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बातें पहाड की, ब्या-बर्यात की व्यवस्था-2

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बातें पहाड की, ब्या-बर्यात की व्यवस्था-2


लेखक: विनोद पन्त 'खन्तोली'

पहाड़ के पुराने रीति रिवाज परम्पराओ के बारे में लिखने का मेरा उद्दैश्य मात्र इतना है कि हमारी नयी पीढी हमारी पुरानी परम्पराओ को जान सके।  अच्छा लगे तो उन पर गर्व कर सके, उनकी अच्छी बातों को चाहे तो जितना भी आज संभव हो आत्मसात कर सके।  मेरा मकसद पहले और आज की तुलना करना नही है।  कुछ चीजें तो आज संभव ही नही हैं, महानगरों या मैदानो में तो कतई नही।  हां पहाड में कुछ जगह अभी तक कुछ लोग शानदार तरीके से ये विरासत संभाले हैं।

विवाह समारोह होने पर पहले जब बारात गांव की सीमा में पहुंचती थी तो गांव से कुछ युवा और किशोर बारात के स्वागत के लिए पहले ही तैनात रहते थे। लड़की वालों की तरफ से एक दो बड़ी उम्र के लोग भी जाते थे ताकि बारात में कुछ अप्रिय घटना ना हो जाय। किसी बात पर बरेतियों और घरेतियों में मतभेद हो जाय या लडाई झगडे की नौबत आ जाय तो बडे लोग बात संभाल लें।  आवभगत वाली टोली के पास एक दो गैस (पेट्रोमैक्स), जलपान के लिए मिठाई नमकीन, एक दो दरी चटाई, चाय बनाने का सामान केतली, चाय दूध गिलास वगैरह होते थे।

उस समय संचार के साधन नही थे तो अंदाजा लगाते कि बारात कितनी दूर से आनी है कब चली होगी कब तक पहुंचेगे..।  जब से मैने होश संभाला तब से गाड़ी पर बारात आने का प्रचलन हो चुका था।  कुछ बारातें पैदल भी आया करती थी उससे पहले तो पैदल ही था बल।  मेरे से पुराने लोग बताते हैं कि बारात दूर की हो तो तीन-तीन, चार-चार दिन पैदल जाना-आना भी करती थी, रास्ते में रात को घर्मशालाओ में रुकते भी थे।

बारात को जहां पर रुकवाया जाता था जलपान के लिए उसे जनवासा कहते थे।  जनवासा कहने में लग रहा है कि कोई विशेष जगह होगी, पर नहीं, गांव के रोड हैड पर किसी की दुकान के पास कमरे में या गांव की सीमा के पास किसी के गोठ में एक दो दरी या चटाई बिछाकर ब्यवस्था कर दी जाती थी।  सभी बाराती प्रेम से दरी पर जमीन में बैठ कर जलपान की प्रतीक्षा करते।  बर भी उनके साथ ही बैठा होता, किसी अलग कमरे या कुरसी आदि की औपचारिकता बर के लिए भी नहीं थी।  बारात के स्वागत खिलाने-पिलाने के लिए एक घारणा यह भी थी कि जवाई (बर) तो आता जाता रहेगा पर बाराती तो आज ही आये हैं, अत: उनके सत्कार में कोई कमी नही रहनी चाहिये।

सीधा साधा जमाना था दिखावा वगैरह नही था, जलपान में तीन चार चीजें नियत थी, बाल मिठाई का आधा पीस, एक या दो लड्डू और नमकीन-चाय। ये सब मिलता था कागज की प्लेट में।  ये सामग्री बारात आगमन से पहले ही सजा दी जाती ताकि बारात आये तो फटाफट नाश्ता दिया जा सके।  कुछ बड़े बुजुर्ग चोखा खाने वाले हुए तो उनको नमकीन नहीं दी जाती।  शराब का प्रचलन न के बराबर था, गांव के इक्का दुक्का पीने वाले को पहले ही न्यूत नही देते।  अगर न्यूत दिया जाता तो इस तााकीद के साथ कि- अरे पीबेर घपल नि करिये हां.., नतर गोठ हाल द्यूल।  पीने वाले को हिराकत की नजरों से देखा जाता था।

चाय के बाद बर को उनके पुरोहित तैयार करते, टोपी पहनाते उसके उपर एक कपड़ा सा लगाकर मुकुट बांधा जाता फिर बिस्वार और पिठ्या (रोली) से कुरडूं निकाले जाते थे बर के चेहरे पर..।  ये सूट वगैरह भी लगभग हमारे समय से कुछ पहले चली नहीं ते बर पीली धोती कुरता ही पहना करते थे।  एक दो बारातो में तो मैने भी बर को धोती पहने देखा है, बरेति तो घर से ही तैयार होकर आते।  जब ये सब चल रहा होता तो बाहर बीन-बाजा और ढोल का संगीत गजब का समा बांध देता।  बीन-बाजा और ढोल  हर समय के हिसाब से अलग अलग बजते, जैसे चलते समय हिटाव बाज्, नाच पर छलरी बाज्।  रुकी हुई बारात पर अलग बाजा, रास्ते में कोई भी  मंदिर आने पर एक विशेष बाजा जिसे नंगार हाडना कहते थे बजता था, साथ में छलरिये चल रहे होते थे।

बारात जब जनवासे से चलती तो एक गैस आगे और एक बर के आसपास और एक पीछे चला करता था।  साथ चल रहे घरेतिये बीच बीच में बरेतियों को रास्ते के बावद ताकीद भी करते रहते- अरे भलीके हिटिया हां, अघिल बाट खराब छ, अघिल भ्योव छ, अघिल रडाव् बाट छ।  सबका यही सोचना होता कि बर्यात भला मुखलि ब्योली मोल/म्हाव (घर) छैॆ पुजि जाण चें।  किसी को चोट न लगने पाये. ब्या के टैम पर बिघन ठीख नही फिर सभी बरेतिये मेहमान ठैरे।  बारात को समय पर ब्योली के घर पहुचना होता ताकि विवाह सही लग्न में किया जा सके. धूल्यर्घ का समय भी गोधूलि वेला तय था पर ये संभव नही हो पाता था।

बर का आगन में आना बहुत शुभ चीज होती थी, बुजुर्ग महिलाऐ धूल्यर्घ में बर के खडे होने पर गाती-
आंगण पटागण बर नारायण ठाढो...
कहां के तुम परदेशी लोगो

एक तरफ विवाह की रस्में चल रही होती दूसरी तरफ खाने की तैयारियां होती, दरी या चटाई या कभी तखत बिछाकर जमीन में ही बारात खिलाई जाती।  गांव की ही मौसमी सब्जियां जैसे गडेरी, कद्दू, आलू वगैरह होती साथ में अमख्वाडे का मीठा आचार, हलवा पूरी होती।  एस रसदार एक खुशक साग होता  जैसे ही आगन में बारात खा रही होती चाख मे से लडकियां और नई बहुए बरेतियों को सिटने लग जाती-
दो दो पूरी जेबन में लुकाया करो..,
या फिर आये बाराती आये बाराती बडे शान से..
बारातियों की खातिर हमने पूरी बनवाई..
पूरी हूरी ये क्या जाने ..
फिर पकवाया भटिया जैसे गानों से छेडा जाता,
इस छेड छाड में घरेती आदमी भी शरीक होते  और दोनो तरफ से सभ्य ब्यंग बाण चलते जैसे-
अरे ज्वेशि ज्यू तुमरि घोति खुललि हां
अरे एकाद पुरि आपुणि बराणि तें ले लिजाया. वगैरह वगैरह।
हंसी खुशी के माहौल में सब चलता रहता, खाना पत्तों में खिलाया जाता, बाद-बाद में थालियां ग्राम पंचायतों ने खरीद ली थी।  बर को गोठ में खिलाया जाता था, भोजन के बाद कन्यादान की रस्म होती।  बुजुर्ग महिलाऐ कर्म के गीत गाती-
चन्दन चौकी बैठी लडकी केस दिये छिटकाय...
छोडो छोडो परदेशी लोगो अंगूठी हमारी छोडो
बाबुल खेलो परद बर देखिये.
जब बडी महिलाए रुकती तब लडकियां बन्ना बन्नी के गीत गाने लगती
पैरो बन्नी पैरो पैरन का दिन आज है....
पंकजकर हाथ का अंगूठा मुझे अपना बनाओगे...
करो इकरार पंचों में  हमें पूरा निभा ओगे
सुहाग अम्बे गौरी बन्नी को दीजो सुहाग
उठो सिया श्रृगार करो,  अब धनुष राम ने तोडा है
बन्नी का मुखडा घूघट में छिया है क्या देखते हो बन्ना टेडी नजर से. ...
यही पर बरेतियो को भी सिटते थे-
चल मेरे मिठ्ठू चने के खेत में....
आम चटनी चूर की. चटनी है अमचूर की
अरे बरेतियो बुरा न मानो सूरत है लंगूर की....

कन्यादान के बरेति सोने चले जाते, किसी के गोठ गोठमाव में पुराल के उपर दरी बिछ जाती, बरेती बिना हुज्जतबाजी के उसी पर आडे तिरछे होकर सो जाते।   कुछ बरेतियों को एक एक दो दो करके गांव के लोग अपमे घर भी ले जाते।  कन्यादान के बाद मानुमुणि (फेरे) होते, इस रस्म को ब्योली के परिजन नही देखते हैं, लडकी का भाई ही खील देने के लिए रहता है।
यही पर वहां रुके बरेतियों को चाय दी जाती फिर शय्यादान में बर ब्योली को चारपाई पर बैठाकर लडकी वाले उनकी आरती करते हैं-
जय श्री राधा जय श्री कृष्णा श्री राधा कृष्याय नम:

इसके बाद बचे खुचे बाराती इधर उधर सो जाते।  सुबह विदाई की बेला में  बीन बाजे की मार्मिक धुन पर जब डोलि विदा होती तो ब्योली को  परिवार जनों से चिपटकर रोना देखकर बरेतिये भी भावुक हो जाते।  समधी लोग आपस में एक दूसरे का आभार प्रकट करते, लडकी की की मां समधी से कहती- आब तुमारे शरण छ, के गलती होली तो माफ कर दिया..., हमर चेलि जवैं कें दुरगूण कब भेजला पूछा जाता।  बरेती घरेती फिछली रात की हंसी ठिठोली के लिए आपस में माफी मागते, मजाक को दिल पर ना लेने की बात करते थे।

बारात विदा होती दुलहन के घर में छोड जाती, एक उदासी,  एक खालीपन सा।  लोग लडकी के पिता को जो कि अपने आसुओ को बमुश्किल रोके रहता था, को कहते- भली के बर्यात निभ गे..
डाड झन मारिया हां.  भलो जवैं ऐरौ तुमार...
लडकी का बाप हाथ जोडकर सभी का अभिवादन कर आंसू पोछने की कोशिस करता..

विनोद पन्त' खन्तोली ' (हरिद्वार), 11-09-2021, M-9411371839

विनोद पंत 'खन्तोली' जी केफ़ेसबुक वॉल से साभार
फोटो-ठाकुर सिंह

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