
कुमाऊँ के परगने- पाली पछाऊँ
(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)
"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार
४१. पाली पछाऊँ
यह परगना कत्यूर, बारामंडल, फल्दाकोट, कोटा व गढ़वाल के बीच है।
ऊँचे पर्वत- जौरासी, द्रोणागिरि, मानिला, नागार्जुन, गुजड़ू का डांडा।
नदियाँ- रामगंगा, बिनौ, गगास।
रामगंगा गढ़वाल के पहाड़ देवाली-खान से निकलकर परगने के बीच बहती है। इसके किनारे गनाई, मांसी, भिकियासैण आदि छोटी-छो्टी बस्तियां हैं। बबिनौ भी गढ़वाल से निकलकर वृद्ध केदार के पास रामगंगा में मिलती है। गगास भाटकोट के पर्वत से निकलकर भिकियासैण में रामगंगा में मिलती है।
मंदिर- वृद्ध केदार उर्फ बूढा केदार, विभांडेश्वर, चित्रेश्वर, श्रीनाथेश्वर, केदार श्रादि महादेव हैं। नारायण, नागार्जुन, बद्रीनाथ विष्णु है । शीतला, द्रोणागिरि में वैष्णवी व दुर्गा, मानिलादेवी, भुवनेश्वरी, नैथाणा व अग्निदेवी आदि देवी-मंदिर हैं।
इन देवताओं में कहते हैं कि शीतलादेवी, द्रोणागिरिदेवी, तथा विभांडेश्वरमहादेव का जीर्णोद्धार स्वामी शंकराचार्य ने किया था। बदरीनाथ, केदारनाथ, चंडीश्वर की स्थापना कत्यूरी राजाओं ने की। इन मंदिरों में श्रीबदरीनाथ की जो मूर्ति है, उसके नीचे ११०५ संवत् लिखा हुआ है। जिससे यह मंदिर ८८४ वर्ष पुराना हुआ। यह द्वाराहाट में है।
द्वाराहाट- यहाँ पर लगभग ६४-६५ देवालय व बाँवरियाँ हैं । प्रायः सब कत्यूरी राजाओं के समय के बने हुए हैं। बहुतों में देवता हैं। कई में नहीं हैं। कई टूट गए हैं। एक मंदिर गूजर देवल कहलाता है। कहते हैं
कि इसे कत्यूरी राजाओं के ज़माने में गूजरसाह नामक वैश्य ने बनवाया था। एक टूटे मंदिर का नाम कुट्टनबूड़ी का देवल है । कहते हैं, इसको एक बुढ़िया ने, जो धान कुटकर गजर करती थी, बनवाया।
गणेश के मंदिर में ११०३ शाके हैं । वहाँ एक जगह एक 'थर्प' है, जो एक बड़ा चबूतरा-सा है । यह 'कछेरी का देवाल' कहलाता था। शायद कत्यूरी राजा यहाँ न्यायासन पर बैठकर राजकाज करते हों। अठकिंसन लिखते हैं "चंद्रगिरि व चांचरी पर्वत में कत्यूरी राजाओं का राजमहल था। दूनागिरि के मंदिर में ११०५ शाके खुदा है। "द्वाराहाट वाले कहते हैं, राजमहल थर्प के पास था।
द्वाराहाट का एक दृश्य
द्वाराहाट ५०३१ फुट ऊँचा हैं। कत्यूरी राज्य के टूटने पर एक वश की यह राजधानी रही । यहाँ का नगर व बाज़ार बहुत पुराना है। अब तक भी। पुराने साह व सुनारों की दूकानें यहाँ विद्यमान हैं । यहाँ के लोग सब चतुर व सभ्य हैं। यहाँ पर एक स्याल दे पोखर व स्थल भी है, जहाँ हर साल वैशाख महीने की संक्रान्ति को मेला लगता है। 'बगवाल' भी होती है। कहते हैं कि यहाँ पर द्वारिका बनाने की तजवीज देवताओं ने ठहराई थी और कोशी व राममंगा को आज्ञा हुई कि दोनो नदियाँ द्वाराहाट में मिलें।
इस बात की खबर गगास नदी की तरफ से रामगंगा को देने को गिंवाड़ में, छानागाँव के पास सेमल का पेड़ ठहराया गया। जिस वक्त रामगंगा द्वाराहाट को लौटने के रास्ते पर पहुँची थीं, कहते हैं कि सेमल का पेड़ सो गया। उसने गगास का संदेशा रामगंगा से न कहा। जब रामगंगा तल्ले गिंवाड़ को चली गई, तब सेमल का पेड़ जागा, और रामगंगा से गगास की बातें कहीं, किंतु रामगंगा ने कहा, अब उनका लौटना असम्भव है। पहले से मालूम होता, तो बात दूसरी थी। इस कारण द्वाराहाट में द्वारिका न बन सकीं। उस दिन से संदेशा देने में जो देरी या सुस्ती करे, उसे “सेमल का पेड़" कहते हैं ।
दूसरी किम्वदन्ती है कि रामगंगा आई पर कोशी न आई। उनको संदेशा देनेवाला दही खाने में देर कर गया।
द्वाराहाट के ऊपर दूनागिरि उर्फ द्रोणाचल पर्वत में वैष्णवी देवी हैं। इनको बलिदान नहीं चढ़ाया जाता। इस पहाड़ में अच्छी घास व वनस्पतियाँ हैं, जिनको चरकर गाय-भैंस खब दूध देती हैं। यहाँ का दही तमाम प्रान्त में प्रसिद्ध है।कहते हैं कि इस दूनागिरि में संजीवनी बूटी का एक टुकड़ा उस समय गिर पड़ा था, जब कि हनुमान बड़े पवत को उठाकर मूर्चिछत लक्ष्मणजी को जीवित करने के लिये आकाश-मार्ग से जा रहे थे। कहते हैं कि वहाँ पर एक घास काटनेवाले की लोहे की दराँती यकायक सोने की हो गई थी। वहाँ की जड़ी-बूटियों का प्रभाव ऐसा जबरदस्त बताया जाता है । इड़ा में बारहखंभा का विश्रामालय भी देखने योग्य है।

गिंवाड- इस पट्टी के चार हिस्से अगल-अलग नाम से (१) हैंगाड़ी, (२) कौथलाड़, (३) खतसार, (४) गिवाड़। गाड़ी में का ताल नाम का एक बड़ा तालाब है। बरसात में बहत भर जाड़ों व गरमी में घट जाता है । इससे एक फ़सल रब्बी की यहाँ हो। जाती है।
खतसार नाम इस तरह पड़ा कि यह जगह गरम है। यहाँ लोग बीमार हो जाते थे । बसते न थे । तब राजाओं ने यह सूचना प्रकाशित की कि जो कोई मनुष्य इस जगह में बसेगा, वह यदि कोई अपराधी भी होगा, तो उसका । अपराध माफ किया जायगा । अतः यहाँ पर अपराधी (कसूरवार ) लोग जाकर बसने लगे। उन्हीं के द्वारा आबादी हुई । इससे खता (कसूर ) + सार। ( मैदान, जमीन ) नाम पड़ा । यह पट्टी रामगंगा के दोनों ओर मैदान जगह में है । फ़सल यहाँ अच्छी पैदा होती है।
इसी खतसार के ऊपर लोहाबागढ़ी है । यह बड़ा ऊँचा किला है। यह कुमाऊँ व गढ़वाल की सरहद पर है । यहाँ पहले बहुत लड़ाइयाँ हुई। किले के भीतर भैरव व देवीजी के मंदिर टूटे पड़े हैं । जल जमा करने को हौज़ बने हैं। किले के भीतर नदी से पानी लाने को लगभग दो मील की एक सुरंग बनी है। गोरखाली राज्य के आखिरी शासन-काल (१८१५) तक यहाँ फौज रहती थी।
कत्यूर व पाली के बीच, गाड़ी गिंवाड़ के ऊपर, गोपालकोट नाम का एक ऊँचे पहाड़ पर बड़ा किला था। चंद-राजाओं के समय यहाँ फौज रहा करती थी। अब यह टूटा-फूटा है।
खाने- गिंवाड़ के कोट्यूड़ा गाँव में ताँबे की खान है, और खतसारी, सिरौली, कलिरो, रामपुर, गोड़ी, बरलगाँव, चितैली में लोहे की खाने हैं। लोहा गलानेवालों ने आसपास का बहुत जंगल काट डाला, जिससे यहाँ जंगल की कमी है।
जौरासी डांडे में दो किस्म के पक्षी-चेड़ तथा ककलास बहुत सुन्दर होते हैं । एक गढ़ी भी बहुत ऊँची जगह में है । उसका नाम असुरगढ़ी कहते हैं । इसको दैत्यों का किला बताया जाता है, किन्तु इन दिनों यह वीरान है।
गिंवाड़ पट्टी में रामगंगा के किनारे एक पुराना नगर टूटा पड़ा है। यहाँ ईटें भी मिलती हैं। इसका नाम विराटनगरी है। कहते हैं कि यहीं पांडव गुप्त वनवास में रहे थे। (कुछ लोग विराटनगरी का चक्रोत पर्वत की ओर होना भी बताते हैं )। वहीं पर रामगंगा के किनारे कीचकघाट भी है। वहीं पर एक किले का नाम लखनपुर कोट है। इसको इस समय आसनवासन-सिंहासन के नाम से पुकारा जाता है। कत्यूरी राजा आसन्ति वासन्ति देव का राजस्थान बताया जाता है। यह शायद वसन्तनदेव हों, जिन्होंने बागीश्वर में जमीन चढ़ाई, और जो राजा ललितसूरदेव की सन्तान में से थे। इन राजाओं के ८ पुश्त की एक सनद बागीश्वर मंदिर में है, जिसका जिक्र कत्यूरी-शासन-काल में पाया जायगा। इसी वसन्तनदेव ने गंगोली में बद्ध। भुवनेश्वर नाम का मंदिर बनवाया था। इस लखनपुर के निकट कलिरौ-हाट नामक बाजार था। अब निशान भी बाकी न रहा, नाम बाकी है। यह स्थान चौखुटिया-गनाई तथा झल्याँ सरै के बीच में है।

रामगंगा नदी में कई किस्म की मछलियाँ होती हैं। कुछ बहुत बड़ी होती हैं, जिनको वहाँवाले बहुत मारते थे, अब सरकार उसे बंद कर रही है । अनेक प्रकार की तरकीबों से मछलियाँ मारी जाती हैं। मछली मारने के अनेक मेले भी होते हैं। एक मछली 'बवेणा' के किस्म की 'सलेणा' होती है। कहते हैं कि यह रात के वक्त पानी से बाहर आती है । मछली मारनेवाले वहाँ पर राख रख देते हैं, जिससे मछली के बदन की चिकनाहट दूर हो जाती है, वह चल नहीं सकती और मर जाती है। मासी, भिकियासैंण आदि बड़े गरम स्थान हैं। यहाँ गरमी में तथा शिवरात्रि को क्रम-क्रम से मेले होते हैं। "पुण्य को काशी व पाप को माशी" का किस्सा है। यह स्थान यात्रा-लाइन में हैं। मासी में सेवा समिति का एक औषधालय भी है। "झाँसी गले की फाँसी” की तरह यहाँ भी किस्सा है-
"मासी गले की फाँसी, भुइंग गले का हार ।
चौखुटिया न छोड़िए, जब लग मिले उधार ॥"
पाली परगने के अन्त में गढ़वाल जिले की सरहद पर जुनियागढ़ी नामक एक बड़ा किला आजकल वीरान पड़ा है। कई लड़ाइयाँ इस किले में गढ़वाल व कुमाऊँ के बीच हुई हैं, जिनका जिक्र ऐतिहासिक कांड में आवेगा।
नया पट्टी में रामगंगा के किनारे हवा के विषय में यह कहा जाता है कि सुबह से ठीक दोपहर तक हवा बड़ी तेज़ी से उस ओर को बहती है, जिधर को नदी का बहाव होता है, बाद दोपहर के ऊपर को हवा चलने लगती है।
सल्ट पट्टी में एक ऊँचे पर्वत पर गुजड़गढ़ी है। उसमें भी कुमाऊँ व गढ़वाल के राजाओं के बीच कई बार युद्ध हुए थे। इस समय यह वीरान पड़ी है।
नागार्जुन (नगारझन) पहाड़ पर श्रीपचवा दोराल का कोट यानी किला है। यह दोराल कुछ दिनों के लिये अपने बाहुबल से राजा बन बैग था, बाद को मारा गया।
इस परगने के मध्य में पाली नाम का गाँव है। पहले वहाँ राजा रहते थे। गोरखाली सुब्बा भी रहते थे। नैथाणागढ़ी गोरखा फ़ोज रहती थी।
पाली में तहसील भी थी। वहाँ बाज़ार भी था। इसी गाँव के नाम से परगने का नाम भी पाली हुअ। उसमें पछाऊँ इसलिये जोड़ा गया कि यह परगना कुमाऊँ के पश्चिम याने पछाऊँ में है। अतः इस समय भी यह परगना पाली पछाऊँ के नाम से कहा जाता है। यहाँ अनाज खूब होता था। यहाँ के पुराने लोग कहा करते थे, "क्या आदमी के खाने से अन्न घटता है।” पाली में इस समय केवल एक हिन्दी-मिडिल स्कूल है। आस-पास के गाँव नाईखोला व धोबीखोला कहलाते हैं।
इस परगने में कत्यूरी-राजाओं की सन्ताने यत्र-तत्र बसी हैं। ज्यादातर वे चौकोट में हैं। इस समय वे रजवार व मनुराल कहलाती हैं। ये लोग सयाने भी कहलाते हैं । यह पद प्रधान से ऊँचा है। एक वर्ग के राजपूत मिराल-गुसाई अपने को चित्तौरगढ के राना-खानदान में से बताते हैं, और कहते हैं कि जब दिल्ली के बादशाह ने चित्तौरगढ़ पर चढ़ाई की, तो उनके बुजुग चित्तौरगढ़ छोड़कर कुमाऊँ में चले आये थे। कुछ लोग इनको पंजाब से आये हुए मीरवाल भी बताते हैं।

रानीखेत का परेड ग्राउंड
पाली का श्राखिरी राजा कत्यूरी-राजवंश का था। जब चौगरखा व बारामंडल से कत्यूरी-राजा चंदों की चढ़ाई के सामने भाग निकले, तो पाली के राजा ने भी भयभीत होकर परगना पाली राजी-खुशी से चंद-राजात्रों को सौंप दिया। चंदों ने भी सयानचारी उन्हीं के हाथ में रक्खी । उनको पाली का करद जमींदार बना दिया। दरबार में कुछ काम न दिया। ज़ाहिरा यह कह दिया कि उनके दरबार में आने की आवश्यकता नहीं है । वास्तव में उनको “दाना दुश्मन" समझकर दूर ही रक्खा।
पाली की राजधानी अब रानीखेत है। यह गोरा-नगरी सन् १८६६ में बसाई गई। सरना, कोटली, रानीखेत व टाना गाँवों की जमीन १३०२४) में खरीदी गई। मि० ट प की सम्पत्ति भी मोल ली गई। यहाँ खज़ाना १ अप्रैल सन् १८६६ को खुला । सन् १८७१ में कैन्टोन्मेंट-कमेटी बनी । अब यहाँ पर गोरों की बड़ी फौज रहती है। चौबटिया, रानीखेत तथा दूलीखेत में 'गोरे रहते हैं। परगना-अफसर भी यहीं रहते हैं।

ताड़ीखेत में राष्टीय कार्यकर्ताओं द्वारा स्थापित एक राष्ट्रीय शिक्षालय (प्रेम-विद्यालय) है, जहाँ राष्टीय शिक्षा के साथ कताई-बुनाई का कार्य उच्च कोटि का होता है।

रानीखेत-बाजार
श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे,
अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com
वेबसाइट - www.almorabookdepot.com
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