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मां बाल सुंदरी, चैती देवी मंदिर, काशीपुर

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मां बाल सुंदरी मंदिर, काशीपुर

आदि शक्तिपीठों में से एक है मां बाल सुंदरी का मंदिर जिसका जीर्णोद्धार स्वयं हिन्दू विरोधी क्रूर मुगल शासक औरगंजेब ने किया था। धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले देवभूमि उत्तराखंड के कण कण में देव शक्तियों का वास है। इस पावन धरा पर अवतारी सत्ताओं, संतों एवं महापुरूषों का पदार्पण अवश्य हुआ है। उत्तराखंड प्रदेश के प्रत्येक क्षेत्र का अपना आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व है। इन्हीं में काशीपुर भी शामिल है। 

कुमाउं का प्रवेश द्वार कहा जाने वाला काशीपुर अपने आप में राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं अनेक पौराणिक महत्व संजोये हुए है। यहीं पर स्थित है 52 शक्तिपीठों में से एक चैती परिसर में स्थित  शक्तिपीठ बाल सुंदरी मंदिर। माता का यह नाम उनके द्वारा बाल रूप में की गई लीलाओं की वजह से पडा है। इसे पूर्व में उज्जैनी एवं उकनी शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता था। 

माता की महिमा के चलते ही हिंदुओं के लिए क्रूर शासक माने जाने वाला औरगंजेब ने इस मंदिर का जीर्णोद्वार कराया था। इस मंदिर पर बने तीन गुंबद आज भी मुगलवंशीय शिल्प की याद दिलाते हैं। किवदंती है कि जब भगवान शिव माता सती के जले हुए शरीर को लेकर पूरे लोक का भ्रमण कर रहे थे तभी माता सती के बांह का अंग यहां पर गिरा और यहां पर शक्तिपीठ स्थापित हो गया। 

माता के प्रांगण में चैत्रमास में लगने वाला उत्तर भारत का प्रसिद्ध मेला लगता है। इस मेले को चैती मेला के नाम से जाना जाता है। इस मेले में उत्तर भारत ही नहीं बल्कि भारत वर्ष के लोग आते हैं। इस दौरान माता मंदिर में ही विराजती हैं और भक्तों पर कृपा कर उनके कष्टों को हरती हैं। इस मंदिर में किसी देवी की मूर्ति नहीं बल्कि एक पत्थर पर बांह का आकार गढा हुआ है, यहां पर इसी की पूजा होती है। 

मंदिर के मुख्य पंडा विकास अग्निहोत्री बताते हैं कि उनके पूर्वज गया दीन और बंदी दीन कई सौ वर्ष जब यहां से गुजर रहे थे तभी उन्हें यहां पर दिव्य शक्ति होने का अहसास हुआ और उन्हें देवी का मठ मिला। उन्होंने यहां पर भव्य मंदिर बनाने के लिए तत्कालीन शासकों से कहा। उस समय भारत पर औरंगजेब का शासन चलता था। औरगंजेब ने यहां पर मंदिर बनाने से मना कर दिया। इस बीच औरगंजेब की बहन जहांआरा का स्वास्थ्य खराब हो गया। उस पर किसी की भी दवा का असर नहीं हो रहा था। माता ने बाल रूप में जहांआरा को दर्शन दिए और उसे कहा कि उसका भाई औरंगजेब मंदिर का जीर्णोद्वार कराये तो वह स्वस्थ हो जायेगी।

यह बात जब जहांआरा ने औरंगजेब को बताई तो उसने खुद अपने मजदूर भेज कर मंदिर का जीर्णोद्वार कराया। आज भी मंदिर के उपर बनी मस्जिद नुमा आकति एवं तीन गुंबद इस बात को प्रमाणित करते हैं। श्री अग्निहोत्री बताते हैं आदिशक्ति की बाल रूप में पूजा होने के कारण ही इसे बाल सुंदरी कहा जाता है। माता बाल सुंदरी बुक्सा जाति की कुल देवी हैं। इसी वजह से यहां पर बुक्सा जाती के लोग वर्ष में एक बार माता के जागरण का विशाल आयोजन करते हैं। उन्होंने बताया कि मंदिर प्रांगण में लगने वाला मेला चैत्र में लगता है इसी वजह से उसे चैती मेले के नाम से जाना जाता है।


चैत्र माह की सप्तमी की रात में माता की सोने की मूर्ति नगर देवी मंदिर से डोले के रूप में बाल सुंदरी मंदिर पहुंचती है। इस दौरान ढोल नगाडों के साथ हजारों श्रद्वालु माता के डोले के साथ चलते हैं। प्राचीन काल से ही डोले के साथ मजबूत सुरक्षा व्यवस्था भी रहती है जो आज भी जारी है। माता की मूर्ति पहले मंदिर में तीन दिन रहती थी। भक्तों की संख्या में लगातार वद्वि को देखते हुए अब मूर्ति पांच दिन रहती है। करीब एक माह तक चलने वाले मेले में लाखों श्रद्धालुओं पहुंचते हैं। कहा जाता है कि इस दौरान हिमाचल प्रदेश स्थित ज्वाला देवी के मंदिर की एक ज्योत कम हो जाती है। 

देवी मंदिर के परिसर में एक पाकड़ (कदम्ब) का वृक्ष स्थित है जो तने और पतली टहनी तक सारा खोखला है।  इसे मां की महिमा का प्रतीक माना जाता है। इसके सम्बन्ध स्थानीय पंडा बताते हैं कि एक बार एक महात्मा भ्रमण करते हुए यहाँ आए और उन्होंने मंदिर के पंडा(पुजारी) को माता की शक्ति के सम्बन्ध तर्क किया और माता की दिखाने को कहा।  जिस पर तत्कालीन पंडा ने मंदिर परिसर में स्थित कदंब के पेड़ पर पानी का छींटा मारा तो पेड़ तुरंत सूख गया।  तब उन महात्मा ने फिर तर्क किया कि माता में शक्ति है तो उसे हरा करके दिखाओ तो पंडा ने पेड़ पर जल छिड़का और वृक्ष ऊपर से तो हरा हो गया, लेकिन नीचे से पेड़ का तने का भाग अधजला खोखला ही रह गया।  यह पेड आज भी यहां मंदिर परिसर में देखा जा सकता है।

मंदिर परिसर में  माता को छाया देने के लिए एक ऐसा वृक्ष खड़ा है। जिसमें पीपल, पिलखन, बरगद, गूलर व आम की पत्तियां हैं। जो भी भक्त श्रद्वा पूर्वक यहां आता है मां बाल सुंदरी उसकी सद्इच्छा को अवश्य पूर्ण करती है। यहां पर खुजली देवी का मंदिर भी है। चर्म रोग से पीडित लोग यहां आकर पूजा अर्चना करते हैं तो चर्म रोगों से तत्काल छुटकारा पाते हैं। अनेकों विशेषताओं व विशिष्ठताओं को अपने में संजोये इस पीठ का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है। आज इस क्षेत्र के उचित विकास के साथ-साथ इस मंदिर को धार्मिक पर्यटन मानचित्र में अंकित किए जाने की आवश्यकता है।

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