नी काटा झुमराली बांजा, बजांनी धुरो ठण्डो पाणी“ का आशय भी यही लगता है कि - लकदक पत्तों वाले बांज को मत काटो, शिखरों में स्थित बांज के इन जंगल के बदौलत हमें शीतल जल प्राप्त होता है।
चंद्रशेखर तिवारी, दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून,मोबाइल : 9410919938

श्री चंद्रशेखर तिवारी जी की फेसबुक वॉल से साभार
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