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पहाड़ के गाँवों में असोज - खेती बाड़ी कार्य को करने की चुनौती

पहाड़ के गाँवों में असोज - खेती बाड़ी कार्य को करने की चुनौती,asauj is the most hectic month for agriculture in kumaon,pahado mein asauj ke mahina kheti ke kaam ki vyastta

पहाड़ के गाँवों में असोज - खेती बाड़ी कार्य को करने की चुनौती

  लेखक: भुवन बिष्ट

देवभूमि के पहाड़ के गाँवों में असोज होता है खेती बाड़ी कार्य को करने की चुनौती 

भारत और हमारी देवभूमि उत्तराखंड कृषि प्रधान रहे हैं देवभूमि उत्तराखंड की धड़कन हैं गांव।  देवभूमि के पहाड़ के गांवों में कृषि, पशुपालन, फलोत्पादन, सब्जी उत्पादन, खेती बाड़ी प्रमुख रूप से जीविकोपार्जन का एक सशक्त माध्यम रहे हैं।  आज भले ही पलायन से गांव खाली हो चुके हों या जंगली जानवरों, बंदरों, आवारा पशुओं के आतंक से खेती बाड़ी चौपट हो रही हो या किसानों का मोह भंग हो रहा हो किन्तु फिर भी अधिकांशतः गाँवों में कृषि उपजाऊ भूमि में धान, मडूवा,गहत, रैस, भट, दलहनी फसलें लहलहाती हुई दिखाई देती हैं।  और इसके साथ साथ पशुपालन के लिए घास काटने व इसको संग्रहण करना भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है।  

आधुनिकता की चकाचौंध भले ही हमारे चारों ओर विद्यमान हो मशीनीकरण ने भी अब अपने पाँव पसार लिये हों किन्तु देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ के गांवों में आज भी अश्विन माह असोज के महीने में चारों ओरखेती बाड़ी कृषि का कार्य चरम सीमा पर होता है और इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए विशुद्ध रूप से मानवीय शक्तियों का उपयोग किया जाता है।  असोज के महिने में प्रत्येक घर के हर सदस्य की अपने अपने कृषि कार्य को संपन्न कराने में सम्पूर्ण भूमिका रहती है।  बच्चे, बूढ़े, जवान सभी का योगदान और सभी की व्यस्तता हमें एकता में शक्ति और एकता से हर कार्य आसानी से होने का भी अहसास कराती है।  

देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ के गांवों में असोज के महिने में धान की मढ़ाई हो या मडूवा चूटना या दलहनी फसलों में रैस,गहत,भट मास आदि को प्राचीन विधि लद्रुडंडो से चूटकर, छंटाई बिनाई करके फिर इनसे मंहगी दालों को प्राप्त किया जाता है धान मडूवे के लिए ओखल, मूसल, सूप जैसे संसाधनों का उपयोग भी किया जाता है।  इन सभी कठिन प्रक्रियाओं में केवल विशुद्ध रूप से मानवीय शक्तियों का उपयोग ही किया जाता है। कुछ स्थानों पर अब भले ही मशीनें आने लगी हों किन्तु पहाड़ की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार आज भी विशुद्ध मानवीय शक्तियों का ही उपयोग किया जाता है।  

इन सभी के भंडारण में भी प्राचीन प्रणालीयों का प्रचुर मात्रा में उपयोग होता है।  पहाड़ो में महिलाओं में कृषि खेती बाड़ी कार्य को संपन्न करने में पल्ट (पौल्ट )परंपरा की भी बहुत बड़ी भूमिका है।  भारत वर्ष के साथ साथ हमारी देवभूमि उत्तराखंड भी सदैव कृषि प्रधान रही है।देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ के गाँवों में पशुपालन, कृषि सदैव ही रोजगार व परिवार के पालन पोषण का सबसे सशक्त माध्यम रहा है।  कृषि और पशुपालन को स्वरोजगार के रूप में अपनाकर अनेक परिवार जीविकोपार्जन करते हैं।  अश्विन और कार्तिक मास जिसे असोज माह के नाम से भी जाना जाता है इसमें दलहनी फसलों (रैस मास भट्टगहत आदि कुमांऊनी शब्द) के साथ साथ मडूंवा झूगरा धान आदि की फसल तैयार हो जाती है। 

खेतो के किनारे व चारागाह वाले क्षेत्रों में घास भी बड़ी हो जाती है।  अब होता है कटान का कार्य और इसे संग्रहण का कार्य,जिससे की इसका उपयोग साल भर आसानी से किया जा सके।क्योंकि पशुपालकों को अपने पशुओं के सालभर के भोजन के लिए चारे का भंडारण एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। मौसम की मार व प्राकृतिक विषमताओं एंव संसाधनों का अभाव के कारण भी इसे संजोये व सुरक्षित रख पाना एक कठिन कार्य है। 

विशुद्ध मानवीय शक्तियों का उपयोग व चारा संग्रहण की अनूठी विधि लुठे

चारा संग्रहण की इस अनूठी विधि के लिए सर्वप्रथम घास का पहले कटान किया जाता है और फिर इसे काटकर इसे कुछ समय लगभग एक दिन के लिए फैलाकर रखा जाता है। फिर इसे कुछ कुछ मात्रा में अलग अलग बाँधा जाता है और इसे बाँधने के लिए घास का ही उपयोग किया जाता है। इन्हें स्थानीय भाषा व कुमाँऊनी भाषा में पुवे (कुछ मात्रा में बाँधी हुई घास) कहा जाता है। अब इसे पशुओं के साल भर के लिए चारे के रूप में संग्रहण किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा व कुमांऊनी भाषा में लूठे भी कहा जाता है।

इसके संग्रहण की विधि भी अलग अलग प्रकार की होती है।  पहले प्रकार में जमीन में एक लम्बा लट्ठा गाढ़दिया जाता है और जमीन से कुछ फिट ऊँचाई से घास के पुत्रों को विशेष प्रकार से इसके चारों ओर लगाया जाता और ऊपरी शिरे तक इसे एक शंकु का आकार प्रदान किया जाता है और ऊपरी सिरे को घास से मजबूती से बाँध दिया जाता है इस विधि से संग्रहित घास के लूठों को स्वील के नाम से भी जाना जाता है।  इसमें बहुत अधिक मात्रा में घास संग्रहित रहती है। 

घास संग्रहण करने की दूसरी विधि भी देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ के गाँवों में अत्यधिक प्रचलन में है।  इस विधि में घास के छोटे छोटे गढ़े जिन्हें पुवेकहा जाता है।  इनको अलग अलग पेड़ो पर इसके चारों ओर विशेष विधि द्वारा लगाया जाता है और इसके ऊपरी सिरेको शंकुका आकार प्रदान करके घास से बाँध दिया जाता है।  यह विधि ऊंचे पेड़ो पर होने के कारण कठिन है।  लूठों को विशेष रूप से शंकु का आकार प्रदान करना वैज्ञानिक दृष्टिकोण को दिखलाती है, शंकु के आकार के कारण इसके अंदर पानी नहीं जा सकता है और वर्षा हिमपात में भी घास साल भर सुरक्षित रह सकती है।  

इनकी विशेषता यह है कि इनके अन्दर घास कभी भी खराब नहीं होती हैअर्थात घास सड़ती गलती नहीं है और विशेष प्रकार से बंधे होने के कारण कोई भी आसानी से इसे नहीं निकाल सकता।घास का यह संग्रहण भंडारण को यदि चारा बैंक या चारा एटीएम कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।  क्योंकि इन भंडारों से पशुपालक वर्ष भर पशुओं के पोषण के लिए अपनी अपनी आवश्यकतानुसार इसका उपयोग करते रहते हैं।  देवभूमिका सदैव ही हर कण कण महान है और महान है अन्न दाता किसान। कृषि पशुपालन भारतवर्ष और देवभूमि के जनमानस का जीविकोपार्जन का सदैव सशक्त माध्यम रहा है।

हिंदी साप्ताहिक हरदौल वाणी, हमीरपुर, सोमवार, 4 अक्टूबर, 2021 से साभार 
अनेक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लेख, कविताएं लिख धुके लेखक भुवन विष्ट, मौना, रानीखेत जिला अल्मोड़ा।
 
bhuwanbisht1131@gmail.com

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