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हमैरि बोलि त हमैरि पछ्याण छ

Kumauni language is the identity of Kumauni culture,kumauni bhasha hamari pahchhan.

हमैरि बोलि त हमैरि पछ्याण छ


लेखक: ताराचंद्र त्रिपाठी

दुनिया क तमाम देशनाक लोग सभ्य लै बणी और सम्पन्न लै, पर कैलै आपणि बोलि और भाष उतुक नि तिर्यै जतुक हम भारतीय लोगनैल तिर्यै हैलीं। इनन में लै पैलिक हिन्दी भाषी प्रदेशनाक  लोग-बाग आपणि बोलिन कँ हेय  समझण में  सबुँ है बेर अघिल छन। वि मैं लै हम कुमाऊनी।  यस हाल देखि  मकँ लागँ कि जै प्रकारैल हम आपणी बोलिन में बलाण छोड़्नियाँ, हमैरि बोलि लै अघिल बीस-पचीस साल में  संसार में लगातार खतम हुनै जाणी  उन दुदबोलिन  में शामिल है जाल जनोर आज नाम लिण्हीं ने क्वे नि रैगे।

संसारैकि भाषन में अधिकतर भाषा त ऐसिक खतम हईं कि  जो प्रजाति उन भाषन कँ बलाँछी, ऊँ अकाल महामारी युद्ध और आक्रमणनाक कारण उजड़ि गयीं।  कुछ भाषन कँ  वाँक प्रभावशाली लोगनैकि भाष खै गे।  कुछ भाषन कँ हमार पब्लिक स्कूल जास ऊ  स्कूल खै गयीं जनन में वि्द्यार्थिन कँ आपणि बोलि बलाण में डाँट पड़्छि।  कुछ कँ ठुल मैंस कई जाणाक चक्कर में हमार इज बौज्यूल  उज्याड़ दे।  जो बचीं उनन कँ रोजगारैकि भाष और वि में लै भल रोजगारैकि भाष (अंग्रेजि) खै गे। आब स्थिति यो छ कि जनन कँ आपण बार में  क्वे हीनताबोध नै, आपणि परंपरा और बोलि दगै लगाव छ, उनैर भाषा्कँ आइ झसक नि लागि रै। लेकिन   जनन कँ  हम  कुमाऊनीनै कि चारी आपणि बोलि बलाण में शरम लागैं, उनैरि बोलि बचणैकि के उम्मीद न्हैं।  म्यर विचारैल त यो शरम केवल कुमाऊनी कँ न्हि खाणै  कती- कति अंग्रेजी क सामणि हिन्दी कँ लै बुस्यूण में छ।

पिछाडि डेड़ सौ साल में जै  प्रदेश में  भारताक  और प्रदेश्न है बेर  आकार और जनसंख्या में बहुत नान हुण पर लै विश्वप्रसिद्ध  सर्वेक्षक, एक है बेर एक महान साहित्यकार, भाषाविद, भूगर्भविद, वैज्ञानिक, भारतरत्न, विक्टोरिया क्रास, महावीरचक्र विजेता  सेनानी, पर्वतारोही,  और महान वीरनैल जन्म ल्हि बेर आपण देशोक नाम चमका   और आज लै भारतीय प्रशासनाक सर्वोच्च शिखर पर विराजमान छ्न, उ प्रदेशकि जनता कँ यदि आपणि बोलि  में बलाण में शरम लागौ, यै है बेर अधिक शर्मैकि बात और केहै सकैं।

जो लोग  भाषनैकि विकास प्रक्रिया  और वि में निहित जानकारिन क विशाल कोश कँ नि जाणन,ऊँ लोग यो  कूनी कि यदि सारी दुनियै कि  एकै  भाष  होली त  विभिन्न  देश, जाति और समाजनाक  बीच बात चीत में  कतुक सुविधा है जालि।  लेकिन  उ यो भुलि जानी कि क्वे लै भाष केवल आपसी बात-चीत कै माध्यमै नि हुनि, ऊ त हमैरि संस्कृतिक, हमार पूर्वजनाक द्वारा हजारूँ वर्षन में एक-एक कैबेर आपण क्षेत्राक भूगोल, इतिहास,  वनस्पति,  खनिज, रोग और रोगनैकि उपचारैकि विधि, जलवायु गत परिवर्तन, खेती,  फसल,  रीतिरिवाज, दुख-सुख,  एक शब्द में कूँछा त, संस्कृति  जीवन्त स्वरूप हैं, भाषै नि रई त  दुनियैकि ७ अरब जनसंख्या में हमैरि पछ्याण के रौलि,    जरा सोचियो त!

हमार पूर्वजनैल प्रकृतिक  विविध रूप और प्रभावन कँ स्पष्ट पछ्याण दिणा क लिजी कतुक परिश्रम कर हुनोल।  वस्तुनाक नाम वनस्पतिनाक नाम, पहाड़नक  नाम, फसलनाक नाम, जातिनाक नाम, रोगनाक नाम, दवाइनाक नाम रीतिरिवाजनाक नाम, गीत बाद, रिश्तेदारी,  नामै नाम हो। नाम के भै ्जानकारिनोक विश्वकोश भै।  ऐतुकै नै एकै चीजा क अलग अलग प्रकारनाक नाम बर्ख कँ लियो, कति तहड़ लागणो छ, कत द्यो बुरकणौ, कति सतझड़ि लागि रै।  उज्याव कँ लियो कैं फूल-फटक ज्यूनि ऐ रै छ त कति भुर-भुर उज्याव है रौ।  कति ह्यूँ पड़नोछ त कतो ह्यूँ मुन, कति बरमाव। कति गैर छ त कति दमसैण। गाड़ छ त गध्योर और गंग लै। अगास छ त सरग लै।  हजारूं प्रकारै कि वनस्पति छन, उनन में हरेक वनस्पति कँ  रंग, रूप, स्पर्श, गंध  प्रभाव आदि क आधार पर उनन पर फिट बैठणि नाम दिण क्वे खेल न्हैं। पर उनूल जतुक सूक्ष्मता  उनोर नाम धरि राखौ, वि पर आजाक वनस्पति विज्ञानी लै आश्चर्य करनी।

उनूल आपण आस-पास देखीनेर पशु और चाड़-पि्टुंनाक  रंग रूप व्यवहार कँ लै बड़ गौरैल समझौ। उनर उपयोगी तत्वनैकि पछ्याण करी। उनन क  लै अल्लग अलग नाम दे। कति उनैरि बोलि कँ आधार बणा त कति उनार रंग रूप आकार  और व्यवहार कँ । उनूल  दूध दिनेर जानवर पालीं। उनार बहड़्नैकि सहायताल  कृषि क्षेत्र क विस्तार करौ। फसल नष्ट करनैर किड़- पिटुंगन कँ चट करनैर  गिनौड़नाक लिजी उनूल घोललै बणाईं।  यो लै पत्त लगा कि यो नाना प्रकाराक पक्षी  मौसमनाक बार में के संकेत दिनी।   यै कै आधार पर घाघ- भड्डली कहावतनाक रूप में मौसम विज्ञानक लोक स्वरूप लै विकसित करौ। 

उनूल परिवार बणा। समजोक गठन करौ। आपण समाज दगाड़  जुड़ाव पैद करणाक लिजी  रक्त सम्बन्धी, जाति सम्बन्धी, आर्थिक   रिश्तन क अलग अलग नाम दे। उनार बीच  व्यवहारैक मर्यादा स्थापित करी।   यो मर्यादा उनूल केवल जीवित  लोगनाक लिजी कै नै द्याप्त और पितरनाक लिजी लै कल्पित करी। उनूल परम्परा स्थापित करीं, रीति-रिवाज विकसित करीं,  लोक में प्रचलित  तमाम प्रकाराक विश्वासन कँ जन्म दे।  भैम लै  हौ  तो वीकँ दूर करणाक उपाय लै सोचीं।   मनोरोगन कँ दूर करणाक लिजी  रखवाली मंत्र विकसित करीं।  देवलोक, पितरलोक, कर्म और कर्मफलैक मान्यता स्थापित करिबेर समाज कँ अनुशासित करौ।

नाना प्रकारैकि वन सम्पदा और खनिज पदार्थनाक रोग निवारक तत्वनैकि पछ्याण करी।  वैद्यकी और चिकित्सा विज्ञनोक विकास करौ।  कुछ् मामलन में त उनैरि जानकारी आधुनिक चिकित्सा विज्ञानाक लिजी लै प्रेरणादायक  मानी जैं। उदाहरणाक लिजी जब अंग्रेज आस्ट्रेलिया पहुँची और वाँ उनूल आपणि भलि बसासत बणै हैल्छी। उनार शरीर में तमाम फ्वाड़- फुंसी उपजण लागीं।  कतुकुप एलोपैथिक इलाज करै दि पर के फैद नि भै। आखिर में उनूल एक एक स्थानीय आदिवासी थें बीमारी क बार में बात करी। उ आदिवासी एक जड़ ल्या जैकँ घैसि बेर चन्दनैकि चारी लगूण पर  सब फ्वाड़्फुंसी गायब हुण लागीं। तब अंग्रेज डाक्टर लोग नैल लै मानि ल्हे कि जनन कँ हम असभ्य कूना, उनन कँ लै अनेक प्रकारैकि ऐसि जानकारी हैं, जो  तथाकथित सभ्य लोगन लिजी लै दुर्लभ छ।

 तमाम प्रकारैकि समस्यानाक हुण पर लै, उनूल आपण आनन्दा  अवसर निकालिं। झ्वाड़, चाँचरि भगलौल, न्योलि जास गीतन में आपण दुख, सुख,  प्रेम, मिलन, विछोह, भरीं त आपण पैकनाक वीरता बार में जागर, भड़ौ, रचीं, और उनार माध्यमैल  उत्साह  पैद करौ। उनूल आपण राजनैकि तारीफ करी त उनार अत्याचारनोक  लै विस्तारैल वर्णन करौ। सौ बणिनाक बार में, जनन दगै  उनैरि एक लै नि चलछि उनार बार में तमाम प्रकारक किस्स बणै बेर उनोर मजाक उड़ा। उनूल नानतिननाक खेलनाक लिजी लै गीत ्बणाईं। आण काथ  जोड़ीं, ऐपण, बार बूँद आदि द्वारा आपण विश्वास अंकित करीं। योई  नै आपण भैमन कँ लै व्यक्त करौ त उनोर उपचार लै बता।

 यतुक काम एक दिन में त न्हि हैगो हुनोल। यै में त  हजारूँ वर्ष लाग हुनाल। उनार  हजारू सालक परिश्रम लै हमन कँ दुनि में एक पछ्याण मिली। और यो पछ्याण  हमैरि भाष और,हमार दगै  लागी  ’ई’   (जस  कुमाऊनी, गढ़्वाली, बुन्देली,  मराठी, गुजराती, मलयाली पंजाबी,)  शब्दैकि पोटइ में बादि बेर आपण नानतिनन कँ सौंपते जाणैकि लिजी हमन कँ दि राखी।  यदि हम आपणि बोलि कँ बलाणै बन्द करि द्यूला त  अपाण पितरनाक प्रति कतुक ठुल विश्वासघात  और हौ आपणी पछ्याण कँ लै खतम करणाक समान होल।

  बोलि और भाष त पाणी क धार छन। जाँ पाणी-पाणि हूँ, वि कँ क्वे  नि पुछन। लेकिन जब पाणी सुकि जाँ तब पत्त लागँ कि अहा पाणी लै के चीज छ। उसीके जब तक हम आपणै इलाक में रूना हमन कँ आपणि बोलिक कीमतै मालूम नि हुनि। लेकिन जब  हम दुसार प्रदेश और देश में जाना तब  हौस जै लागें कि याँ क्वे हमैरि बोलि बलाणी लै मिललो?।  आपूँकँ उदाहरण द्यूँ। मैं ९ महैण अमरीका में रयूँ। वाँ यस लाग छि कि  कभैं आपण देशै  क आदिमि लै देखियलो? एक दिन एक   हमैरि जै  लट्टी वालि चेलि देखीणी, उ बंगलौरै कि छी। थ्वाड़- बहुत हिन्दी लै बलै और समझि ल्हि छी। हमन क लागौ कि जस हमार घरैकि चेलि बेटि मिलि गै। आज १४ वर्ष  है गयीं आइ लै उ हम एक दूसराक हाल-चाल पुछनै रूाद आपणि बोलि बलाणना। यो ई नै जै मुहल्ल में हम रयाँ वाँ र्रॊणा क पैले दिन पडोस में रूनेर  कराँचीक एक महिला मिलण हुँ ऐगे, और कूण लागी अहा! ऐतु वर्षन बाद आपणि भाष बलाणी लोग मिलीं। मै  छै महैण जापान में लै रयूँ।  देखण में लै  आदुक लाम जास, बोलि लै अलगै नै,  वीक अलवा कै ओर बोलि कँ बिल्कुलै नि बलाणी।  और जाग त अंग्रेजि बलाणी तब लै मिलि जानी वाँ त  डाक्टर हो या अफसर, या दूकानदार हो बस, टैक्सी, वाल, जै थें पुछछा  डू यू नो इंग्लिश?  उ फट्ट जबाब द्योल ’ निहोंगी ( जापानी)  अपूँ समझि सकछा कि यसि जागन में कतुक निश्वास लागन हुनोल। एक दिन  एक आपण देशोक जो लागणि आदिमि मिलि पड़ौ।   अङाव हालणू जो मन करण लागौ।   हिन्दी में बात चीत शुरू भै।  काँ क छा , कै छा, कसिक आछा जसि बात  हुन हुनै उ लै पहाड़ि में ऐ गोय। स्याल्दे क चन्दन सिंह।  आ्ठ घंट दगड़ै घुमनै रयाँ। अलग हुण हूँ मनै नि भोय। तब मैल कौ नै कि घर में त पड़ोसी लै भैरै क लागँ पर जब भैर जाँछा नै, तब लागँ कि कोई हमार इलाको क लै मिललो?

 आपणि बोलि में बलाणाक यो मान कभैं न्हेतन कि हम दुसरि भाषन कँ सिखणै छोड़ द्यूँ । कतुक भल हौ कि हमार नानातिन अंग्रेजि में लै फटाफट बलाण और लेखण में कुशल हो  , हिन्दी में लै, है सकौ त  भारतैकि या दुनियै कोई और भाषा लै। (राहुल सांकृत्यायन त २२ भाष जाणनछि और अल्माड़ा क हेमचन्द्र जोशि ज्यू १४ भाषा)   ऊँ ठुल-ठुल पदन में  आसीन है बेर देश और दुनियै  सेवा करन, खूब समृद्ध हुन,  पर आपण लोगन दगै आपणी बोलि में बलाण । यदि य अभ्यास छुटि लै गो छ त फिरि  प्रयास करला त आपण धरती और संस्कृति दगै जुड़ावाक लिजी नै हमार पुरखन द्वारा हजारों साल में संचित थात कँ बचै सकाल। 

 अन्तर जमानै कि लहर में हम और हमैरि परम्परा और  हमैरि विशिष्ट पछ्याण काहूँ गे, पत्तै नि चलौ। और जब दुनि में अघिलाक लोगन थें यो पुछि जाल  कि ऊ ्को छन को छन त, बंगा्लि बलाल ऊ बंगालि छ, क्वे कौल हम तमिल छाँ, क्वे कौल हम पंजाबि छाँ, किलैकि उनैरि बोलि ज्यूनै ह्वाल। तब हमार ना्नतिन एक दुसरोक मुखै देखण में रै जाल। किलैकि  दुनिया क जन-महासागर में बोलि है बेर  क्वे दुसैरि खास पछ्या्णै नि हुनि।

ताराचंद्र त्रिपाठी, एल मुरादबाद, 21-12-2016


ताराचंद्र त्रिपाठी जी की फेसबुक वॉल से साभार

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