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भाषाओं के विकास का स्वरूप और कुमाऊनी

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भाषाओं के विकास का स्वरूप और कुमाऊनी

लेखक: ताराचंद्र त्रिपाठी

मातृभाषा व्यक्ति के शैशव का सहज अधिगम है. परिवार में जो बोली जिस रूप में और जिस विशिष्ट उच्चारण के साथ बोली जाती है, वे रूप व्यक्ति के मस्तिष्क में स्थायी हो जाते हैं और यही रूप पीढ़ी दर-पीढ़ी संक्रमित होते रहते हैं. इस प्रकार विभिन्न पारिवारिक बोली-समूह एक ही स्थान पर निवास करते हुए भी अपने विशिष्ट बोली रूपों को युगों तक बनाये रख सकते हैं. यही कारण है कि एक ही गाँव  में रहने वाले  विभिन्न जाति-समूहों में अलग-अलग बोली-रूप मिलते हैं। इन विभिन्न बोली.रूपों में मुख्यतः उच्चारणगत भिन्नता पायी जाती है। उदाहरण के लिए धनियाकोट पट्टी के गाँवों में कुमाऊनी ‘मैं’ का उच्चरित रूप शिल्पकार समूहों ‘मि’ और ब्राह्मणों में ‘मैं’  है, पर  स्यूनराकोट पट्टी के ब्राह्मण वर्ग में यह ‘मि’ और गंगोली हाट में ‘मु’ उच्चरित होता है। इसी प्रकार ‘मुझको’ यदि धनियाकोट  में ‘मुकँ’ है तो साह बोली में ‘मिकीं’, किसी अन्य समूह में कहीं ‘मेकिं’ और कहीं ‘मेकैं’ है।  विभिन्न क्षेत्रों  और उनमें रहने वाले जाति-समूहों द्वारा उच्चरित होने वाले ये बोली और शब्दरूप संक्रमण के दौरान भी तब तक यथावत् बने रहते हैं जब तक कि उन पर कोई झकझोर देने वाला प्रभाव नहीं पड़ता।

उच्चारणगत भिन्नता के अलावा बोली-रूपों के वस्तु-नामों में क्षेत्रानुसार पयार्यगत भिन्नता भी पायी जाती है। उदाहरण के लिए कुमाऊँ में ’गूलर’ नैनीताल जनपद में गूलर है तो अल्मोड़ा जनपद के पाली क्षेत्र में ’उमर’। प्याज अन्यत्र प्याज है तो कोटाबाग क्षेत्र में गंठि। मूली अन्यत्र ’मुल’ है तो काली कुमाऊँ में चोत। इसी प्रकार जामुन कहीं जमण है तो कहीं फल्न। मकई कहीं जुनल है, कहीं घ्वग, कहीं काकुनि। कुल्हाड़ी कहीं रम्ट है तो कहीं बणकाट। कैंची कहीं कैंचि है तो कहीं लखमा्र। खेत कहीं खेत है तो कहीं गड़ और कहीं हाङ्। आग कहीं आ्ग है तो कहीं आगु  और कहीं भिनेर। ये शब्द रूप सैकड़ों वर्षों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संक्रमित होते हुए वर्तमान तक पहुँचे हैं।

ऊपर मैंने झकझोर देने वाले प्रभाव का उल्लेख किया है। यह झकझोर देने वाला प्रभाव किसी भी समाज पर पूर्णतः हावी हो जाने वाली घटनाओं के रूप में पड़ता है। उत्तराखंड में पहली बार यह प्रभाव खशों के भारी आव्रजन के रूप में पड़ा जिसने न केवल यहाँ की कोल, मुंड, किरात जातियों को पराभूत किया अपितु धीरे-धीरे उनकी बोलियों को भी मृतप्राय कर दिया। परिणाम यह हुआ कि उनकी बोलियों के अवशेष वर्तमान बोलियों के कतिपय शब्दों तक ही सीमित रह गये। दूसरा झकझोर देने वाला प्रभाव, हमारे अपने युग में हिन्दी  के वर्चस्व की देन है जिसके कारण पर्वतीय क्षेत्र के आन्तरिक भागों तक क्षेत्रीय बोलियाँ प्रचलन से बाहर होती जा रही हैं।

जहाँ तक बोली रूपों के विकास का प्रश्न है, मेरे विचार से, उसकी भी दीर्घकालिक और अल्पकालिक, दो स्थितियाँ होती हैं। राजनीतिक और आर्थिक कारणों से जब कोई भाषा सामान्य व्यवहार में  प्रयुक्त होने लगती है और विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के बीच संपर्क का माध्यम बन जाती है तो उसके, क्षेत्रीय बोलियों के उच्चारणगत विशिष्टिताओं के अनुरूप अनेक दीर्घकालिक बोली रूप विकसित होने लगते हैं। वर्तमान में  हिन्दी के  विविध बोली रूप बंबइया हिन्दी, दक्खिनी हिन्दी, श्रमजीवी जनता द्वारा व्यवहृत होने वाली हिन्दी आदि अनेक रूप मिलते हैं। यही स्थिति अंग्रेजी की भी है। उसके भी न केवल देशभेद से  अनेक रूप विकसित होते जा रहे हैं अपितु इंटरनेट के विकास और नैटस्पीक तथा लघु संदेश पद्धति के विकास के कारण आम बोलचाल में उसका स्वरूप बहुत अधिक बदलता जा रहा है।

दूसरी ओर जब कोई बाहरी समुदाय आर्थिक अथवा किसी अन्य कारण से किसी नये क्षेत्र में प्रवेश करता है तो  वहाँ रहने वाले बहुसंख्यक समुदाय की बोली को अपनाना उसकी विवशता होती है। फलतः आगंतुक समुदाय के मूल बोली रूप के प्रभाव से बहुसंख्यक समुदाय की बोली का एक और अल्पकालिक रूप विकसित हो जाता है  पर निरंतर संपर्क के कारण एक दो पीढ़ी के अन्तराल में यह अल्पसंख्यक बोली रूप बहुसंख्यकों की बोली रूप में, वस्तु नामों  के कुछ नये पर्याय जोड़ने के अलावा अपना अलग अस्तित्व खो देता है। उदाहरण के लिए भारत विभाजन के बाद पंजाब से विस्थापित होकर अल्मोड़ा की लाला बाजार में अपना व्यवसाय आरंभ करने वाले  पंजाबी व्यवसायियों की पहली पीढ़ी द्वारा रोजगार की  विवशता के कारण अपनायी गयी कुमाऊनी आरंभ में एक पृथक बोली रूप में उभरी होगी, पर उनकी वर्तमान पीढ़ी द्वारा बोली जाने वाली  और नगर केमूल निवासियों   की बोली में  अन्तर नहीं रह गया है। निष्कर्ष यह है कि जो भी बोली रूप हावी होता है वही शेष रहता है  अन्य रूप कालान्तराल में विलुप्त हो जाते हैं।

यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि अतीत के आवागमन और संचार के सर्वथा अविकसित साधनों वाली कृषि और पशुपालन पर आधारित समाज व्यवस्था में कोई भी भाषा न तो वर्तमान अंग्रेजी या हिन्दी की तरह जन-सामान्य के रोजगार और संपर्क की भाषा बन सकती थी और न उसकी आवश्यकता ही थी। इसीलिए धर्म और विधि एवं विभिन्न भाषा-समूहों के बीच संपर्क की भाषा होने के बावजूद संस्कृत केवल अभिजात वर्ग की औपचारिक भाषा के रूप में ही विद्यमान रही और सामान्य जनता अपनी-अपनी बोलियों का व्यवहार करती रही। संस्कृत नाटकों में विभिन्न वर्गों के पात्रों के संवादों  के लिए अलग-अलग बोली रूपों का विधान भी इसी स्थिति का परिचायक है।

यह अवश्य है कि यदि कोई बोली समुदाय अपना अलग समूह बना कर रहने लगे और उसे अन्य बोली समूहों के बीच निरंतर संपर्क की आवश्यकता न हो तो उसी क्षेत्र में रहते हुए भी वह अपने स्वतंत्र बोली रूप को बनाये रह सकता है। यही कारण है कि तिब्बती बर्मी परिवार की दरमियाँ, व्याँसी और चौदाँसी बोलियों और भारतीय आर्य भाषा परिवार की सीराली और अस्कोटी बोलियों से घिरे एक छोटे से क्षेत्र में मुंडा परिवार की मानी जाने वाली राजी बोली अपने अस्तित्व को शताब्दियों से अक्षुण्ण रखे हुए है। वर्तमान में  शिक्षा, रोजगार और संपर्क की भाषा, हिन्दी, के सर्वग्रासी प्रभाव से राजी बोली भी अछूती नहीं है।

ऐसा लगता है कि भाषाओं के विकास से संबंधित अवधारणाओं में कहीं न कहीं कुछ स्रोतगत अभाव और कुछ  भ्रान्तियाँ अवश्य हैं। यही कारण है कि हमारे भाषाविद्  बिना तत्कालीन राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को समझे, प्राचीन काल की लिखित भाषाओं से, भले ही उनका भौगोलिक क्षेत्र भिन्न रहा हो, किसी अन्य क्षेत्र के बोली रूपों के विकास की बात करते हैं। कुमाऊनी का विकास शौरसेनी प्राकृत से मानना इसका एक उदाहरण है। जबकि संस्कृत को सभी भारतीय भाषाओं की जननी मानने वाले पुराणपंथियों, जिनमें पिशल के अनुसार होएफर, लास्सन, भंडारकर, और याकोबी भी शामिल हैं,   को छोड़ कर सभी यह मानते है कि किसी मानकीकृत लिखित भाषा से बाद में स्वयं मानकीकृत भाषा का रूप ले लेने वाली बोली सहित किसी भी भाषा का विकास नहीं होता।

संस्कृत अपने युग में और आज भी भले ही कितनी ही प्रतिष्ठित भाषा क्यों न रही हो, वह अभिजात वर्ग की औपचारिक भाषा मात्र ही रही। गुप्तोत्तर युगों में  उत्तरी भारत की राजकाज की भाषा होने के बावजूद आम जनता से उसका कोई संबंध नहीं था। सामाजिक स्थिति उच्च होने के बावजूद उसे सीखने की आवश्यकता जन सामान्य को कभी नहीं रही।  फिर कृषि और पशुचारण पर आधारित प्राचीन समाजों में  कोई भी परिनिष्ठित भाषा आम जनता की भाषा हो ही नहीं सकती थी। शिक्षा के कुछ ही वर्गों तक सीमित होने तथा रोजगार के पारंपरिक स्वरूप के कारण उसके प्रसार और सामान्य भाषाओं को प्रभावित करने अथवा उनके सहयोग से नये बोली रूपों के विकास की वह संभावनाएँ नहीं थीं जो आज अंग्रेजी और हिन्दी में हैं। यही स्थिति लिखित रूप में मिलने वाली महाराष्ट्री, शौरसेनी और मागधी जैसी प्राकृतों की भी है। इनमें अधिकतर तो  राजदरबारों की चमत्कार प्रियता के कारण कृत्रिम भाषाएँ लगती हैं जिनमें श्रुति मधुरता के लिए अधिकतर व्यंजनों  को खदेड़ दिया गया है।

अब सवाल यह उठता है किसी बोली के विकास की मानक अवधि क्या है? भौतिक घ्वनि विज्ञानियों की सुनें तो पता लगेगा कि हम एक घ्वनि का उसी रूप में पुनः उच्चारण कर ही नहीं सकते। हर बार के उच्चारण में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य परिलक्षित होता है।  इस तरह एक ही ध्वनि के उसी तरह अनन्त रूप होते हैं जैसे संख्याओं में एक ही संख्या के आंशिक रूपों के बीच अनन्त सूक्ष्म संख्याएँ विद्यमान होती हैं, पर जैसे इन संख्याओं के बीच हम मानक संख्याओं के सेतु ( 1, 2, 3, 4 आदि) बनाते हुए चलते हैं उसी प्रकार ध्वनिरूपों में सूक्ष्मातिसूक्ष्म अन्तर को ग्रहण करते हुए भी उनके व्यवहृत रूप युगों तक ऐसे बने रहते हैं जैसे उनमें कोई अन्तर ही नहीं आया हो।

मानक अवधि पर विचार करते ही खुसरो की खड़ी बोली में लिखित एक प्रसिद्ध मुकरी - खीर पकायी जतन से चर्खा दिया जलाय, आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय,  ला पानी पिला दे- याद आती है।  खुसरो  आज के नहीं 13वीं शताब्दी के कवि हैं। पूरे सात सौ साल पहले के। आज की खड़ी बोली में भी लिखते तो शब्दशः यही लिखते। सात सौ साल बीत गये, बोली वैसी की वैसी। तब भाषा के विकास की मानक अवधि क्या हुई। वह भी तब, जब पिछले सात सौ सालों में इस देश ने, खास तौर पर खड़ी बोली अंचल ने लगातार आव्रजन, आक्रमण और राजनीतिक झंझावात झेले, पर खड़ी बोली है कि अब तक बैठी ही नहीं। जस की तस है। इसी बोली के हिन्दी कहे जाने वाले लिखित रूप का रूपान्तर अवश्य हुआ है। कवियों और विद्वानों ने उधार ले-ले कर इसका शृंगार किया है। इसे ‘ग्वारि-गँवारि’ से ‘नागरी’  के रूप में रूपान्तरित किया है, पर संपर्क और विकास के क्रम में शब्द-संपदा में  वृद्धि और विजातीय शब्दों को अपने अनुकूल बनाने के अलावा इसके बोली रूपों में सब कुछ अपनी जगह पर कायम है।

जब राजनीतिक और आव्रजकों के झंझावात से भरे पिछले सात सौ साल में खड़ी बोली लगभग वही है तो उससे पहले के सात सौ या उससे भी अधिक सालों में ऐसा क्या हुआ कि  खड़ी बोली में  उसका वही रूप न रहा हो जो 13वीं शताब्दी में खुसरों की मुकरी की भाषा के रूप में विद्यमान है। कहा जाता है कि इस युग में हूण, आभीर गुर्जर आदि अनेक विदेशी जातियाँ भारत में प्रविष्ट हुईं, पर भारतीय इतिहास के लिए यह कोई नई घटना तो नहीं थी। ये जातियाँ तो अनेक समूहों में  पाणिनि के युग से भी पहले से  भारत में प्रविष्ट होती रहीं। उनकी बोली जिसे पतंजलि ने आभीरादिगिरः नाम से अभिहित किया है और बाद में जिसके लिखित रूप को  अपभ्रंश कहा गया, पाणिनि से भी पहले से  यहाँ विद्यमान थी।

अतः यह मानना असंगत नहीं होगा कि खुसरो से भी सात सौ साल  पहले खड़ी बोली अपने वर्तमान बोली क्षेत्र में लगभग इसी रूप में विद्यमान रही होगी।  फिर उत्तराखंड जैसे दुर्गम क्षेत्रों में जहाँ पिछले 2000 सालों में  ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, यह कैसे मान लिया जाय कि इस अंचल की बोलियों के मूल रूप थे ही नहीं और वर्तमान में जो बोली रूप मिलते हैं वे किसी अन्य क्षेत्र की मानक भाषा की देन हैं। इस से अधिक अवैज्ञानिक और अनैतिहासिक दृष्टि हो नहीं सकती।

बात  केवल बोली की नहीं मानक भाषा की भी है। उस भाषा की  है जिसमें राजकाज चलता है, नागर साहित्य पनपता है। शास्त्र और विधान लिखे जाते हैं। सत्ता जिसके हाथ में होती है, भाषा भी उसी की चलती है। वैदिकी  (वेदों की भाषा) हो या संस्कृत, पालि हो या विभिन्न नामों से मिलने वाली प्राकृतें, सब की सब सत्ता द्वारा अंगीकृत और मानकीकृत भाषाएँ हैं। साम्राज्यों के विकास काल में सभी क्षेत्रों और समूहों के अभिजात वर्ग को मान्य मानक भाषा  राजभाषा बनती है तो साम्राज्यों के विघटन और छोटे-छोटे राज्यों के उदय के साथ ही स्थानीय भाषाओं को भी राजभाषा बनने का अवसर मिलता है। जब जिस क्षेत्र की प्रजाति हावी हो जाती है, उसी क्षेत्र की भाषा राजभाषा या साहित्यिक भाषा या मानक भाषा बन जाती है और उसके लिखित रूप प्राप्त होने लगते हैं। जब कि अन्य बोली-समूहों की स्थिति के बारे में कोई  लिखित प्रमाण नहीं मिलता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे बोली रूप थे ही नहीं और उनके वर्तमान रूप किसी अन्य भाषा से पनपे।

प्रत्येक संस्कृति और बोलियों के शब्द-समूह युगान्तरालों में अनेक प्रकार  के संपर्कों से समृद्ध होते हैं। इनमें से कुछ संपर्क ऐतिहासिक युगों के दौरान घटित होने के कारण ज्ञात होते हैं तो कुछ ऐसे भी होते हैं जो इन युगों से पूर्व घटित होने के कारण यदा-कदा स्थानीय निवासियों में से कुछ की मुखाकृतियों में अपनी झलक दिखा  जाते हैं। कुछ ऐसे शब्द  शेष रह जाते हैं जिनकी व्युत्पत्ति का पता हम नहीं लगा पाते।  ऐसे शब्दों को  हम देशज शब्दों की कोटि में रख देते हैं। इनमें से भी अनेक के मूल स्रोत अतीत में ही खो जाते हैं तो कुछ  इतनी दूर के क्षेत्रों में फल-फूल रहे होते हैं, जिनसे अतीत में संपर्क की अवधारणा भी असंगत लगती है। कोल, मुंड, द्रविड़ और भी न मालूम कितनी प्रजातियों का हमारी संस्कृति और भाषा के विकास में योगदान है, इसका आकलन तो अपनी भाषा और संस्कृति के साथ विभिन्न प्रजातियों के तुलनात्मक सांस्कृतिक और भाषायी अध्ययन से ही होगा।

(मेरी पुस्तक शब्द भाषा और विचार से)
ताराचंद्र त्रिपाठी,  एल  मुरादबाद, 20-08-2016

ताराचंद्र त्रिपाठी जी की फेसबुक वॉल से साभार

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