
कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल - 05
पं. बदरीदत्त पांडे जी के "कुमाऊँ का इतिहास" पर आधारितवर्तमान में कुमाऊँ का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश राज से पहले कुछ वर्षों (१७९० से १८१७) तक कुमाऊँ में गोरखों का शासन रहा जिसका नेतृत्व गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने किया था और वह पश्चिम हिमाचल के कांगड़ा तक पहुँच गया था। गोरखा राज से पहले चंद राजाओं का शासन रहा। अब तक जो प्रमाण मिलते हैं उनके अनुसार कुमाऊं में सबसे पहले कत्यूरी शासकों का शासन माना जाता है। पं. बदरीदत्त पांडे जी ने कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल ईसा के २५०० वर्ष पूर्व से ७०० ई. तक माना है।
पं. बद्रीदत्त पांडे जी कुमाऊँ के इतिहास के बारे में लिखते हैं कि कत्युरी शासकों का राज्य कई पुश्त (पीढ़ियों) तक रहा। इनके शासन काल में कई दूर-दूर के राजाओं के राजदूत कत्यूरी राज्य की राजधानी में रहते थे। चित्तौरगढ़ी में शायद चित्तोरगढ़ के सम्राट् के राजदूत रहते हों जिस कारण यह नाम पड़ा है। इन राजाओं के बारे में कहा जाता है कि ये राजा बड़े धर्मात्मा थे, बिना एक धर्म-कार्य किये भोजन न करते थे। इन राजाओं को मंदिर, नौले व नगर बनवाने का बड़ा शौक था।
आज भी तमाम कुमाऊँ प्रान्त व गढ़वाल इनके बनवाये मंदिरों व नौलों से भरा है। जहाँ कहीं भी इनके द्वारा मंदिरों की प्रतिष्ठा करने में यज्ञ किया या कहीं कोई धर्म-कार्य किया या पूजन किया, तो वहाँ पर यज्ञस्तम्भ या बृहत्स्तम्भ ज़मीन में गाड़ देते थे जिन्हें अब वृखम कहते हैं। यह वृखम तमाम में अब तक दिखाई देते हैं। इन शासकों का ज्यादातर वृत्तान्त इनके शिला-लेखों से पाया जाता है। ये लेख जागीश्वर, बैजनाथ, गड़सिर के बदरीनाथ, बागीश्वर, गढ़वाल के बदरीनाथ तथा पांडुकेश्वर के मंदिरों में पाये गये हैं। जिन में दिए गए विवरण से इनकी प्रभुता का पता चलता है। विशेषकर इनके समय के ५ ताम्रपत्र व १ शिला-लेख हैं, जिनका वृत्तान्त पं. बद्रीदत्त पांडे जी द्वारा कुमाऊँ का इतिहास में दिया गया है।
पं बद्रीदत्त पांडे जी द्वारा लिखित कुमाऊँ का इतिहास के अनुसार कुमाऊँ वाला एक ताम्रपत्र विजयेश्वर महादेव में गाँव चढ़ाने की सनद की बाबत है। उसमें इन राजाओं के तीन पुश्त के नाम लिखे हैं। ये हैं राजा सलोगादित्यदेव, उनके बेटे राजा इच्छटदेव, उनके पुत्र राजा दैशटदेव हैं। इसका राजस्थान (शायद राजधानी) कार्तिकेयपुर लिखा है। शिला लेख के अनुसार इस राजा देशटदेव ने खस, कलिंग, हूण, गोड़, मेद्र, आंध्रदेशों में अपना राज्य-विस्तार होना लिखा है। संवत् इस ताम्रपत्र का ५ है पर यह संवत् विक्रम संवत् नहीं है, बल्कि सम्राट् देशटदेव के राजगद्दी पर बैठने का संवत् है। जिसके बारे अब कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं है, अनुमान ही लगाया जा सकता है।
शिलालेख के इस विवरण से ज्ञात होता है कि ये सम्राट विक्रम संवत् के चलन के समय से भी पहले राज्यासीन हुए थे। और इसी तामपत्र के दूसरी तरफ लिखा है कि राजा देशटदेव की सनद को राजा काचल्ल देव ने बहाल किया। ऐसा भी विवरण है की इस राजा ने अपने को सौगत यानी बुद्ध कहा है। शाके इसमें ११४५ है और इस सनद में लिखा है कि राजा काचल्लदेव ने नेपाल के राजा को परास्त कर लौटते समय दूलू स्थान में यह सनद जारी की थी। जहाँ तक अन्वेषण किया गया है, यह राजा काचल्लदेव कुमाऊँ के राजाओं में न थे। ऐसा भी अनुमान है कि शायद वे डोटी-राज्य के नरेशों में से हों। २०० वर्ष बाद अर्थात् १३४५ शाके में राजा विक्रमचंद ने भी इस सनद को फिर से बहाल किया। उस समय तक चंदराजा केवल काली कुमाऊँ में राज्य करते थे वे मांडलीक राजा थे और डोटी के महाराजा को कर देते थे। कीर्तिचंद के बाद चद्रवंशी नृपति स्वतंत्र नरेश हुए। जिस से यह सिद्ध होता है कि ये राजा काचल्लदेव अवश्यमेव डोटी के महाराजा रहे होंगे।
८. बागीश्वर का शिला-लेख
एक शिला-लेख व्याघ्रेश्वर या बागीश्वर शिव के मंदिर का है जो बागीश्वर में पाया गया है। कुछ लोग इसे व्याघ्रेश्वर और कुछ बागीश्वर कहते हैं, पर शिला-लेख में व्याघ्रेश्वर लिखा है। यह स्थान पट्टी तल्ला कल्यूर के सरयू व गोमती के संगम पर है। यह श्रीभूदेव देव के नाम का है जिसमें इनके अतिरिक्त सात और राजाओं के नाम हैं, जो दाता के पूर्वज थे-
- वसन्तनदेव
- खरपरदेव
- कल्याणराजदेव
- त्रिभुवनराजदेव
- निम्बर्तदेव
- ईशतारणदेव
- ललितेश्वरदेव
- भूदेवदेव
९. बागीश्वर शिला-लेख का सार
शिला लेख का सार पं बद्रीदत्त पांडे जी ने निम्न प्रकार दिया है:-
प्रार्थना व वंदना। इस सुन्दर मंदिर के दक्षिण भाग में विद्वानों ने राजवंशावली अंकित की है।
"परदेव के चरणों की वंदना करो। एक समय में एक राजा थे, जिनका नाम मसन्तनदेव था, जो राजाओं के राजा थे। बहुत प्रतिष्ठित व धनी। उनकी रानी सज्ञनारायणी थी, जो अपने पति से अन्य को न जानती थी। उसने एक पुत्र जन्मा, जो चक्रवर्ती सम्राट था, धनी था, और अपने समय में पूज्य था। उसने परमेश्वर की पजा की और बहुत दान दिया, और बहुत-सी आम सड़कें बनवाई, जो जयकुलभुक्ति को जाती हैं, और उन्होंने व्याघ्रेश्वर के लिये सुगंधित पदार्थ, फूल, धूप, दीप, तेल का प्रबंध किया, जो अम्बालपालिका में है। वह युद्ध में प्रजा के संरक्षक थे। उन्होंने फूल, सुगंधित पदार्थों के अलावा सरनेश्वर ग्राम भी, जो उसके पिता ने बैष्णवों को पूजा के लिये दिया था, जागीर में दिया। जिसने सड़कों के किनारे मकान बनवाये। जब तक सूर्य-चंद्र रहेंगे, यह दान-पत्र भी रहेगा।"
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