पुर्खौंख सहेजी विरासत छू कुमाऊँनी बैठि होली
लेखक: श्री चन्द्रशेखर तिवारीआपुण दुदबोलि के बढ़ावा दिणक लिजी हमन कै अपुण तरफ बटि थ्वड़-भौत प्रयास होते रूंण चैन...
अपुण रीति-रिवाज, पौ-परबी और समाज-संस्कृति-इतिहासक बात दुदबोलि में करि जाओ तै और लै मिठास महसूस हूँ। कुमाऊँ में बैठि होलिक परम्परा लै पुरुखोंक जमान बटि चलि ऐरै..!!
आजक नवभारत टाइम्सक संपादकीय पेज में कुमाउंक बैठि होलिक बार में छ्पी यो आलेख कै मौक लागन पर पढनक परयास करिया....
आपुक आभार।
कुमाऊंक होलि भौत खास मानि जानी। गायनक हिसाबल यांक होलिक रंगत द्यखण लैक हूँ। कुमाउंक लोक में होलि गायनक द्वी मुख्य विधा दिखाई दिनीं। पैल, ठाड़ि होलि और दुहर, बैठि होलि। शास्त्रीय रागोंक आधार पर गाई जाणि वाल बैठि होलि कै नागर होलि लै कई जां।
कुमाऊं में बैठ होलिक गायन पूष म्हैणक पैल इतवार बै शुरु है जां। बैठि होलि में बसंत पंचमि है पैली निर्वाण और भक्ति आधारित होलिक गीत और उ्वीक बाद छलड़ि तक श्रृंगार और रंग प्रधान होलि गाई जानी। बैठि होलिक आयोजन मंदिर, संजैत खाव और घरक बैठक में करी जां और इमैं आठ-दस जाणि शामिल रौनी।
कुमाऊं में बैठि होलिक शुरुआत कसिक भै, हांलाकि यैक लिखित प्रमाण तै नि मिलन पर मौखिक इतिहासक आधार पर कई जां कि यैक चलन तकरीबन ढाई सौ बै तीन सौ साल पैलि है गो छी। अल्माड़क रंगकर्मी श्री शिवचरण पाण्डे ज्यूक मुताबिक कुमाऊं में चंद राजनौक राज दरबार में बैठि होलिक परंपरा मौजूद छी। गढ़वाळ में प्रद्युम्नशाह राजक शासन काल (1786-1803) में होलिक परंपरा मौजूद छी।
उ बखतक कुमाउनी कवि ‘गुमानी’ (1790-1846) द्वारा रचित ‘तुम राजा महराज प्रद्युम्नशाह, मेरि करो प्रतिपाल, लाल होली खेल रहे हैं...’ गीतक आधार पर कई जा सकूं कि कुमाउंक बैठि होलिक इतिहास कम से कम ढाई सौ साल भै ज्यादा पुराण रई छू। जानकार लोग बतूनी कि अल्माड़ में चंद राज दरबारक बैठकन में भ्यैर बै आई नामी-गिरामी गायक भाग लिई करछी। इन कलाकारोंक संगत में यांक समाज लै संगीत-गायन विधा में निपुण होते रौ। बाद में यो बैठि होलिक परंपरा राज दरबार बै निकलबेर आम लोगोंक तक पुजि गै। यस मानी जां कि अल्माड़क में संम्भ्रांत और आम जन मानस में बैठि होलिक चलन उन्नीसवीं सदीक शुरुआत में है गो छी। कुमाउंक होलिक विरासत कै सवरुंण में उस्ताद अमानत हुसैन जस अनेक कलाकार कै लोग आजि लै आदरक साथ याद करनी।
कुमाउनी बैठि होलि में खास तौर पर प्रेम, वियोग व श्रृंगार आधारित गीतोंक प्रधानता दिखाई द्यूं। यैक अलावा इन गीतों में निर्गुण भक्ति, धर्म-दर्शन और वैराग्य बै जुड़ी गूढ़ संदेश लै समाहित रुंनी। कुमाऊंक होलि में अवध और ब्रज इलाकैकि अन्वार साफ तौर द्यखण में ऊं पर इनर लय-ताल व प्रस्तुत करणक अंदाज में पहाड़क माटि-पाणिक असल खुसबू भलिकै महसूस करि जै सकैं। शास्त्रीय बंधन बै जकड़ी रुणक बाद लै इन होली गीतन कैं यांक समाजल गायन में थ्वाड़ छूट दिई हुई छू। योई वजहल रागक बार में अनजान गायक लै मुख्य गायकक सुर में अपुण सुर मिलै लिनी। जो यैक ठुल खासियत मानी जां। पूषक पैल इतवार बै लिबेर छलडि तक तीन म्हैण लगातार गाई जाणी वाल खासियत लै बैठि होलिकै विशिष्ट बणै द्यूं।
बैठि होलिक गायन में बखत और दिन-बारक लै ध्यान रखि जां। दिन-बखतक हिसाबल निर्वाण, भक्ति और श्रृंगार-वियोग प्रधान गीतनकैं अलग-अलग राग और रूप में गाई जाणक चलन छू। वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी त्रिभुवन गिरि महराजक अनुसार बैठि होलिक शुरुआत राग श्याम कल्याण और काफी बटि शुरु है बेर अघिन कैं राग जंगला-काफी, खमाज्ज, सहाना, झिझोटी, विहाग, देश, जैजैवंती, परज तथा भैरव में गायन करिं जां। दिनक बखत में हुणि वाल बैठकन में राग पीलू, सारंग, भीमपलासी, मारवा, मुल्तानी व भूपाली जस रागन पर आधारित होलि गाई जानी।
कुमाउंक बैठि होलिक गायन शैली श्रुत परंपराक आधार पर हमर पुरुखोंक पीढ़ी दर पीढ़ी बै चलते ए रै और आम मनखि लै इन गीतन में अपुण सुर लगाते-लगाते गायकी में पारंगत तक है जानी। कुमाउंक होलिक बैठकन में गुड़क डव, पान, सुपारि, लौंग, इलैचिक दगड़ पहाड़ि व्यंजन चटपटान आलुक गुटक, सूजिक बणी स्वादिष्ट सिंगल लै परोसी जाणी। बैठि होलिक समापन हुण पर आशीषक यो आंखर गाई जानी- ‘जुग-जुग जीवें मित्र हमारे बरस-बरस खेलें होली’।
( लेखक दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं। मो0 9410919938)
0 टिप्पणियाँ