
कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल - 11
पं. बदरीदत्त पांडे जी के "कुमाऊँ का इतिहास" पर आधारित
वर्तमान में कुमाऊँ का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश राज से पहले कुछ वर्षों (१७९० से १८१७) तक कुमाऊँ में गोरखों का शासन रहा जिसका नेतृत्व गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने किया था और वह पश्चिम हिमाचल के कांगड़ा तक पहुँच गया था। गोरखा राज से पहले चंद राजाओं का शासन रहा। अब तक जो प्रमाण मिलते हैं उनके अनुसार कुमाऊं में सबसे पहले कत्यूरी शासकों का शासन माना जाता है। पं. बदरीदत्त पांडे जी ने कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल ईसा के २५०० वर्ष पूर्व से ७०० ई. तक माना है।
अभिलेखों से प्राप्त विवरण से कत्यूरी शासकों के समय में राजकर्मचारियों और अधिकारीयों की अच्छी खासी संख्या होने का ज्ञान होता है। इस सम्बन्ध में पं. बद्रीदत्त पांडे जी ने लिखा है कि, इतने राजकर्मचारी, बड़े-बड़े पदाधिकारी, राजा, महाराजा, सैनिक व फौजी शासक राज्याभिषेक के समय कार्तिकेयपुर में एकत्र होते थे। इनको भूमि, पद, ताम्रपत्र, पुरस्कारादि मिलते थे। जिन राजाओं के इतने शासक हों, वे वास्तव में बड़े समाट होंगे।
यह भी जानकारी मिलती है कत्यूरी शासकों द्वारा राज्य पदाधिकारियों तथा कर्मचारियों की नियुक्ति में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था क्योंकि इनमें सभी वर्गों और क्षेत्रों के लोग होते थे जैसा कि पं. बदरीदत्त पांडे जी ने भी वर्णन किया है कि, इन लोगों में खस, द्रविड, कलिंग, गौड़, उद्र, आंध्र, चांडाल तथा ब्राह्मणेतर सब जातियाँ विद्यमान थीं, ऐसा शिला लेख कहते हैं।
मुंगेर में जो शिला-लेख मिला है, कहा जाता है कि वह भी ठीक वैसा ही है, जैसे उक्त पाँच कत्यूरी-सम्राटों के ताम्रपत्र हैं। वह पालवंशीय राजा देवपालदेव का है। भागलपुर का ताम्रपत्र पालवंशीय राजा नारायणपाल का है। मुंगेर के राजा देवपाल सौगत यानी बुद्ध-धर्मी कहे गये हैं। उनके मूलपुरुष गोपाल थे। उनके पुत्र धर्मपाल के बारे में कहा जाता है कि वह केदारनाथ गये थे। ताम्रपत्र में ऐसा भी कहा गया है कि धर्मपाल ने हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक के देश को जीता। कत्यूरी व पाल ताम्रपत्रों की लिपि भी प्रायः एक ही प्रकार की है। वह पाली की कुटिल लिपि में लिखे गये हैं। ताम्रपत्रों का ढंग एक ही किस्म का कहा जाता है। ८वीं से लेकर १०वीं सदी तक इनका प्रचार प्रायः सारे भारतवर्ष में था। लेखकों के नाम भी कत्यूरी व बंगाल के तामपत्रों में प्रायः एक ही क़िस्म के हैं:-
१. ललितसूर के ताम्रपत्र में गंगभद्र लेखक हैं।
२. दैशटदेव के ताम्रपत्र में भद्र लेखक हैं।
३. पद्मटदेव के ताम्रपत्र में नंदाभद्र लेखक हैं।
४. सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र में नंदाभद्र लेखक हैं।
५. मुंगेर के ताम्रपत्र में बिंदाभद्र लेखक हैं।
६. भागलपुर के ताम्रपत्र में भट्ट गौरव लेखक हैं।
कुमाऊँ तथा भागलपुर व मुंगेर के पत्रों में एकता का होना वास्तव में आश्चर्य-जनक बात है। लेखक भी भद्र-वंश के कोई विद्वान् पुरुष हैं। प्रारंभिक प्रवचन तथा श्लोक भी प्रायः एक-से हैं। एक छोटे से पर्वतीय राज्य में ऊँट, घोड़े तथा हाथियों का होना भी संभव नहीं, जब कि राज्य का विस्तार मैदान के प्रान्तों में न हो। अतः या तो कत्यूरियों का राज्य दूर-दूर फैला था या भद्र के खानदान में से किसी व्यक्ति ने आकर भारतव्यापी उस समय के दानपत्रों का प्रचार कुर्माचल में भी किया हो। तारीखें भी इन दानपत्रों में राजाओं के राजगद्दी पर बैठने के समय की हैं। सभी ताम्रपत्र संस्कृत में हैं। संस्कृत बड़ी क्लिष्ट है, तथा लंबे-चौड़े समासों से परिपूर्ण है।
प्राप्त ताम्रपत्रों में शत्रु राजाओं को हराकर राज्य विस्तार का वर्णन भी मिलता है पर कब किस राजा के साथ किस राज्य के लिए युद्ध हुआ आदि विवरण नहीं होने से कुछ ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाती है। पं. बदरीदत्त पांडे जी ने लिखा है कि, पांडुकेश्वर-ताम्रपत्र में लिखा है कि श्रीनिम्बर्तदेव ने विदेशी शत्रु पर विजय पाई। उन्होंने शत्रुओं का नाश इस प्रकार किया, जैसे उदय होता सूर्य कोहरे को नष्ट कर देता है। उसके पुत्र इष्टाङ्गदेव ने अपनी तलवार की धार से बड़े बड़े मस्त हाथियों को मारा। ये युद्ध सब मैदानों में हुए होंगे, क्योंकि पहाड़ों में हाथी युद्ध में नहीं आ सकते हैं, यद्यपि कत्यूर में कौसानी के पास हथछीना-नामक स्थान है, जहाँ पर कहते हैं कि कत्यूरियों के हाथी रहते थे। पाल-ताम्रपत्र में गोपाल को पृथु की तरह बताया गया है, और कत्यूरी-ताम्रपत्र में ललितसूरदेव को राजा पृथु के समान कहा गया है। ललितसूरदेव ने तमाम भारत में साम्राज्य स्थापित किया, ऐसा लिखा है। उधर देवपाल का राज्य भी महेन्द्र पर्वत से हिमालय तक होना लिखा गया है।
कुमाऊँ के दैशटदेव और पद्मट देव के ताम्रपत्र कार्तिकेयपुर के हैं, पर सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र में सुभिक्षपुर की मुहर है। इस नगर का ठीक-ठीक पता नहीं चलता। (संभव है, सुभिक्षपुर बौरारौ में हो, क्योंकि यहाँ की भूमि सदा शस्य-सम्पन्न रहती है। कहीं बौरारौ का शुभकोट ही प्राचीन सुभिक्षपुर तो नहीं था। ले०)
बागीश्वर तथा पांडुकेश्वर के दान-पत्रों में कुछ फर्क है। यद्यपि इनमें भी प्रशंसात्मक शब्द कुछ-कुछ मिलते हैं। दोनो में सलौणादित्य की प्रशंसा की गई है। और इच्छटदेव तथा उसकी माता को शिव तथा ब्रह्म का उपासक बताया है। इन दोनों को ब्राह्मण तथा ग़रीबों का विशेष सहायक बताया गया है। पद्मटदेव के बारे में कहा गया है कि वह शैव थे, तथा उन्होंने अपने भुजबल से अनेक प्रांतों को जीता था, जिनके मालिक इतने हाथी, घोड़े व रत्न कांचन लाते थे कि इंद्र को जो सम्पत्ति मिलती थी, वह उनके आगे तुच्छ थी। उनकी तुलना दधीचि व चंद्रगुप्त से की गई है, और उनका राज्य एक सागर से दूसरे सागर तक कहा जाता है। उनके पुत्र सुभिक्षराजदेव वैष्णव थे। ब्रह्म के चरणों में लीन थे। शास्त्रों के जाननेवाले, विद्वानों का आदर करते थे। कई गुणों से सम्पन्न थे। इत्यादि बातों के अलावा इन ताम्रपत्रों से ठीक-ठीक यह ज्ञात नहीं होता कि ये राजा कब हुए, और कहाँ तक इनका राज्य था।
ताम्रपत्रों में समय-समय पर विभिन्न सम्राटों द्वारा जमीनें दान में देने का वर्णन किया गया है जिसके बारे में पं. बदरीदत्त पांडे जी ने लिखा है कि, इन ताम्रपत्रों में जो-जो ज़मीने प्रदान की गई हैं, उनके नामों का कुछ जिक्र यहाँ पर किया जाता है, यद्यपि इस समय इनका ठीक-ठीक पता चलना कठिन है, क्योंकि २-३ हजार वर्ष के बीच उन नामों तथा पात्रों की कायापलट हो गई है।
श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे, अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com, वेबसाइट - www.almorabookdepot.com
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