गर्ब्यांग गांव का दृश्य
कुमाऊँ के परगने- जीवार उर्फ जोहार
(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)
"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार
जीवार उर्फ जोहार
यह सुन्दर, जंगली व भयंकर दृ यों से परिपूर्ण परगना भी हिमालय पर्वत से मिला हुअा है। उत्तर में इसके हिमालय की गगनचंबी पर्वतमालाएँ तिब्बत-राज्य से इसे जुदा करती हैं । पश्चिम में इसके गढ़वाल है । पूर्व में दार्मा तथा दक्षिण में दानपुर व सीरा हैं । इस परगने में तीन पट्टियाँ हैं-मल्ला व तल्ला जोहार तथा गोरीफाट । इन पट्टियों के अादमी अलग-अलग जाति के कहे जाते हैं। पहले दो पट्टियाँ शायद एक हों, पर चंद-राज्य में ये दोनों पट्टियाँ एक में शामिल की गई हैं । जोहारी लोग अपने देश को बहुत बड़ा होना मानते हैं । उनके यहाँ किस्सा है -
"आधा संसार, आधा मुनस्यार" यानी आधे में तो परमात्मा ने मुन्स्यार या जोहार के ग्राम बसाये हैं और आधे में शेष जगत् । गोरी नदी के दाहिने तरफ़ बर्फ का ढका पहाड़ है । उसका नाम पुराणों में जीवार है, इसी से इस परगने का नाम जोहार पड़ा।
पहाड़ों के नाम- ऊंटाधूरा, लसरधुरा, कोलकांगधुरा, स्यांगबिल, रोगस, बाती का धुरा, खुनियाधुरा, कालछप, सुकाधुरा, गुफथुरा, मदनफैला, नंदादेवी. मलंगडा, परजी कांग, लहाबू, संखपुरा, बनकटिया, तिरसूल, मूर्च डांटा, सरसा, हरदेवल, हांसालिग। ये बड़ पहाड़ है। प्रायः इनमें हमेशा बर्फ जमी रहती है। हिन्दोस्तान की बहुत-सी बड़ी नदियों के उद्गम-स्थान यही पर हैं।
नदियाँ- हर एक पहाड़ के गल अर्थात बर्फ के गलने की जगह से नदियाँ पैदा होती है। जिस गाँव से जो नदी बही, उसी रे नाम से बह गंगा कही जाती है। जैसे पालुगाँव के नीचे बहनेवाली नदी को पाछुगंगा कहते है। इन सब नदियों में प्रसिद्ध गोरी गंगा है, जिसमें जोहार की सब नदियाँ मिल जाती। यह नदी अस्कोट के नीचे काली में मिल जाती है। पुराणों में इसका नाम गौरी है, और कहा गया है कि वह जीवार पर्वत को तोड़कर निकलती है। छोटी-छोटी नदियों के नाम ये हैं:-खा, पालुगंगा, बुर्फ गंगा, दिलजु गंगा, मतोली गंगा, बोगड्यार, लसपा गंगा, रालम नदी, रड़गाड़ीगाड़, जमीघाट, आदि।
जोहार का पुराना इतिहास
जोहार के बसने के बारे में जो किम्बदन्तियाँ प्रचलित हैं, वे बड़ी ही रोचक और आश्चर्यजनक हैं। इन दिनों ऐसी कहानियों में कोई विश्वास भी नहीं किन्तु उनका ज़िक्र दोनों मि० अठकिन्सन तथा पं० रुद्रदत्त पंतजी ने करता, किया है। इससे हम उन्हें अविकल रूप से उद्धृत करते हैं:
हल्दवा व पिंगलुवा का किस्सा
जोहार में यह किम्बदन्ती है कि वहाँ पहले दो गिरोह (धाड़े) के लोग रहते थे। एक गिरोह का नेता हल्दुवा और दूसरे का पिंगलुवा था। इन दोनों नेताओं के व इनकी सन्तान के तमाम बदन में ही नहीं, बल्कि जीभ में भी बाल थे!!
कहते हैं, पट्टी मल्ला जोहार इन दोनों नेताओं के बीच आधी -आधी बंटि हुई थी। मौजे मापा से ऊपर हल्दुवा के और मापा से नीचे लसपा तक पिगलुवा के हिस्से में था। उस वक्त जोहार का दर्रा (घाटा ) खुला हुआ न था। इस कारण हुणियों ( लामाओं) तथा हल्दुवा व पिंगलुवा के आपस में सौदागिरी कुछ न होती थी, बल्कि आमदरफ़्त भी जारी न थी। चौलाई(चूा) व फाफर(उगल) की खेती से अपनी गुज़र करते थे। उस समय वहाँ एक नभचर (पक्षी) गोरी नदी के उद्गम-स्थान के पहाड़ से पैदा हुआ। उसके पर इतने बड़े थे कि नदी के ऊपर उड़ते-उड़ते लसपा गाँव नीचे मापांग नामक जगह में, जहाँ घाटी तंग है, वे अटक जाते थे । अतः पक्षी वहाँ से ऊपर को लोट जाता था। वह मनुष्यों को खाया करता था। उसने हल्दुवा व पिंगलुवा के बाल-बच्चे खाने शुरू कर दिये, और अन्त में। दोनों नेताओं को भी खा गया । उन दिनों जोहार के उस पार हणदेश की लपथिल नामक गुफा में एक शकिया लामा रहता था । हुणदेश में लामा की माने सन्त या साधु-महात्मा के हैं। अस्तु । वह लामा सुबह अपनी गुफा से उड़कर लपथिल में आता, वहाँ दिन-भर परमात्मा का भजन कर शाम को अपनी गुफा को लोट जाता । उस लामा की टहल में एक मनुष्य रहता था। उस पर प्रसन्न होकर एक दिन लामा ने कहा, "तू दक्षिण में जोहार को जा, वहाँ एक पक्षी ने सब आदमियों को खा लिया है। तू उसे मारकर मुल्क को फिर आबाद कर ले, और मैं तुझे तीर-कमान तथा एक पथ-दर्शक देता हूँ। पथदर्शक चाहे कोई रूप रक्खे, किन्तु तुझे न घबराना, न साथ छोड़ना चाहिये ।" अतएव लामा ने एक शिष्य उस सेवक के साथ किया। आगे-आगे वह शिष्य, पीछे वह मनुष्य तीर-कमान लेकर चलता थो । थोड़ी दूर में शिष्य कुत्ता बन गया । उस स्थान का नाम खिंगरु रक्खा गया। कुछ दूर जब वह आदमी उस कुत्ते के साथ गया, तो वह दोलथांग (बारहसिंहा याने जड़या) बन गया । अतः उस ठोर का नाम दोलथांग पड़ गया, बारसिहे के पीछे कुछ दूर चलने से वह टोपीढ (भालू) हो गया, जिससे उस जगह का नाम टोपीढुंग पड़ गया। भालू कुछ दूर चलकर ऊँट बन गया, जिससे उस जगह का नाम ऊँट्टा या ऊँटाधुरा हो गया। बाद को चलते-चलते वह दुङ (बाघ) बन गया। जिससे उस जगह का नाम दुङ उड्यार कहते हैं । पश्चात् वह बाघ (दुङ) हल्दुवा व पिंगलुवा के देश में आकर समगाऊ यानी खरगोश बन गया और वहीं पर वह अन्तर्धान हो गया। वह जगह अब तक समगाऊ कहलाती है। वहाँ उस मनुष्य ने मकान वगैरह सब देखे, किन्तु कोई आदमी न पाया । सिर्फ हड्डियो के ढेर थे । तब उसे उस पक्षी की याद आई । डर के कारण वह एक मकान में घुसने लगा, तो वहाँ एक बुढिया नजर आई जिसके बदन में बाल थे। उससे पूछने पर बुढ़िया ने सारा हाल हल्दुवा व पिंगलुवा का बताया । कहा । "आज मेरी बारी है। कल के लिये तू शिकार होगा। तू यहाँ क्यों आया, अकारण जान देने को।" तब उस आदमी ने शकिया लामा का सारा वृत्तान्त कह सुनाया, और तीर-कमान दिखाकर कहा वह उस पक्षी को मारेगा। जोहार के बावत पूछने पर बुढ़िया ने कहा- "यहाँ चूआ, फाफर, लाई आदि चीजें पैदा होती है। बर्तन, मकान व अन्य सामग्री सब कुछ है, किंतु नमक नहीं है।" इतने में वह पक्षी बड़े जोर-शोर से आया, और बुड़िया को उठा ले गया। चोंच से ज्यों ही उसने बुढ़िया की छाती तोड़ी उस मनुष्य ने तीर पक्षी को मार डाला। फिर एक जगह आग जलाकर यह कहा कि यदि यह आग मेरे आने तक जलती रही, तो यह देश मुझे फलीभूत होगा, अन्यथा नहीं। आप नमक के बाबत लामा से पूछ-ताछ करने को गया। लामा ने कहा कि-"नमक की खाने वहाँ बहुत हैं, पर दूर हैं। मैं तेरे से नमक इसी लपथिल में पैदा कर देता हूँ।" बाद को लामा ने थोड़ा नमक मँगाकर वहाँ बोया। तब से कहते हैं कि वहाँ नमक की तरह सोरा बराबर दिखाई देता है, जिसे जानवर चाटते हैं। उस दिन से कहते हैं कि नमा उड़कर गुफा से बाहर न आया। क्योंकि करामात बड़ी तपस्या से होती है। बिना ईश्वरीय आज्ञा के करामात दिखाना मना है। उक्त काररवाई करने से लामा की शक्ति क्षीण हो गई।
शकिया लामा के गुफा में चले जाने के बाद वह आदमी ऊँटाधुरा की राह उसी जगह को लौटा, जहाँ उसने पक्षी को मारकर आग जलाई थी। आग जल रही थी। उसने इधर-उधर से लोगों को बुलाकर वहाँ बसाया और शकिया लामा की पूजा चलाई, जो अब तक जारी है। तभी से इन लोगों को शौका कहते हैं। इन्हीं की सन्तान में एक वीर सुनपति शौका पैदा हुआ। उसने मंदाकिनी के निकटवर्ती प्रांत को बसाया और तिजारती रास्ते (घाटे) खुलवाए। अब इनकी सन्तान में कोई नहीं है, ऐसा कहते हैं। ये बातें कत्यूरी राजाओं के भी पूर्व की हैं।
जब सुनपति की सन्तान का अन्त हो गया, तब फिर जोहार वीरान पड़ा और तिब्बती रास्ते (घाटे) बंद हो गए। उस समय मिलम्बालों का मूलपुरुष हुणदेश की तरफ से जोहार में आया, जिसका वर्णन मिलम्बाल इस प्रकार करते हैं कि पश्चिम की ओर से कोई राजपूत आया और वह गढ़वाल के राजा के यहाँ नौकर हो गया। वह रावत क़ौम का था। उसे बधान के परगने में जोलागाँव जागीर में मिला। वहाँ उसकी सन्तान बढ़ी। उनमें से एक शाख जौला गाँव से उठकर कुछ वर्ष तक नीती में रही। हुणदेश में उन दिनों एक सूर्यवंशी राजा गड़तोक में राज्य करते थे। उनके यहाँ एक रावत नौकर हो गया। एक दिन वह रावत शिकार खेलते हुए एक जानवर के पीछे दौड़ा, और ऊँटाधुरा की तरफ से होकर गोरी व गुखा नदी के संगम के पास वह जानवर अदृश्य हो गया। वह रावत हारकर उसी जगह बैठ गया। जिस से उस स्थान का नाम मौहम हो गया (मी-आदमी+ह्मम-थकने पर पैर ढील पड़ने के हैं), जो अब मीलम कहलाता है। वहाँ के आदमी मिलंबवाल कहलाते है।
वीरान मिलम गांव का दृश्य
रावत ने लौटकर गदतोक में राजा से सब हाल कहा। राजा ने कहा कि रावत जाकर उस प्रदेश को आबाद करे, और रास्ता खुलवाये, तो व्यापारियों से "छोकल” (जकात) मिला करेगा, और शराब पीने को, मोजन को तथा डाक व सवारी को सब सामान रियासत से मिलेगा। रावत महाशय ने इसी तरह सारा कार्य किया। आप मिलम में बसे, अन्य लोगों को अन्य गाँवों में बसाया, जो बुर्फाल, जंगपांगी, बिजर्वाल, मपाल वगैरह के नाम से पुकारे जाते हैं। इन्होंने तिजारती घाटे (रास्ते) भी खुलवाये, जिससे इनको अब तक तिब्बत में कुछ दस्तूरी मिलती है। हुणदेश की ओर से जो हाकिम या हुणिया आता है, उसे भी भोजन व मदिरा वगैरह जोहारी देते हैं और कुछ "रकम" मालगुजारी भी हुणिया राजाओं को देते हैं। जोहारियों से तिब्बत दरबार में कुल मुचलके (१) भी लिये जाते हैं। तिब्बती राजा के प्रतिनिधि मिलम में आने पर तीन सवाल पूछते हैं-
(१) जोहार में कोई बीमारी है या नहीं।
(२) किसी दुश्मन की ओर से लड़ाई है या नहीं?
(३) सुकाल है या अकाल?
इन प्रश्नों का ठीक-ठीक जवाब देना चाहिये। यदि जोहारी कोई दगाबाजी उत्तर देने में करें, तो दंडित होते हैं। इस शर्तनामे को 'गमगिया करो। 'गमगिया' का दस्तूर इस प्रकार है कि एक पत्थर के दो टुकड़े करते है तोलने के बाद पत्थर के प्रत्येक टुकड़े को कागज में लपेटकर उसमें दस्तखत मोहर कर देते हैं। एक टुकड़ा जोहारियों के, दूसरा तिब्बतियों ( हुणियों ) के पास रहता है। शर्तनामे के खिलाफ कारवाई करने पर शर्तनामा तोड़नेवाले को पत्थर के बराबर सोना तोलकर जुर्माने में दाखिल करना पड़ता है।
ये बातें १८३५ की हैं। सन् १८८३ में श्रीनैनसिंह पंडित सी० आई० ई. ने जो आत्मजीवनी लिखी है, उससे यह बाते हम प्रकाशित करते है। आत्मजीवनी हस्त-लिखित है, उसमें ये बाते आई हैं:-
"मिलम्बाल क्रोम की उत्पत्ति धारानगर के क्षत्रिय पँवार-वंशियों से है। जब पँवार-वंश की वृद्धि हुई, तो कुछ लोग हरिद्वार के पास बुटौलगढ़ में गये। बुटौले रावत कहलाये, उनमें से कुछ रावत गढ़वाल के बधाण परगने के मौजे ज्वाला व सोलन में आ बसे। इनमें से श्री धामसिंह रावत तथा श्री हीरू रावत श्रीबदरीनाथ की यात्रा को आये। श्री हीरू रावत तो पैनखंड ज़िला गढ़वाल में बस गये। श्री धामसिंह रावत गढ़तोक के राजा बोतछयोगल के यहाँ सेनापति बन गये। उन्होंने लछाखियों को हराकर इलाफ़े डरी कुरसम से बाहर निकाला। जिस महान् सेवा के लिये राजा बोतछयोगल ने श्रीधामसिंह रावत को (१) थोपतांग, (२) तौल ( ३ ) छोकल आदि कर लेने का हुक्म दोंगपू, दावा, खिंगलुंग व डोकठोल वगैरह मौज़ों से दिया। तिब्बती भाषा में थोपतांग खाना तथा बरदाइश को कहते हैं। तौल के माने सरकारी काम को बे किराया घोड़ा देने के हैं। छौंकल उस दस्तूर को कहते हैं, जो किसी राजभक्त कर्मचारी को व्यापार के कर में से मिले। इन सबसे श्रीधामसिंह को अच्छी आमदनी होती थी। बाद को वह राजा की आज्ञा से हिमालय के इस ओर मिलम गाँव में आकर रहने लगे। उस समय जोहार में सिर्फ तीन गाँव आबाद थे-(१)। बुर्फु में बुर्फाल जंगपाँगी (२) ल्वां में ल्वाल, (३) रालम में रलम्बाल। इतनी तिजारत, भेड़-बकरियाँ आदि भी न थीं। अस्कोट आकर धान का बाल लेकर औरतों को दिखाते थे और कहते थे कि वह देश (माल) हो पाये। लोग सीधे-सादे, भोले-भाले थे। ब्याह छोटे-छोटे लड़के-लड़कियों का नहीं करते। युवा होने पर आपस में गीत गाते हुए जब वर-कन्या दोनों हिलमिल जाते, तब विवाह करते थे।
बुर्फु गांव का सुन्दर दृश्य
बुर्फु गाँव के चरखमियाँ जंगपांगी अपने तई नागवंशी बतलाते हैं । जंगपांगी चूर्फालों का बुजुर्ग गलीया काला नाम का था। उसकी स्त्री अपने दो लड़कों के साथ बूर्फ नदी के सिरहाने ग्वाड़ में रहती थी। संयोग से एक नाग वहाँ आया। कहते हैं कि उसकी दृष्टि के प्रताप से एक पुत्र उस स्त्री के उत्पन्न हुआ।
विक्रम के समय में तातार देश के शक लोगों ने इस देश पर भारी चढाई की। सम्राट विक्रमादित्य ने उनको हराया, इससे विक्रम शकारि कहलाये। ये शक लोग नागों की पूजा करते थे। नाग ही उनका राज व धर्म-चिह्न था। संभव है, इन्हीं नागवंशी शकों में से किसी ने गलीया काला की स्त्री से नियोग या विवाह किया हो। श्री धामसिंह के जोहार पाने से पहले जोहार में आबादी बहत कम थी। मिलम के बाद बिलजू , मापा, मरतोली गाँव आबाद हुए।
आरंभ में तिजारत भी बहुत कम थी। सिर्फ़ थोड़ी सी भेड़-बकरियों पर अनाज लादकर हुणदेश के खिंगलुग, दोंगपू वगैरह गाँवों में बेच पाते थे। उसके बदले में ऊन व सोना लाते थे। तिजारत में से १/१० हिस्सा महसूल तिब्बत के हाकिम को देना पड़ता था। श्री धामसिंह रावत ने सूर्यवंशी राजा बोतछयोगल से कहकर यह कर माफ कराया। जोहारवाले यह टैक्स नहीं देते । नीती, माणा, दार्मा वालों को अभी तक देना पड़ता है।
कहते हैं, यह राजा बोतछयोगल सूर्यवंशी राजा था । तिब्बती भाषा में बुधछोगल बुद्ध-मत के राजा को कहते हैं। उन दिनों तिब्बत चीन के अधीन न था। वहाँ छोटे-छोटे राज्य थे। यह राजा हुणदेश का नहीं, बल्कि भारतवर्ष का था। अतः अपने जीवन-काल ही में यह राजा अपना डरी कुरसुम का राज्य तिब्बत के लामा को सौंपकर अपने आप समाधिस्थ हो गया। श्रीधामसिंह तमाम जोहार के सिरगिरोह बन गए।
संवत् १५९५ में राजा बाजबहादुरचन्द जोहार के रास्ते तिब्बत में ताकलाखर, मानसरोवर, कैलास आदि तक गये और व्यांस के रास्ते अपनी राजधानी अल्मोड़ा को लौटे। साथ में पथदर्शक श्री भादू बूढ़ा तथा श्री लोरू विलज्वाल थे। इनको कुछ गाँव (पाछ नाका, बुई पातूं , धापा और तेली मवाजात) जागीर में दिये। श्री लोरू बिलज्वाल को कोश्यारी बाड़ा मिला।
सन् १७३५ में राजा दीपचंद ने मोजा गोलमा, कोटालगाँव की जागीरें श्रीधामाबूदा को दी। सन् १७४१ में राजा मोहनचंद ने कुईंठी, शैमली, खेती, तल्ला भैंसकोट और गिरगाँव की जागीरें भी श्रीधाम को दी।
भीजसपालबूढ़ा के समय गोरखों ने चंदों का राज्य छीन लिया। जसपाल बराबर चंदों को बुलाते रहे। दस वर्ष तक परगने को नेपाल को न दिया। बड़ी लड़ाई हुई। बहुत से जोहारी व गुर्खा मारे गये। नेपाल की तरफ से श्रीहर्षदेव जोशीजी जोहार पर चढ़ आये। सिपाहियों को नीचे छिपाकर, आप कुछ बहाना कर जोहार में आये। श्रीजसपाल बूढ़ा ने श्रीहर्षदेव जोशी को बेड़ी पहनाकर कैद में रक्खा, फिर चंद-राजा से जानसे न मारने का वचन लेकर छोड़ दिया।
इस बीच नेपाल का राज्य तमाम कुमाऊँ ही क्या, कांगड़े (व शिमले ?) तक हो गया। नेपाल-दरबार से बूढ़ाचारी की पगड़ी जसपाल के लड़के श्रीविजयसिंह के नाम आई, पर सरकारी कर बढ़ता-बढ़ता १६०००) तक हो गया। रय्यत तंग हो गई । श्रीविजयसिंह सन् १८१० में नेपाल गये। मालगुजारी १७०००) से ७८००) करवा लाये। सन् १८१२ के अगस्त महीने में श्रीमूर कैफ्ट साहब तिब्बत के मुक़ाम दावा में पकड़े गये। देबूबूढ़ा ने १० हजार की जमानत देकर उन्हें छुड़ाया।
नेपाल के महाराजा के सूबेदार बड़े बमशाह चौतरिया के १७९८ के ताम्रपत्र के अनुसार १२ गाँव की जागीरें श्रीधामाबूढ़ा बे० श्रीजसपाल बूढ़ा के नाम थीं। सन् १८१५ में कुमाऊँ अँगरेज़ों के हाथ आया। पहले कमिश्ननर कर्नल गार्डनर ने १२ गाँव जागीर में छोड़ बाकी-२८ गाँवों की ५००१) मालगुजारी जोहार की ठहराई। सन् १८२१ में ट्रेल साहब ने सब हक जागीरों के काटकर केवल एक गाँव पाछू मुनाफ़ी में रक्खा।
इस प्रान्त की चोटियाँ सदा बर्फ से ढकी रहती हैं। जाड़ों में तो सर्वत्र में बर्फ गिर जाती है। तमाम भोटिये नीचे उतर जाते हैं। हिमालय पर्वत जल का खजाना है। उत्तरी भारत की सब बड़ी नदियाँ यहीं के गलों से निकलती हैं। यहाँ ऐसे भी स्थान हैं, जहाँ चलने में जोर से नहीं बोलते, नक्कारे या बंदूक की आवाज़ नहीं होने देते। कारण कि ज़रा भी कोई धमाके की आवाज़ हुई। तो बर्फ खिसक पड़ती है। और वह अपने साथ बड़े-बड़े पर्वतों के टुकड़ों को तोड़कर ले आती है, कहीं-कहीं पत्थर व मिट्टी बराबर गिरते रहते हैं। राह चलते आदमी व जा-बकर मर जाते हैं। अतः वहाँ पर बड़ी सावधानी से चलना पड़ता है। यहाँ पर सवारी पहाड़ी घोड़ों व खच्चरों पर करते हैं। अपू व चवरगायों पर भी सवारी करते व सामान लादते हैं।
ऊन, गल्ला, नमक कपड़ा वगैरह भेड़-बकरियों पर भी लादते हैं। मेड़बकरियों के झंड के झुंड पर्वतों में जाते हुए बड़े सुन्दर दिखाई देते हैं। इन बकरियों को जोहारी लोग मल्ला दानपुर, गढ़वाल, चंबा, बेशहर आदि जगहों से ले आते हैं।
दवाइयाँ- कटुकी, मासी, गठिया, जहर, अतीस, डोलू वगैरह यहाँ मिलती हैं।
जानवर- जानवरों में कस्तूरी-मृग, बड़, बरजिया, भालु, थड़वाबाग़ तथा हाजे यानी जंगली कुत्ते आदि होते हैं।
डफिया, मुनाला, लुंगी वगैरह बड़े ही सुन्दर पक्षी यहाँ पाये जाते हैं।
खानें- रालमधुरा में एक खान हरताल की है। मिलमगाँव के सामने दुद्दापानी में ताँबे की खान है। ऊँटाधुरा से आनेवाली नदी में, गोरी गंगा के किनारे तथा मिलमगाँव की सलामी में मिट्टी धोने से सोना मिलता है। पर सोने की खान देखने में कहीं नहीं आई है।
देवता- हर एक गाँव में नंदादेवी स्थापित हैं। इनके अलावा साई, रागा ग्राम-देवता हैं। इन दोनों में से साई देवता को सबसे बड़ा समझते हैं। एक समय मिलम के ऊपर दुश्मन चढ़ आया। तब साई देवता ने, कहते हैं, बड़ी ऊँची आवाज़ से पुकारा-"मिलम्वालो! भागो, दुश्मन चढ़ आया।" तब सब लोग माल-असबाब छिपाकर भाग गये, और दुश्मन कुछ भी न कर सका। तब से इस देवता को बड़ा समझकर औरों से इसके यहाँ एक बकरा ज्यादा चढ़ाते हैं।
श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे,
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कहने को तो यह मात्र एक किवदंती हैं, परन्तु आज भी इन किवदंतियों ने हमारे समाज को एक माला में पिरो के रखा है. हम धन्य हैं, कि हमें आपने इस पोस्ट के माध्यम से इस अति दिव्य कथा से अवगत कराया.
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