
आस्था का केंद्र माँ धुर्का देवी मंदिर
अल्मोड़ा जनपद मुख्यालय से करीब 50 किमी की दूरी पर लंमगडा विकासखंड के अंतर्गत पर्वतराज हिमालय के आंचल में लहराती वादियां घने चीड़ देवदार और बांज के जंगल से लगा ग्राम धुर्का में स्थित मां धुर्का देवी का मंदिर लोगों की अपार आस्था व श्रद्धा का केंद्र है। लेकिन इसके बावजूद यह एक धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में अब तक विकसित नहीं हो पाया है। अल्मोड़ा घाट मोटर मार्ग से लगे काफली खान भनोली मोटर मार्ग से करीब 3 किमी ऊंचाई की टापूनुमा पहाड़ी में मां धुर्का देवी का मंदिर स्थित है। रहस्यमई माता धुर्का की पूजा अर्चना का विशेष महत्व है। यहाँ आज भी माना जाता है कि कोई भी श्रद्धालु मां के दरबार में जो भी मनौती मांगता है उसकी मनौती पूरी होती है। शारदीय नवरात्रि में तो माता के मंदिर में आस पास के क्षेत्र से आये श्रद्धालुओं की काफी भीड़ रहती है।
ऐतिहासिक रूप से माँ धुर्का देवी के इस मन्दिर को पांडवकालीन माना जाता है और ऐसा कहा जाता है कि पांडवों ने अपने वनवास काल के दौरान भटकते हुए इस शक्तिपीठ में माँ धुर्का की आराधना करके अपने मन को शांत किया था और देवी माँ से अनेक दिव्य वरदान प्राप्त किए थे। कहा जाता है कि प्राचीन काल में इस पूरे क्षेत्र में घनघोर जंगल था। मां धुर्का देवी के इस अपार रहस्यमई मंदिर के बारे मेंअन्य दंत कथाएं भी प्रचलित हैं।
इसी प्रकार की कथा के अनुसार मन्दिर से करीब 10 किमी दूर जैती के समीप काण्डे गांव के एक ब्राह्मण के पास एक सुन्दर गाय थी। ब्राह्मण की गाय भी अन्य जानवरों के साथ रोज जंगल में चरने जाया करती थी। लेकिन गाय सबसे अलग अकेले इस घनघोर जंगल में घास चरा करती थी और घनघोर देवदार, चीड़, बांज के जंगल के मध्य चोटी पर ही आराम करती थी। गाय के इस व्यवहार से से गाय का मालिक बड़ी हैरत में था। वह सोचने लगा आखिर गाय अकेले वहां क्यों जाती है। दूसरी बात यह भी थी कि दूध देने वाली इस गाय का दूध एक बार भी इस ब्राह्मण को नहीं मिला था जिससे वह और भी आश्चर्य में था।

गाय के मालिक को शक हआ कि जंगल में कहीं कोई अन्य व्यक्ति तो गाय को दुह के नहीं ले जा रहा। एक दिन ब्राह्मण कुल्हाड़ी लेकर गाय के पीछे-पीछे चल दिया। जब गाय धुर्का के घनघोर जंगल के पहाड़ी टापू पर पहंची तो उसने देखा कि गाय कांस की घास के ऊपर स्वयं दूध दे रही है। यह देखकर ब्राम्हण का क्रोध भड़क उठा और उसने गुस्से में कुल्हाड़ी से गाय के उपर वार कर दिया। लेकिन कुल्हाड़ी गाय को न लग कर कास की घास और घास के नीचे पत्थर पर लगी। जिसके बाद वहां से खून की धार बहने लगी और उसी समय आकाशवाणी हुई कि तूने गाय पर कुल्हाड़ी से वार करने का दुस्साहस किया। तेरे कुल का सत्यानाश होगा। शाम को ब्राह्मण जब अपने घर काण्डे गाँव वापस लौटा तो उसने ग्रामीणों को सारी घटना बताई और यह बात पूरे क्षेत्र में फैल गई।
कुछ स्थानीय लोगों ने उस स्थान पर मां धुर्का देवी के मंदिर का निर्माण कराया क तथा मंदिर की पूजा व्यवस्था के लिए के काशी से पुजारी बुलवाये गए। आज उनके वंशज भट्ट ब्राह्मण ही धुर्का में निवास करते हैं। भट्ट परिवार के ये लोग ही मंदिर में पजारी हैं तथा बारी-बारी से मंदिर में पजा अर्चना, सफाई व्यवस्था तथा मंदिर में भोग लगाने का कार्य करते हैं। एक अन्य कथा के बाराही देवी मंदिर में लगने वाले बग्वाल मेले जिसे पत्थर मार भी कहते हैं और जो प्रतिवर्ष रक्षाबंधन पर्व के दिन पर आयोजित होता है। यह बग्वाल मेला पहले धुर्का देवी के मंदिर में हुआ करता था जिसके अवशेष आज भी धुर्का में विद्यमान हैं। कहा जाता है कि बाद में माता की प्रेरणा से महाबली भीम ने यहां की शिलाओं को स्थानांतरित कर देवीधुरा के बाराही मंदिर में स्थापित कर दिया। तब से बग्वाल मेला देवीधुरा बाराही मंदिर में आयोजित होता है।
बताते हैं कि जब धुर्का देवी मेले में कुछ लोगों को गंभीर चोटें आने के साथ कुछ पहाड़ी से नीचे गिर गए तो उनकी मृत्यु हो गई। बाद में यह मेला देवीधुरा मंदिर में होने लगा। नवरात्र और शिवरात्रि पर्व के साथ ही वैशाख पूर्णिमा पर धुर्का देवी मंदिर में विशेष मेला लगने से खूब चहल-पहल रहती है। लोगों की मान्यता है कि विशेष अवसरों पर रात्रि को हथेली में अखंड दीपक जलाकर सच्चे मन से यदि कोई व्यक्ति माता का स्मरण करे तो उसे सिद्धियों की प्राप्ति होती है। साथ ही उसकी हर मनोकामना को मां पूरी करती है। सामाजिक कार्यकर्ता व मंदिर के पुजारी पूर्व तहसीलदार लोकमणी भट्ट ने बताया कि मां की शक्ति अपार है तथा वह लोगो की मनौती को पूर्ण करने वाली माता है।

बताया जाता है कि करीब 10 साल पूर्व नया सिंगरौली गांव के देवी दत्त पांडे जो देवी के अनन्य उपासक थे। उनके पुत्र धर्मानंद पांडे गूगे थे। वह कुछ भी बोल नहीं पाते थे तब देवदत्त पांडे 3 दिन-तीन रात्रि मां देवी के मंदिर में ध्यान में बैठे। उन्होंने ऐसी तपस्या की कि खाना-पीना दूर वह शौच के लिए भी नहीं उठे। तब मां भगवती ने उन्हें साक्षात दर्शन देकर उनकी मनोकामना पूरी की। जिसके बाद उनके पुत्र धर्मानंद न पांडे बोलने लगे और धार्मिक कर्मकांड भी करने लगे। मंदिर के चारों और माँ भगवती माता के स्नान के लिए नौले बने में हैं। चंद्रवंशी राजाओं ने देवी को गुट में गांव दिए, इसी गुट के कारण धुर्का देवी की गांव का नाम राजस्व अभिलेखों में धुर्का देवी गुट अंकित है।
पर्वतीय क्षेत्र में 108 शक्तिपीठ में से 9 शक्तिपीठ प्रमुख हैं। जन सहयोग से देवी में के भक्तों के सहयोग से मंदिर को भव्य रूप दिया गया है, लेकिन मंदिर तक अभी संपर्क मार्ग नहीं बन पाया है। धुर्का देवी मंदिर जिसे अब तक पर्यटन मानचित्र से जुड़ जाना चाहिए था, परंतु धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में जिस तरीके से माँ धुर्का देवी मंदिर क्षेत्र का विकास होना चाहिए था आजादी के बाद भी नहीं हो पाया है। शासन, प्रशासन व जनप्रतिनिधियों की बेरुखी के कारण आज भी देवी मंदिर विकास से कर वंचित है।
मूल लेख: राजेंद रावत, दैनिक उत्तर उजाला, 04-10-2022, नैनीताल से साभार
फोटो: गूगल
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