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घुघुतिया-पक्षियों के प्रति सौहार्द भाव का लोकपर्व

डा.मोहन चन्द तिवारी








“काले कवा काले, घुघुती मावा खा ले।
लै कावा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़!"




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🔥उत्तराखण्ड का ‘घुघुतिया’ त्यौहार🔥
पक्षियों के प्रति सौहार्द भाव का लोकपर्व॥
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कुमाऊं उत्तराखण्ड में मकर संक्रान्ति का पर्व ‘उत्तरायणी या ‘घुघुतिया' त्यौहार के रूप में मनाया जाता है और काले कौए को इस दिन घुघुते,खजूर के पकवान खाने के लिए विशेष अतिथि के रूप में बुलाया जाता है।बच्चे मकर संक्रांति के दिन घुघुतों की माला अपने गले में डाल कर कौवे को बुलाते हैं और कहते हैं -

"काले कव्वा काले ! घुघुते माला खाले!।।
"लै कावा भात में कै दे सुनक थात"।।
"लै कावा लगड़ में कै दे भै बैंनू दगड़"।।
"लै कावा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़"।।

(हे काले कव्वे ! घुघुतों की माला खाले। हे कव्वे ! भात खाले और उसके बदले मुझे सोने का थाल दे दे। हे कव्वे ! पूरी खाले उसके बदले मुझे भाई बहिनों का साथ दे दे। हे कव्वे ! बड़ा खाले और उसके बदले मुझे सोने का घोड़ा दे दे)

कभी कोई जमाना था जब दुहरी-तिहरी घुघुतों की माला पहने हर पहाड़ी बालक हो या वृद्ध या महिला कौवों को बुलाकर ‘उत्तरायणी त्योहार का स्वागत किया करते थे पर अब इसकी लोक परंपरा धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है और पहाड़ के कौए भी उत्तरायणी के दिन निराश होकर चले जाते हैं कि जिन मकानों से उनको इस दिन घुघुते-बड़े खाने को मिलते थे वहां ताले लटके हैं। वहां के स्वामी अपने रोजगार के लिए घर छोड़ कर पलायन करके चले गए हैं तो अब कहां से मिलेगा उन्हें खाने को घुघुते और बड़े जिससे कि वे उन गृहस्वामियों को उन्हें सोने के घड़े का उपहार दे सकें। यह चिंता की बात है कि हम आज न केवल पहाड़ से बल्कि उस अपनी हिमालयीय विराट् लोक संस्कृति से भी दूर होते जा रहे हैं जिसमें एक कौए जैसे पक्षी के लिए भी अत्यंत आत्मीयता के बोल बोले जाते हैं। घुघुती हो या कौआ प्रकृति की गोद में विचरण करने वाले इन पक्षियों के रचना संसार से ही उत्तरायणी जैसी पहाड़ की लोक संस्कृति को नव जीवन मिलता है।

🎁घुघुतिया पर्व के बारे में प्रचलित जनश्रुति🎁
कुमाऊं की वादियों में प्रचलित एक स्थानीय जनश्रुति के अनुसार कुमाऊं के चंदवंशीय राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता उत्तराधिकारी पुत्र निर्भय चंद प्राप्त हुआ था, जिसे रानी प्यार से ‘घुघुती’ कहती थी। ‘घुघुती’ पर्वतीय इलाके के एक पक्षी को कहा जाता है। राजा का यह पुत्र भी एक पक्षी की तरह उसकी आँखों का तारा था उस बच्चे के साथ कौवों का विशेष लगाव रहता था। बच्चे को जब खाना दिया जाता था तो वह कौवे उसके आस पास रहते थे और उसको दिए जाने वाले भोजन से वे अपनी भूख मिटाया करते थे। एक बार राजा के मंत्री ने षड़यंत्र रच कर राज्य प्राप्त करने की नीयत से ‘घुघुती’ का अपहरण कर लिया। वह उस मासूम बच्चे को जंगलो में फैंक आया। पर मित्र कौवे वहां भी उस बच्चे की मदद करते रहे। इधर राजमहल से बच्चे का अपहरण होने से राजा बहुत परेशान हुआ। कोई गुप्तचर यह पता नही लगा सका आखिर ‘घुघुती’ कहां चला गया ? तभी रानी की निगाह एक कौवे पर पड़ी। वह बार बार कहीं उड़ता था और वापस राजमहल में आकर कांव कांव करता था। उसी समय कौवा ‘घुघुती’ के गले में पड़ी मोतियों की माला को राजमहल में ले आया। इससे रानी को पुत्र की कुशलता का संकेत मिला और रानी ने यह बात राजा को बताई।उस कौवे का पीछा करने पर राजा का पुत्र जंगल में मिल गया जहां पर उसके चारों ओर कौवे उस बच्चे की रक्षा कर रहे थे।

राजा को जब यह बात पता चली कि कौवों ने उसके पुत्र की जान बचाई है तो उसने प्रति वर्ष ‘उत्तरायणी’ के दिन ‘घुघुतिया त्यौहार मनाने का फैसला किया जिसमें कौवो को विशेष भोग लगाने की व्यवस्था की गयी। तभी से कुमाऊं में घुघुतिया त्यौहार के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुतों के आकार के स्वादिष्ट पकवानों की माला तैयार करने और कौओं को पुकारने की प्रथा प्रचलित है। कौए आदि पक्षियों से प्रेम करने का संदेश देने वाले इस ‘घुघुतिया ’ त्यौहार की परम्परा आज भी कुमाऊ अंचल में जीवित है।

🎁 घुघुते बनाने के सरल विधि🎁
घुघुते बनाने के पीछे यह मान्यता है कि यह एक ऐसा व्यंजन है जो केवल उत्तरायणी के अवसर पर ही बनाया जाता है। इस व्यंजन को बनाने की विधि सरल है। सबसे पहले पानी गरम करके उसमें गुड़ डालकर चाश्नी बना ली जाती है, फ़िर आटा छानकर इसे आटे में मिलाकर गूंथ लिया जाता है। जब आटा रोटी बनाने की तरह तैयार हो जाता है तो आटे की करीब 6" लम्बी और अंगुलि की मोटाई वाली आकृतियों को हिन्दी के ४ की तरह मोड़कर नीचे से बंद कर दिया जाता है। इन ४ की तरह दिखने वाली आकृतियों को स्थानीय भाषा में ‘घुघुते’ कहते हैं। घुघुतों के साथ साथ इसी आटे से अन्य तरह की आकृतियाँ भी बनायी जाती हैं, जैसे, डमरू, सुपारी, टोकरी, तलवार, ढाल आदि। पर सामान्य रूप से इन सब पकवानों को ‘घुघुत’ नाम से ही जाना जाता है। घुघुते बनाने का क्रम दोपहर के बाद से शुरु हो जाता है जिसमें परिवार का हर सदस्य हिस्सा लेता है।

आटे की आकृतियां बन जाने के बाद इनको सुखाने के लिए फ़ैलाकर रख दिया जाता है। रात तक जब घुघुते सूख कर थोड़ा ठोस हो जाते है तो उनको घी या वनस्पति तेल में पूरियों की तरह तला जाता है। किसी को भी तलते समय बात करने की मनाही रहती है। बच्चों को कहा जाता है कि अगर शोर करोगे तो घुघुते उड़ जायेंगे। घुघुतों को तलने के बाद इनकी माला बनायी जाती है, जिसमें मूंगफ़ली, मौसमी फ़ल जैसे सेव, नारंगी, अन्य मेवे भी पिरोये जाते हैं। घुघुतों की माला बनाने के बाद इनको अगले दिन कौओं खिलाने के लिए सुरक्षित रख दिया जाता है। एक विशेष बात यह रहती है कि घुघुते कौओं को खिलाने से पहले कोई नहीं खा सकता। कौओं को पितरों का प्रतीक मानकर यह पितरों को अर्पण की जाने वाली पूजा सामग्री मानी जाती है।

कुमाऊँ के अल्मोड़ा, चम्पावत, नैनीताल तथा उधमसिंह नगर जनपदीय क्षेत्रों में मकर संक्रान्ति को माघ मास के 1 गते को घुघुते बनाये जाते हैं और अगली सुबह 2 गते माघ को कौवे को दिये जाते हैं । वहीं रामगंगा पार के पिथौरागढ़ और बागेश्वर अंचल में मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या यानी पौष मास के अंतिम दिन अर्थात मासान्त को ही घुघुते बनाये जाते हैं और मकर संक्रान्ति अर्थात माघ 1 गते को कौवे को खिलाये जाते हैं। इसके बाद रिश्तेदारों तथा मित्रगणों के घर-घर घुघुते बांटने का सिलसिला शुरू होता है । जो सदस्य घर से दूर रहते हैं उनके लिए घुघुते पार्सल और कोरियर के माध्यम से भी भेजे जा सकते हैं। घुघुतिया के दिन घुघुते बनाने के बाद इनको दुबारा बसन्त पंचमी तक बनाया जा सकता है।

🎁कौओं के प्रति सौहार्दभाव का पर्व🎁
भारत में पशु पक्षियों से सम्बंधित कई पर्व मनाये जाते हैं पर कौओं के प्रति सौहार्द प्रकट करने वाले इस अनोखे त्यौहार को मनाने की प्रथा केवल उत्तराखण्ड के कुमाऊँ अंचल में ही प्रचलित है। वैसे कौए की चतुराई के बारे में कहावत है कि पक्षियों में कौआ सबसे बुद्धिमान होता है। कौए की चतुराई के बारे में कई वैज्ञानिक शोधों से भी यह सिद्ध हो चुका है कि कौए का मष्तिष्क अन्य पशु-पक्षियों से अधिक विकसित होता है।

यह उत्तराखण्ड वासियों के लिए चिंता की बात है कि आज हम अपनी लोक संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं तथा पक्षिप्रेम से जुड़े ऐसे पर्यावरणवादी पर्वों की अहमियत को भी महानगरीय ग्लैमर के दुष्प्रभाव में आकर भूलाते जा रहे हैं। पर संतोष का विषय यह भी है कि महानगरों में रहने वाले अनेक प्रवासी जनों में यह ‘घुघुतिया’ त्यौहार अभी भी बड़े उत्साह से मनाया जाता है। मेरे परिवार में मेरी मां के कहने पर ‘उत्तरायणी’ के मौके पर ‘घुघुते’ बनाने की यह रीत अभी भी जारी है। मेरे परिवार जन भी ‘घुघुते’ बना रहे हैं। मेरा भांजा गणेश उपाध्याय ‘घुघुते’ बनाने के लिए आटा गूंथ रहा है और मेरी बहन ‘घुघुते’ उल्हाने की तैयारी कर रही है।आप सब भी ऊपर बताई गई सरल विधि से ‘घुघुते’ बना कर इस त्योहार को मनाएंगे तो आपको पता चलेगा कि इन घुघुतों का आस्वाद कितना मधुर होता है और उससे भी अधिक आनन्ददायी होता है पहाड़ की लोकसंस्कृति से जुड़ने का सुख। सभी मित्रों को मकर संक्रान्ति, उत्तरायणी और ‘घुघुतिया’ त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाएं-

“काले कवा काले, घुघुती मावा खा ले।
लै कावा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़!”

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