
कुमाऊँ की रामलीला का संक्षिप्त परिचय-१
भगवान श्रीराम भारतीय समाज के ऐसे युगपुरुष हुए हैं, जो एक शासक तथा मनुष्य के रूप में अपने मर्यादित चरित्र से सारे मानव समाज को एक आदर्श प्रदान करते हैं। श्रीराम के इसी मर्यादित जीवन चरित्र को आदर्श मानते हुये उन्हें भारतीय समाज में मर्यादा पुरूषोत्तम राम के रूप में भी स्थापित किया है। यहाँ तक की उत्तर भारत के अधिकतर ग्रामीण स्थानों पर एक दूसरे को सम्बोधित किये जाने हेतु राम-राम के सम्बोधन को प्रयोग किया जाता है। श्रीराम के मर्यादा पुरुषोत्तम व्यक्तित्व से प्रभावित होकर तमिल व संस्कृत जैसी प्राचीन भाषाओँ से लेकर भारत की लगभग सभी भाषाओं/बोलियों में सम्बंधित भाषाओँ के कवियों द्वारा श्रीराम को नायक के रूप में प्रस्तुत करते हुए महाकाव्यों की रचना की गयी है। इन महाकाव्यों में श्रीराम के समकालीन कवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रचित रामायण, तमिल कवि कम्बन द्वारा तमिल भाषा में रचित रामअवतारम तथा गोस्वामी तुलसीदास द्वारा अवधी में रचित रामचरितमानस विशेष उल्लेखनीय महाकाव्य हैं।
भगवान राम की कथा पर आधारित महाकाव्यों के साथ-साथ ही उनके चरित्र को जनमानस में प्रचारित किये जाने हेतु श्रीराम के जीवन को नाटक या नौटंकी शैली में रंगमंच पर प्रस्तुत करने के उद्देश्य से रामलीला नाटक के मंचन की परंपरा भी भारत में युगों से चली आ रही है। भगवान श्रीराम के जीवन को आधार बनाते हुए लोकनाट्य के रुप में प्रचलित रामलीला का देश के विभिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न प्रकार से रंगमंच पर प्रस्तुतीकरण पूर्व से ही किया जाता रहा है। परन्तु श्रीराम के जीवन चरित्र को रंगमंच पर मानक रूप में प्रस्तुत किये जाने तथा व्यवस्थित कर लिपिबद्ध करने वाले महानुभावों में कुमाऊं के पं० रामदत्त जोशी, ज्योर्तिविद तथा बरेली के पं० राधेश्याम कथावाचक का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जिस कारण ही शारदीय नवरात्र में रामलीला नाटक के मंचन की परंपरा वर्तमान में उत्तर भारत के सभी स्थानों पर है। देश की राजधानी दिल्ली में लाल किले तथा रामलीला मैदान की रामलीला में तो देश के राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री भी अतिथि के रूप में उपस्थित होते रहते हैं।
देश के अन्य भागों की तरह ही उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊं अंचल में भी शारदीय नवरात्र में रामलीला के मंचन की परंपरा काफी पुरानी मानी जाती है, जो वर्तमान तक चली आ रही है। वर्तमान स्वरुप में रामलीला नाटक के मंचन की शुरुआत अठारहवीं सदी के मध्यकाल के आस पास से हुई बतायी जाती है। देहरादून के दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर के श्री चंद्रशेखर तिवारी के अनुसार प्रामाणिक रूप से रामलीला नाटक के मंचन का आरम्भ १८६० ई० में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर से माना जाता है, जिसके आयोजन का श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व० देवीदत्त जोशी को दिया जाता है। तदोपरांत ही कुमाऊं के अन्य स्थानों जैसे नैनीताल में १८८०, बागेश्वर में १८९० रामलीला नाटक के मंचन का प्रारम्भ हुआ। हल्द्वानी में रामलीला का आरम्भ १८९० के आस-पास का माना जाता है। पिथौरागढ़ में रामलीला का आयोजन भीमताल निवासी तत्कालीन डिप्टी कलक्टर पं. देवीदत्त मकड़िया के प्रयासों से वर्ष 1897 में हुआ बताया जाता है। स्थांनीय रंगकर्मियों के अनुसार चम्पावत में इसी के आस-पास वर्ष १९०० से रामलीला का आरम्भ माना जाता है। भीमताल में प्रसिद्द कुमाऊँनी साहित्यकार तथा ज्योतिर्विद पं० राम दत्त जोशी जी द्वारा १९०६ में रामलीला कमेटी बनाकर रामलीला का मंचन प्रारम्भ करवाया गया।
उत्तराखण्ड के कुमाऊँ अंचल में रामलीला को गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत किया जाता है, जो नौटंकी से मिलता जुलता है। जैसा की पूर्व में उल्लेख किया गया है कि रामलीला को लिपिबद्ध कर रंगमंच पर मानक रूप में प्रस्तुत किये जाने का कार्य कुमाऊं के पं० रामदत्त जोशी, ज्योर्तिविद तथा बरेली के स्व. राधेश्याम कथावाचक द्वारा किया गया। दोनों महानुभाव एक दूसरे के समकालीन हैं तथा इनका रचनाकाल १९०० के प्रारम्भिक दशकों से शुरू होता है। इससे पूर्व कुमाऊं तथा उत्तर भारत के अन्य स्थानों की रामलीला विशुद्ध मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी जनमानस में रचती-बसती रही। शास्त्रीय संगीत के तमाम पक्षों व बारीकियों का ज्ञान न होने पर भी लोग सुनकर ही रामलीला पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे। हमारे बुजुर्ग लोगों के अनुसार पूर्व में जब रामलीला के मंचन हेतु आज के समान सुविधाएं न के बराबर थीं, उस समय की रामलीला लालटेन, पैट्रोमैक्स (जिसे कुमाऊं में गैस कहते हैं) या मशाल की रोशनी में मंचित की जाती थी।
कालान्तर में कुमाऊं की रामलीला कुछ अभिनव प्रयोग भी किये गए जैसे अल्मोड़ा नगर में १९४०-४१ में विख्यात नृत्य सम्राट पं० उदय शंकर ने छायाचित्रों के माध्यम से रामलीला को प्रस्तुत कर नवीनता लाने का प्रयास किया। हांलाकि पं० उदय शंकर द्वारा प्रस्तुत छायाचित्र शैली की रामलीला यहां की परंपरागत रामलीला से कई मायनों में भिन्न थी लेकिन यहाँ की रामलीला में पं० उदय शंकर के छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य आदि का आंशिक प्रभाव अवश्य पड़ा। अभिनव प्रयोगों के इसी क्रम में प्रसिद्ध रंगकर्मी स्व. बृजेंद्र लाल साह जी ने वर्ष 1958 में मुनस्यारी नगर तथा उससे लगे गांवों में कुमाऊंनी भाषा में रामलीला की शुरुआत की थी। इस लोकनाट्य उत्सव के सारे संवाद कुमाऊंनी भाषा में किए गए, पात्रों ने अभिनय कुमाऊंनी में किया और फिर पहली बार जब मंच पर इसका प्रदर्शन हुआ तो इसे स्थानीय स्तर पर काफी ख्याति मिल गई। तब से लेकर आज तक मुनस्यारी तहसील के जोशा, चौना, बुई, जैंती, पातो, दरांती, तोमिक, माणीटुंडी, रिंगू, चुलकोट गांव में पहाड़ी भाषा में राम की लीला का मंचन होता है। इन गांवों में रामलीला दिवाली के बाद नवंबर माह में रामलीला होती है क्योंकि तब तक लोगों की खेतीबाड़ी का काम निपट जाता है और स्वस्थ मनोरंजन के लिए पूर्ण आस्था के साथ एकजुट होकर लोग इस उत्सव को मनाते हैं। मुनस्यारी नगर में कुमाऊंनी भाषा में रामलीला की परम्परा अब समाप्त हो चुकी है, किन्तु आस-पास के गाँवो में कुछ वर्ष पूर्व तक यह परंपरा प्रचलन में थी।
कुमाऊं की रामलीला में परशुराम-लक्ष्मण संवाद का एक दृश्य (रंगीलो कुमाऊं यूट्यूब चैनल से)
कुमाऊँ की रामलीला में बोले जाने वाले संवादों, धुन, लय, ताल व सुरों में पारसी थियेटर की छाप स्वाभाविक रूप से दिखायी देती है। इसके साथ ही ब्रज के लोकगीतों और नौटंकी शैली का प्रभाव भी इसमें मौजूद है। लिखित रूप में कुमाऊँ की रामलीला का मुख्य आधार स्व० पं० रामदत्त जोशी जी द्वारा रचित रामलीला नाटक है, जिसके सम्वादों में रामचरितमानस की चौपाइयों और दोहों तथा हिंदी बोलचाल के सरल शब्दों का प्रयोग होता है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में अधिकांशतः कुमाऊँनी शैली का प्रयोग किया जाता है। लेकिन अलग अलग स्थानों पर स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुतीकरण में अपनी सृजनात्मकता का प्रयोग होता रहता है। जिस प्रकार श्रीराम से सम्बंधित काव्यों में राम की कहानी में कई तरह के सूक्ष्म प्रयोग किये गए हैं, किन्तु कथा का मुख्य आधार वाल्मीकि रामायण ही है। उसी प्रकार कुमाऊं की रामलीला के प्रस्तुतीकरण में भी अलग-अलग स्थानों पर थोड़ा बहुत अंतर देखने को मिल जाता है।
कुमाऊँ की रामलीला में वाचक अभिनय अधिक होता है, जिसमें पात्र एक ही स्थान पर खडे़ होकर हाव-भाव प्रदर्शित कर संवादों को भी गाकर प्रस्तुत करते हैं। किसी भी पात्र अभिनेता का अभिनय तभी प्रभावपूर्ण हो पाता है, जब वह अभिनय व संवाद अदायगी के साथ-साथ गायन की विधा में भी निपुण हो। रामलीला के गाये जाने वाले संवादो में प्रयुक्त गीत विभिन्न तालों जैसे दादर, कहरुवा, चांचर व रुपक आदि में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमकती गूंज के साथ पात्र अभिनेता का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादो में रामचरित मानस के दोहों व चौपाईयों के अलावा कई जगहों पर गद्य रुप में भी संवादों का प्रयोग होता है, लेकिन गायन के साथ अभिनय को ही अधिक प्राथमिकता दी जाती है।
रामलीला को रोचक बनाने तथा संवादों में आकर्षण व प्रभाव लाने के लिये कहीं-कहीं पर फ़िल्मी संवादों को अपभ्रंश रूप में प्रयोग, नेपाली व उर्दू की गजल का संवाद में सम्मिश्रण करने जैसे प्रयोग किये गये है। जैसे फिल्म विश्वनाथ के शत्रुघन सिन्हा के प्रसिद्द संवाद "जली को आग, बुझी को राख कहते हैं। जिस राख से बारूद निकलता है, उसे विश्वनाथ कहते हैं" को रामलीला में अपभ्रंश कर मेघनाद-लक्ष्मण संवाद में मेघनाद के संवाद "जली को आग, बुझी को राख कहते हैं। जिस राख से बारूद निकलता है, उसे मेघनाद कहते हैं" के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है।
रामलीला मंचन के दौरान कभी-कभी नेपथ्य(बैकस्टेज) से भी गायन होता है तथा आकाशवाणी के दृश्यों में नेपथ्य से उदघोषणा भी की जाती हैं। अन्य नाटकीय प्रस्तुतियों जैसे नौटंकी की तरह ही यहाँ भी दृश्यों के बीच में नेपथ्य(बैकस्टेज) से आयोजकों द्वारा रामलीला से सम्बंधित सार्वजनिक सूचनाएं जैसे अगले दृश्य का विवरण, पात्र अभिनेताओं को दिये गये पारितोषिक तथा रामलीला समिति को प्राप्त अनुदान/चंदे आदि के विवरण से सम्बंधित उद्घोषणा भी समय-समय पर की जाती हैं।
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फोटो सोर्स: गूगल
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