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कत्यूरी शासन-काल - 06

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कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल - 06

पं. बदरीदत्त पांडे जी के "कुमाऊँ का इतिहास" पर आधारित

वर्तमान में कुमाऊँ का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश राज से पहले कुछ वर्षों (१७९० से १८१७) तक कुमाऊँ में गोरखों का शासन रहा जिसका नेतृत्व गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने किया था और वह पश्चिम हिमाचल के कांगड़ा तक पहुँच गया था।  गोरखा राज से पहले चंद राजाओं का शासन रहा।  अब तक जो प्रमाण मिलते हैं उनके अनुसार कुमाऊं में सबसे पहले कत्यूरी शासकों का शासन माना जाता है।  पं. बदरीदत्त पांडे जी ने कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल ईसा के २५०० वर्ष पूर्व से ७०० ई. तक माना है।

"मसन्तनदेव का पुत्र खरपरदेव था उसके बारे में कहा जाता है कि वह भी प्रतिष्ठित व धनी सम्राट था। उनकी रानी से उनके पुत्र अधिधज उत्पन्न हुए, वो भी धनी-मानी व विद्वान् थे। उनकी रानी लद्धा( लज्जा?) देवी से, जो अपने पतिदेव के चरणों की अत्यन्त अनुरागिणी थी, त्रिभुवनराज पैदा हुए, जो चतुर, धनी, माननीय तथा गुणी राजा थे। उन्होंने दो 'द्रोण' उपजाऊ भूमि नया नाम की जयकुलभुक्ति गाँव में से उक्त देवता के पूजन को दी। और आज्ञा दी कि वहाँ के सुगंधित पदार्थ सब पूजन के काम में आवें। यह भी जानने योग्य है कि वह किरात के पुत्र का बहुत सच्चा मित्र था। उसने २१/२ द्रोण जमीन उक्त देवता तथा गामवीय पिंड के लिये दी। अधिधज के दूसरे पुत्र ने १ द्रोण जमीन भैरव देवता को दी और दो बीघा का दान संवत् ११ में शिला-लेख में लिखाया। उसने १ द्रोण जमीन व्याघ्रश्वर को और १४ मुट्ठी चंदनंदादेवी को दी और एक बावली भी बनवाई। ये सब भूमि-दान व्याघ्रेश्वर की पूजा के लिये हैं।"

“एक और राजा था, जिसका नाम निर्वत था, जिसके बारे में कहा जाता है की वह दयाशील, निष्कपट, सच्चा, शक्तिशाली, मृदु-स्वभाव, वीर, उदार, विद्वान् , विनम्र, सच्चरित्र और हँसमुख था। वह चरित्रशाली तथा बहुत गुणों से युक्त था और तीर-कमान चलाने व अस्त्र-विद्या में निपुण था। उस राजा के बारे में सूना जाता है वह नंदन और अमरावती में रहनेवाले भगवान् के चरण-कमलों को पूजने के लिये पैदा हुआ था और उसने दुर्गाधि (शिव) की कृपा से शस्त्र-विद्या में ख्याति पाई। वे शिव जिनके सिर में जटाएँ शोभित हैं, जो चंद्रमा की कला से ऐसे बाँधे हुए हैं, मानो कि मोतियों की लड़ें हैं, और जिनमें गंगा का पवित्र जल बहता है, जो उसकी शोभा को हजार गुना बढ़ाते हैं, जिनमें केशर के फूल विराजमान हैं, और सर्प शोभित हैं इत्यादि । उस राजा ने अपने सब शत्रों का मान-मर्दन किया। उसका रंग सोने के सदृश था, उसका स्वच्छ शरीर हमेशा देवताओं की-दैत्यों की (१) और विद्वानों की पूजा के लिये झुकता था और बहुत से यज्ञ करने के कारण उसकी कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी।"

"उसका पुत्र ईशतारणदेव, जो दासूदेवी-नामक प्रधान रानी से पैदा हुआ था, जिसे रानी खूब प्यार करती थी। वह भी धनी, प्रतिष्ठित और विद्वान् चक्रवर्ती सम्राट था। उसका पुत्र ललितसूरदेव, उसकी स्त्री धरादेवी से उत्पन्न हुआ था। यह देवी राजा की बड़ी भक्ति करती थी। यह पुत्र भी प्रतिष्ठित, धनी, गुणवान और शूरवीर था और बड़ा होने पर चक्रवर्ती सम्राट हुआ था। ललितसूरदेव का लड़का भूदेवदेव लायादेवी से उत्पन्न हुआ था, जो अपने पति को खूब प्यार करती थी। भूदेवदेव ब्रह्म का कटूर उपासक था, बुद्ध श्रावण का शत्रु था, सत्यप्रेमी, धनी, सुंदर, विद्वान्ध और धर्म कर्म में सदा अनुरक्त रहता था यह भी भी चक्रवर्ती था। ऐसा था कि जिसके पास काली आ नहीं सकती थी। जिसकी आँखें नील कमल के सदृश सुंदर तथा तेज थीं। जिसके हाथों की हथेलियाँ नव-पल्लव के सदृश थीं। जिसके कान बार-बार तंग किये जाते थे-उन राजाओं के किरीटों में लगे हुए आभूषणों की झंकार से, जो उसके सामने मस्तक झकाते थे। उसके अस्त्रों से अंधकार दूर हो जाता था। उसके पैरों का रंग सोने का-सा था। उसने अपने सेवकों व प्रिय भृत्यों को अवसर ग्रहण करने पर भी आजीविकाएँ (पेंशनें) दी। .............."

पं बद्रीदत्त पांडे जी लिखते हैं कि इन ताम्रपत्रों से इन चक्रवर्ती राजाओं के गुणों का पता चलता है। स्त्रियों के नाम भी इन ताम्रपत्रों में दिये रहते थे। जिससे यह ज्ञात होता है कि उनके शासन में कोई परदा-प्रथा उस समय न थी। राजा के द्वारा विद्वानों का आदर होता था। सम्राट भूदेवदेव बुद्ध धर्म के विरुद्ध थे और शायद उसी समय से बुद्ध-धर्म का प्रभाव काम होने लगा था और हिन्दू-धर्म की फिर से स्थापित होने की शुरुवात हुई हो। “काली उनके पास नहीं आ सकती" इस कथन से ज्ञात होता है कि वे निर्विकार शिव के उपासक थे और किसी प्रकार के बलिदान (बलि प्रथा) व काली-पूजा के विरुद्ध थे।

१०. पांडुकेश्वर के शिला-लेख

पं बद्रीदत्त पांडे जी आगे पांडुकेश्वर के शिलालेख के बारे में लिखते हैं कि चार ताम्रपत्र श्रीबदरीनाथ के मंदिर के निकट पांडुकेश्वर-मंदिर में रखे हैं। इनमें से २ में बागीश्वर शिला-लेख में अंकित पाँचवें, छठे व सातवें सम्राटों का नाम पाया है। एक ताम्रपत्र में सम्राटों की ३ पुश्त लिखी हैं। दैशटदेव का पुत्र पद्मटदेव राजा चौथी पुश्त में लिखा गया है और किरात, द्रविंग, उड्र, इन तीन देशों में अपना राज्य-विस्तार बताया है। खस वगैरह देश सब अपने अधीन लिखे हैं। संवत् २५ है और राजधानी कात्तिकेयपुर लिखी गयी है। दूसरे ताम्रपत्र में एक पुश्त ज्यादा दर्ज है अर्थात् राजा पद्मटदेव का बेटा सुभिक्षराजदेव कहा गया है। इन्होंने अपने नगर का नाम सुभिक्षपुर लिखा है, जिससे ज्ञात होता है कि शायद यह नगर इन्हीं नृपति ने अपने नाम से बसाया हो। अपने अधीन प्रान्तों का नाम भी पुराना ही है, जो इनके पिता श्रीपद्मटदेववाले ताम्रपत्र में दर्ज है और इसमें संवत् ४ दर्ज है।

श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे, अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com, वेबसाइट - www.almorabookdepot.com

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